पाकर खोया , खोकर पाया, कुछ भी नहीं गंवाया हमने ।
भीतर-भीतर मन जान रहा, क्या खोया क्या पाया हमने।।
उल्टा पतरा बांच रहा है, संविधान पर बैठ सभासद।
संसद भवन सुनाता कैसे, जीवन की गाथाएं त्रासद।।
लेखा-जोखा किसको लेना, कितना लहू जलाया हमने ।
हर चेहरा रंगीन मुखौटा, सिक्का खरा नहीं खोटा है।।
कोठे पर आरुढ़ महाजन, तंत्र बड़ी पर मन छोटा है।
कंधे कुली रहे जीवन भर, कैसा भार उठाया हमने ।।
सदी महज यह एक नदी है, कलकल छलछल भरती गागर।
नद नदियों से मिलती यह तो, प्रतिपल तिरती तरती सागर।।
समय नहीं वह फिर फिर आया, कितनी बार बुलाया मैंने ।
हाथी-घोड़े महल–अटारी, आसन बैठे अवतारी है।
कोटि -कोटि सिजदे में लौटे, जन पर अब भी धन भारी है।।
भाग्य लेख पुरखों से जो भी,जितना सुना, सुनाया हमने ।
होड़ यही है कद ऊंचा है, कितना अपना दिखलाना है।।
वैभव -ताकत नये नजारे, हर दिन का नया तराना है ।
फल कोई भी हाथ न आया, पेड़ों को अकुलाया हमने ।।
बीन बजाता जादूगर है, उनके आते हाथ उछलते।।
भेंड़ों की चाल चलाते वे, कुछ पल रुककर साथ मचलते ।
चिडियों के स्वर में कोरस सुन, बेमन बाज बुझाया हमने ।।
संजय पंकज। युवा कवि एवं लेखक ‘यवनिका उठने तक ‘, ‘मां है शब्दातीत , ‘मंजर मंजर आग लगी है ‘ , यहां तो सब बंजारे , सोच सकते हो सहित अनेक काव्य कृतियां एवं वैचारिक लेखों का संग्रह ‘समय बोलता है ‘प्रकाशित। सम्प्रति निराला निकेतन पत्रिका बेला का सम्पादन। सम्पर्क शुभानंदी, नीतीश्वर मार्ग, आम गोला मुजफ्फरपुर। आपसे मो.न.–09973977511 या
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