बनपुरी के डिजिटल स्कूल बनने की कहानी गजब-दिलचस्प है!

बनपुरी के डिजिटल स्कूल बनने की कहानी गजब-दिलचस्प है!

शिरीष खरे

बारह साल पहले जब यहां यह स्कूल नहीं था तब एक आदमी ने अपनी जमीन दान कर दी। लेकिन, स्कूल के लिए जब भवन उपलब्ध नहीं था तब दो लोगों ने अपने घर दान दे दिए और खुद अपनी-अपनी झोपड़ियों में ही रहते रहे। लेकिन, जब पढ़ाने के लिए कोई शिक्षक उपलब्ध नहीं था तब गांव का ही एक बीए पास युवक इसके लिए तैयार हुआ, जो महज एक हजार रूपये महीने के वेतन पर लगातार नौ सालों तक पढ़ाता रहा और इस तरह इस बस्ती के छोटे बच्चों को तीन किलोमीटर दूर स्कूल जाने से छुटकारा मिल गया। लेकिन, कक्षा में जब बच्चों को बैठने के लिए कुर्सी-टेबल नहीं थे तब पुणे में नौकरियां करने वाले गांव के अन्य युवकों ने कुर्सी-टेबल उपलब्ध कराए। फिर बच्चों के माता-पिता ने बोर्ड, पंखे और साज-सज्जा के सामान उपलब्ध कराए। ग्राम पंचायत ने 52 इंच का कलर टीवी उपलब्ध कराया और बिजली-पानी की सुविधा दी।

जब बच्चों ने साल-दर-साल अच्छे परीक्षा परिणाम दिए तब महाराष्ट्र के शिक्षा विभाग का ध्यान इस बस्ती शाला की ओर गया और जिला परिषद, सांगली ने 2014 में इस बस्ती शाला को प्राथमिक शाला का दर्जा दिया और इस जगह पर यह एक नया स्कूल भवन बनवाया। साथ ही यहां के शिक्षक को स्थाई नौकरी पर रखा।

अब इस साल से पहली से चौथी तक के 33 बच्चे ऑनलाइन शिक्षण हासिल कर रहे हैं। यानी शिक्षक मोबाइल से वाईफाई कनेक्ट करते हैं और इंटरनेट की मदद से गूगल में जाकर महाराष्ट्र सरकार और जिला परिषद के पाठ्यक्रम सर्च करते है और अपनी जरुरत के हिसाब से बच्चों को संबंधित पाठ पढ़ाते हैं।

इस तरह, जब देश के बहुत सारे स्कूल डिजिटल बनने की कतार में बहुत पीछे हैं तब महाराष्ट्र के एक सुदूर गांव का यह स्कूल डिजिटल स्कूलों में शामिल है। इससे संबंधित एक गतिविधि आप फोटो-2 में भी देख सकते हैं।

यह है जिला मुख्यालय सांगली से 80 किलोमीटर दूर यमगार बस्ती का स्कूल, जो बनपुरी ग्राम पंचायत के अंतर्गत आता है। इस बस्ती में करीब एक हजार लोग रहते हैं। इन्होंने यह साबित किया है कि जन-सहयोग से किस तरह सरकारी स्कूलों को एक नई पहचान दी जा सकती है और साथ ही इनमें सुधार भी लाया जा सकता है।

अहम बात यह है कि यहां के ज्यादातर किसान लोगों ने आने वाली पीढ़ी के लिए शिक्षा का महत्त्व समझा और एक साझा पहल की है। इस पहल का नतीजा बारह साल बाद आज दिखाई दे रहा है। शिक्षा में होने वाले प्रयास तुरंत नहीं दिखते, इसलिए इस बस्ती के प्रयास धीरे-धीरे परवान चढ़े हैं।

आखिर कौन हैं ये लोग? आइए, ऐसे महान लोगों से आपका परिचय कराते हैं। जानते हैं इनके नाम और काम के बारे में।

वर्ष 2005 में तातोवा महाकंडी यमगार नाम के व्यक्ति ने स्कूल के लिए 5,000 वर्ग मीटर जमीन दान दी। इसके बाद जीजाराम यमगार और विश्वास काले नाम के दो व्यक्तियों ने अपने-अपने घर दिए और खुद बाजू की झोपड़ियों में रहे। फिर बिरू नामदेव मूढ़े नाम के नवयुवक ने बारह हजार रूपए सालाना पर बतौर शिक्षक नौ सालों तक बच्चों को पढ़ाया। इसके अलावा कई नाम नींव के पत्थर की तरह हैं।

अब इस स्कूल में दो शिक्षक हैं। एक तो खुद बिरू नामदेव मूढ़े और दूसरे स्कूल के मुख्य अध्यापक भारत भीमशंकर डिगोले।


shirish khareशिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।