ब्रह्मानंद ठाकुर
सामा चकेवा बिहार का एक प्रमुख लोक पर्व है जो कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष में चतुर्थी तिथि से पूर्णिमा तक मनाया जाता है। यह पर्व मिथकीय कथाओं पर आधारित है जो भाई- बहन के प्रति परस्पर स्नेह और समर्पण को दर्शाता है। इसके भाव गीतों के माध्यम से व्यक्त किए जाते हैं। इस पर्व से जुड़ी एक कथा यह है कि श्री कृष्ण की 16 हजार स्त्रियों में एक थी जाम्बवती। उसकी एक पुत्री थी सामा और पुत्र था साम्ब। सामा अतीव सुन्दरी थी। उसका विवाह चारुवक्त्र से हुआ था जिसे चकेवा भी कहा जाता है।
सामा को वृन्दावन के प्राकृतिक सौन्दर्य से बड़ा लगाव था। लिहाजा वह अक्सर वहां जाया करती और वहां ऋषि मुनियों का प्रवचन सुनती, वन के सौन्दर्य और पशु-पक्षियों का कलरव देख वापस आ जाया करती। श्रीकृष्ण का एक सेवक था चूड़क, जिसे चुगला भी कहा जाता है। उसने एक दिन श्रीकृष्ण को समझाया कि सामा रोज वृन्दावन में एक युवा ऋषि से मिलने जाया करती है। जिस समय चुगला ने कृष्ण से सामा की यह चुगली की थी, सामा वृन्दावन से लौट कर अपनी मां जाम्बती के पास बैठी हुई थी। कृष्ण ने तुरंत दूत भेज कर सामा को अपने पास बुलाया। सामा जब वहां पहुंची तो कृष्ण उसे देखते ही क्रोध में वृन्दावन जाने के बारे में पूछा। अपने पिता के इस रौद्र रूप को देख सामा हतप्रभ रह गयी। उससे कोई जबाव न पाकर कृष्ण ने उसे पक्षी बन जाने का शाप दे दिया। सामा पक्षी बन गयी।
सामा का पति इस घटना से इतना आहत हुआ कि उसने भगवान शिव की तपस्या करनी शुरू कर दी और शिव से वरदान स्वरूप खुद को चकेवा पक्षी बना देने की प्रार्थना की। शिव ने चारूवक्त्र को चकेवा पक्षी बना दिया। इस तरह पक्षी बनकर सामा-चकेवा दोनों वृन्दावन में निवास करने लगे। उधर सामा को शाप देकर जब कृष्ण ने पक्षी बना दिया तो उसी समय साम्ब घर पर नहीं था। जब वह लौटा तो बहन सामा की खोज करने लगा। उसे जब पिता के शाप से सामा को पक्षी बन जाने की घटना की जानकारी हुई तो श्रीकृष्ण से सामा को शापमुक्त करने की प्रार्थना की। तब कृष्ण ने कहा कि शाप तो वापस नहीं लिया जा सकता, लेकिन वे दोनों युगों-युगों तक धरती पर पूजे जाते रहेंगे। कहते हैं कि चकेवा की एक बहन थी जिसका नाम खरो था। उसे भी अपने भाई से बड़ा स्नेह था। भाई-भाभी के पक्षी बन जाने का उसे बड़ा दुख हुआ। जिसके बाद वो दोनों की मूर्ति बनाकर पूजा करने लगी।
सामा-चकेवा का पर्व भाई-बहन के नैसर्गिक प्रेम का अद्भुत उदाहरण है। इसी प्रेम के कारण बहने अपने भाई के दीर्घायु और यशस्वी बने रहने की कामना करती है। इस पर्व में गीतों का बाहुल्य होता है। सामा-चकेवा के आने का प्रस्ताव भी गीतों के माध्यम से किया जाता है-‘साम चाको, साम चाको अईहा हे अईहा हे, कूड़ खेत में बइसिह हे, बइसिह हे/सब रंग पटिया ओछइह हे, ओछइह हे/ओहि पटिया पर कै-कै जना कै-कै जना/छोटि-बड़े नवे जना, नवे जना /नवे जना के खड़हक छूरी, खड़हक छूड़ी/ हमरा भइया के सोन छूरी, सोन छूरी/सोन छूरी से कतरल पान, कतरल पान/हमरा भइया के दुन्नू ठोर लाल, दुन्नू ठोर लाल।
समग्रता में देखा जाए तो सामा-चकेवा का यह लोकपर्व खेल नहीं है। जीवन क्षेत्र में प्रवेश कर उसमें सफल होने का भी इसमें संदेश निहित है। कार्तिक का शुक्ल पक्ष है। गांव घर की युवतियां सामा-चकेवा खेलने मायके आती हैं। सामा-चकेवा की मूर्ति बनाती हैं। इसके लिए मिट्टी चाहिए। वह भी इधर-उधर की नहीं, गंगा किनारे की पवित्र माटी। अब सवाल है, कि यह मिट्टी लाएगा कौन? जबाव भी गीतों के माध्यम से हाजिर है- “कौने भइया आनि देथिन गंगा-गोढिल मटिया, कौने भउजो पारि देथिन सामो हे चकेवा।
भाई गंगा किनारे से मिट्टी ले आया है गांव की प्रौढ़ महिलाएं बच्चियों को मूर्ति बनाना सिखाती हैं। अब डाला सजकर तैयार है। सभी बहनें डाला लेकर घर से बाहर निकलती हैं। भाई ने हंसी-हंसी में डाला छीन लिया है। तब बहने गीत में ही इसका प्रतिवाद करती हैं- ‘ डाला ले बाहर भेलि बहिनो से सब बहिनो, सभे भइया लेल डाला छिन सुनू राम सजनी/ दुअरा बइठल तोहे बडइता बाबा , सभे भइया डाला छिन लेल सुनू राम सजनी।’ भाई ने डाला छीन लिया है। बहनें दरवाजे पर बैठे बाबा से डाला दिलवाने की गुहार लगाती हैं। बाबा कहते हैं कि मैं तो डाला तुम्हें दिलवा देता हूं लेकिन तुम अपने भाई को क्या दान दोगी ? इस पर बहने गीत में ही कहतीं हैं- ‘ जब मोरा डाला मंगाई देब हो बाबा, पढ़े के पोथिया देबइ दान, चढन के घोडिया देबइ दान, जब हम ससुररिया बसबइ हो बाबा, छोटकी ननदिया देबइ दान । ‘ भाई खुश होकर डाला बहन को सौंप देता है।
गम्भीरता से सोचा जाए तो इस लोकपर्व में स्त्री विमर्श की अनुगूंज भी सुनाई पड़ती है। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की उपेक्षा, परिवार में लड़की की अपेक्षा लड़के को ज्यादा तरजीह देना, कन्या भ्रूण हत्या समेत लडकियों को उसके वाजिब हक से वंचित किया जाना आदि ऐसे अनेक सवाल हैं जो यहां भी खड़े किए गये हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है कि विवाह के बाद कन्या का अपने मायके में कोई अधिकार नहीं रह जाता। अपने ही मां-बाप और भाई- भाभी के घर में वह पराई क्यों समझी जाने लगती है। इस पर्व के अवसर पर गाये जाने वाले एक गीत में इसी पीड़ी की तो अभिव्यक्ति हुई है- ” सामा खेले गेलिअइ भइया के अंगना हे, आहे भउजो लेलन लुलुआए, छोडू ननदो आंगन हे/जनु लुलुआउ अहां भउजो हे,छोडि देबई बाबा भईया के राज, छोडब तोहर आंगन हे।
इस पर्व का समापन भी बड़ा ही भावुकता वाला दृश्य उत्पन्न करता है। नदी-तालाब के किनारे बहन -भाई सभी खड़े हैं। विदाई की इस घड़ी में सबकी आंखें नम हैं। बेरे पर सामा के उपयोग की सभी सामग्रियां रख दी गई हैं। फल-मिठाई आदि रखे जा रहे हैं। दीप जला दिए गये हैं। बहनें भाई को फांड भरती हैं। वह चिउरा और बताशा-लड्डू पांच बार अंजुरी में भर कर भाई के गमछे में डालती है। भाई उसमें से एक मुठ्ठी निकाल कर बहन को देता है। प्रतीक रूप में भाई से यही एक मुठ्ठी सौगात पा कर सामा दूर देश अपनी ससुराल चली जाती है। फिर बेरा नदी-तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है। नदी की लहरों से हिलकोरें खाता हुआ, दीपों का झिलमिल प्रकाश बिखेरता बेरा आंखों से ओझल होता जा रहा है, दूर बहुत दूर अगले साल की प्रतीक्षा में।
ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।