भारत की आजादी के 70 दशक हो चुके हैं फिर भी हमारी सरकारें देश की जनता को शिक्षा और स्वस्थ्य का समान अधिकार देने में नाकाम रहीं हैं। हिंदुस्तान जैसे-जैसे जवान होता गया देश की शिक्षा-स्वस्थ्य व्यवस्था पूंजीपतियों या यूं कहें कि निजी हाथों की कठपुतली बनती गई । आलम ये है कि सरकारी संस्थानों में आज लोग अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते । हम आरक्षण की मांग करते हैं, राजनीतिक दल आरक्षण के मायाजाल में देश की जनता को उलझाए रखना चाहते हैं, क्या हमने कभी समान शिक्षा और समान स्वास्थ्य के लिए कोई आवाज उठाई या आंदोलन किया । नहीं किया क्योंकि हर कोई जानता है कि समान शिक्षा होने से हर कोई जागरुक हो जाएगा, अमीर-गरीब का भेद बहुत कम हो जाएगा, लोग हर कदम पर हक की बात करने लगेंगे, लिहाजा जितने धीरे-धीरे देश की जनता साक्षर होगी उतना ही आसान होगा उन्हें गुमराह करना। हम ये बातें यूं ही नहीं कह रहें, क्योंकि ये नवंबर क्रांति का महीना है और आज से 100 बरस पहले रूस में नवंबर क्रांति के बाद समाजवादी सरकार ने देश में समान-शिक्षा व्यवस्था लागू की और उसका परिणाम ये हुआ कि आज रूस की करीब-गरीब 100 फीसदी जनता साक्षर है ।
नवंबर क्रांति के 100 बरस- तीन
रूस में सरकारी शिक्षा का प्रारम्भ 1782 ई. में हो चुका था लेकिन वह शिक्षा सब को सुलभ नहीं थी। जार निकोलस प्रथम का मानना था कि शिक्षा तानाशाही की दुश्मन होती है। इसलिए किसानों, खेतिहर मजदूरों और अन्य श्रमिक वर्ग को शिक्षित करने का मतलब है तानाशाही की जड़े कमजोर करना। अपनी इसी धारणा के कारण रूस में इनके लिए माध्यमिक और उच्च शिक्षा का दरबाजा बंद कर दिया गया था। इतना ही नहीं, अल्पसंख्यक आबादी के लिए तो प्राथमिक शिक्षा भी सुलभ नहीं थी। क्रांति से पूर्व यानी 1917 से पहले रूस की 75-85 प्रतिशत जनता अशिक्षित थी। 1914 में शिक्षा में रूस का स्थान विश्व में 19 वां था। 7 नवम्बर 1917 की समाजवादी क्रांति सफल होते ही सरकार ने शिक्षा को सर्वोपरि प्राथमिकता देते हुए एक विज्ञप्ति के माध्यम से यह घोषणा कर दी कि सोवियत संघ में शिक्षा सर्वव्यापी, नि:शुल्क और अनिवार्य होगी। इसमें रंगभेद या नस्ल भेद (धर्म-जाति) को किसी भी हालत में रुकावट नहीं बनने दिया जाएगा।
क्रांति के बाद के तीन-चार साल तक प्रथम विश्व युद्ध, फिर गृह युद्ध , बाहरी हस्तक्षेप और 1921-22 का भयंकर अकाल जैसी परिस्थितियों के कारण समाजवादी सरकार शिक्षा सम्बंधी अपने एजेन्डे को समय से लागू नहीं कर सकी। द्वितीय विश्वयुद्ध (1945) के बाद इस दिशा में बड़ी तेजी से काम शुरु हुआ। प्रारम्भ में सरकार को इस महत्वाकांक्षी कार्यक्रम को आगे बढाने में काफी कठिनाई हुई। पुराने जमाने के शिक्षकों ने सोवियतों के अधीन शिक्षा देना अस्वीकार कर दिया । जिन लोगों ने ऐसे हालात में शिक्षण का दायित्व स्वीकार किया, उन लोगों ने भी अपने छिपे एजेन्डे के तहत समाजवादी सरकार के विरुद्ध ही लोगों को भड़काने का काम किया। शिक्षा की आधारभूत संरचना पहले से ही काफी कमजोर हो चुकी थी। बाबजूद इसके समाजवादी नेतृत्व ने अपनी दृढ इच्छाशक्ति की बदौलत देश में निशुक्ल और समान शिक्षा लागू करने में सफलता हासिल कर ली । 1918 में जहां सिर्फ 8 लाख विद्यार्थी विद्यालयों में पढ़ रहे थे, वहीं 1938 में उसकी संख्या बढकर 3 करोड 40 लाख तक पहुंच गई।
मास्को शहर में 1935 में 70 और 1936 में 120 ऐसे स्कूल खोले गये, जिसमें हर एक स्कूल में आठ सौ लड़के पढ सकें। इसके बाद रूस की शिक्षा पद्धति में सुधार का दौर और तेजी से शुरू हुआ। दूसरी पंचवर्षीय योजना में वहां डाल्टन की शिक्षा फद्धति को पूरी तरह से खारिज करते हुए विद्यालय के आंतरिक स्वायत्तता को खत्म किया गया। तिमाही जांच और रिपोर्ट की प्रथा लागू की गई। इतिहास और भूगोल की शिक्षा को फिर से लागू किया गया। योग्य, कर्मठ और विवेकशील नागरिक पैदा करने वाले पाठ्यक्रम लागू किए गये।
पूंजीवादी देशों की प्रचलित शिक्षा पद्धति से अलग हटकर एक नई समाजवादी व्यवस्था को मजबूत करने वाली इस शिक्षा पद्धति की खास बात यह थी कि इसमें शुरू से अंत तक शिक्षा नि:शुल्क थी और शिक्षा का दरवाजा सबके लिए खुला था। साथ ही 8 से 15 साल की उम्र तक के सभी लडके-लडिकयों के लिए शिक्षा को अनिवार्य कर दिया गया। केवल सैद्धांतिक रूप से नहीं, व्यावहारिक रूप में भी। शहरों, औद्योगिक संस्थानों और पंचायती खेतियों में 8 से 18 वर्ष तक की उम्र वालों के लिए शिक्षा अनिवार्य कर दी गई ।
तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि समाजवादी सोवियत संघ की शिक्षा-व्यवस्था पूंजीवादी देशों की शिक्षाव्यवस्था उलट थी । यहां योग्यता के मुताबिक काम और जरुरत के अनुसार वेतन जैसे समाजवादी नियम के आधार पर शिक्षा की नींव रखी गई। सबको शिक्षा की जरूरत है, ऐसा मानकर सभी के लिए शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराए गए। इसके बदले सबसे उसकी योग्यता के अनुसार सेवाएं भी ली जाती हैं। यही सेवा सोवियत शिक्षा का मुख्य उद्देश्य भी है। वहां का नारा है- मेहनत करो और साम्यवाद के निर्माण में सहभागी बनो।
चौथी महत्वपूर्ण बात यह कि यहां हाथ के काम को शिक्षा में बड़ी प्रतिष्ठा दी गई है। सोवियत समाजवादी नेतृत्व का मानना है कि जब तक हाथ से काम करने की शिक्षा न मिलेगी, तब तक पूरी नागरिकता प्राप्त नहीं हो सकती। यहां मस्तिष्क और हाथ से काम करने वाले दोनों तरह के लोगों को समान प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता है। कोई किसी से कमतर नही हैं।समाजवादी सोवियत संघ की शिक्षा प्रणाली ने बच्चों में एक अनुशासन की भावना पैदा की है। आचार-विचार और व्यवहार स्व अनुशासित। कहीं उच्छ श्रृंखलता नहीं। सर्वत्र संजीदगी और अनुशासनप्रियता। शिक्षक और छात्रों का परस्पर सम्बंध भी यांत्रिक नहीं है।
सोवियत समाजवादी क्रांति के 15 वर्षों बाद जार परिवार की बेटी इरिना स्कारियातिना अपने अमरीकी पति के साथ 1932 में सोवियत संघ में आई थी। उसने अपनी इस यात्रा के दौरान सोवियत रूस का भ्रमण करने का निश्चय किया। उसका उद्देश्य था, सोवियत समाजवादी क्रांति की बर्बरता और कुशासन से दुनिया को अवगत कराना। क्योंकि क्रांति के दौरान जार और उसके पूरे परिवार को मृत्युदंड दिया गया था। इरिना को भी कैद कर लिया गया था जिसे 5 साल बाद 1922 में मुक्त कर दिया गया। वह अमरीका चली गई थी और एक दशक बाद सोवियत संघ लौटी थीं। वह सोवियत रूस में 1917 से 1922 का वह कठिन दौर देख चुकी थीं। 10 साल बाद उसे रूस में सब कुछ बदला बदला नजर आ रहा था। उन्हें विश्वास नहीं कर पा रहा था कि क्या यह वही सोवियत रुस है जिसे छोड़ कर उन्हें अमरीका भागना पडा था।
सैवियत रूस की शिक्षा व्यवस्था देखने के लिए इरिना अनेक स्कूलों में गई। पूरे देश में शिक्षा को निचले पायदान से शीर्ष तक ले जाने की अदम्य कोशिश ने उसे अभिभूत कर दिया। उसने इसकी चर्चा करते हुए लिखा – ‘ यहां क्रांति से पहले 80 लाख विद्यार्थी प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय में जाते थे। क्रांति के बाद मात्र कुछ ही वर्षों में यह संख्या ढाई करोड को पार कर गई है। 7 वर्ष के बाद शिक्षा सबके लिए अनिवार्य और नि:शुल्क है। न केवल प्राथमिक स्तर तक, बल्कि उच्च शिक्षा के किसी भी स्तर तक की शिक्षा यहां नि:शुल्क दी जाती है। 75 फीसदी छात्रों को छात्रवृत्ति दी जाती है। इरिना ने अपने पति के साथ कुछ स्कूलों का भ्रमण भी किया। वहां उसका भव्य स्वागत हुआ। कक्षा में जाकर छात्र-छात्राओं से रू-ब-रू भी हुईं। सवाल भी पूछे। फिर उसने आगे लिखा – अदभुत! बच्चे सिर्फ पाठ्यपुस्तक ही नही पढ़ते हैं बल्कि साहित्य, कला, संगीत , चित्रांकन और वाद-विवाद में भी पारंगत नजर आ रहे थे।’
सोवियत रूस की शिक्षा व्यवस्था में कम समय में आया यह बदलाव वहां की समाजवादी सरकार के कुशल नेतृत्व और आम जनता के सतत परिश्रम का परिणाम था। यह बदलाव समाजवादी क्रांति के बाद के शुरुआती 15 वर्षों में आया। आज हमारे देश को आजाद हुए 70 साल हो गये। शिक्षा आज भी आम आदमी की पहुंच से बाहर है। शिक्षा में लगातार नये नये प्रयोग होने, संविधान में शिक्षा का अधिकार प्रावधान के लागू होने के बाद भी शिक्षा की दुर्दशा आम जनता की चिंता का कारण बनी हुई है। पूंजीवादी व्यवस्था ने शिक्षा को भी मुनाफे का साधन बना कर उसे बाजार के हवाले कर दिया है। सरकारी शिक्षण संस्थाएं बदहाली का दंश झेल रही हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने के लिए सबसे पहले शिक्षा को निजी हाथों से आजाद कराना होगा और शिक्षा के अधिकार कानून को पूरी ईमानदारी और निष्ठा से लागू किया जाए। तभी शोषण,अत्याचार, अन्याय, भ्रष्टाचार और अंधविश्वास से छुटकारा मिल सकेगा।
ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।