पशुपति शर्मा
आप सपने देखें तो वो सच भी होते हैं। इसी विश्वास के साथ दिल्ली में लोक कलाओं के अपने पहले उत्सव को सच कर दिखाया बिंदु चेरुंगथ और उनकी टीम ने। दिल्ली के डॉ अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर में 700-800 लोग रिवायत के पहले लोक-उत्सव के गवाह बने। कार्यक्रम की शुरुआत ही बिंदु ने इस मूल मंत्र के साथ की कि ज़िंदगी जीने का नाम है, ज़िंदगी एक उत्सव है और इस ज़िंदगी को अपने तरीके से जीने की कला-साधना हमें हर दिन करनी होगी। पहले आयोजन में ही खचा-खच भरे स्टेडियम ने आयोजकों का उत्साह कई गुना बढ़ा दिया।
बहरहाल, लोक-संस्कृति की रिवायतों को समेटे इस लोक कला उत्सव के दीप प्रज्ज्वलन की औपचारिकता मुख्य अतिथि फिल्मकार मुजफ्फर अली, फिल्म शिक्षण-प्रशिक्षण से जुड़े संदीप मारवाह, मोहम्मद फारुकी और शमीम हनफी ने निभाई। मुजफ्फर अली ने कहा कि दिल की बात जब दिल की गहराईयों से निकलती है तो ‘रिवायत’ जैसा कोई उत्सव मुमकिन हो पाता है। ये वक्त ऐसा है जब मुहब्बत के फन और मुहब्बत के इंकलाब की जरूरत हर कोई महसूस कर रहा है। मुहब्बत के प्यासे लोगों तक अदब के साथ मुहब्बत का पैगाम लेकर जाएंगे तो इस चमन में बरकत होगी।
उद्घोषिका पूनम ने कहा कि रिवायत का मकसद ऐसी मीनार खड़ी करना है, जिसमें बुजुर्ग साएदार दरख्तों की तरह हमेशा उसे ताकत देते रहें। इसी कड़ी में लोक-कलाकार और क्लेरनेट प्लेयर ओम प्रकाश को ‘लोकरंग’ सम्मान से नवाजा गया। रोहतक के मूल निवासी ओम प्रकाश ने पिछले 6 दशकों में अपने साज के जरिए नौटंकी और स्वांग की संगीत-परंपरा को जिंदा रखने में बड़ा योगदान दिया है। महज 10 साल की उम्र में क्लेरनेट से दोस्ती गांठी और शास्त्रीय और गैर-शास्त्रीय संगीत के सफर में उसे अपना साथी बनाए रखा।
दास्तानगो के 108 तीर वक़्त के आर-पार
कार्यक्रम का दूसरा सत्र दास्तानगोई के नाम रहा। महमूद फारुकी और दारेन शाहिदी ने ‘दास्तान शहजादी चौबोली की’ को मंच पर बेहद सधे अंदाज में उतारा। लोग उनके साथ राजस्थान की लोक-परंपराओं से लेकर आधुनिक वक्त तक ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को एक साथ मुमकिन होते देखते रहे- जर-जर… नथ से निकलते 108 तीरों की तरह। मूल कथा विजय दान देथा की उठाई और उसमें नज़ीर अकबराबादी समेत कुछ और रचनाकारों को यूं पिरोया कि कथा-रस कई गुना बढ़ गया। कहानी कही भी और मौजूदा वक्त पर तंज कसने का कोई मौका भी नहीं छोड़ा। ‘नामुमकिन’ और ‘असंभव’ के बीच के फासले को बयां करते दारेन और फारुकी पश्चिम बंगाल तक की ‘हवा’ को मंच पर समेट लाने को ‘मुमकिन’ कर दिखाया। उनका फुफकारता सांप पड़ोसी मुल्कों की सरहदें लांघ आया, उनका सेठ अदानी और अंबानी तक से दो-दो हाथ कर गया।
दास्तान-गोई का ये अंदाज दर्शक-दीर्घा में बैठे कई लोगों के लिए नया था, कई लोग पहली बार इस शैली से मुखातिब थे। पर मोहम्मद फारुकी और दारेन शाहिदी उन्हें लोक-कथा की दुनिया में अपने साथ लिए जा रहे थे। कथा में जाति को लेकर बनी भ्रांतियों को जाट और राजपूत के जरिए बयां किया गया तो वहीं अंधी आस्था पर भी चोट की गई। और जब कथा का ये अंदाज हो तो ‘चौबोली’ बोलेगी क्यों नहीं? दास्तानागो का तो मकसद बस यही है कि सवाल कौंधे, और हमारे आपके मन में बैठी ‘चौबोली’ बोले कि सच क्या है? सही और ग़लत क्या है?
सिनेमा भारत की नई लोक कला है- स्वानंद किरकिरे
कार्यक्रम का तीसरा सत्र स्वानंद किरकिरे और मनोज मुंतशिर के साथ संवाद का रहा। गीतकार स्वानंद किरकिरे ने कहा कि सिनेमा भारत की नई लोक कला है। लोगों के लिए लोगों की कला है और इसे आप अलग कर नहीं देख सकते। इतना ही नहीं उन्होंने फिल्मी गीतों को नए लोक गीत कहा। उनका मानना है कि लोक और सिनेमा के बीच एक आदान-प्रदान चलता है और इसे जारी रखने की जरूरत है। वहीं गीतकार मनोज मुंतशिर ने माना कि जब कहीं कोई रास्ता नहीं निकलता तो वो लोक की ओर लौटते हैं। मनोज मुंतशिर ने कहा कि तेरी गलियां गीत का ‘भावें’ शब्द वो झरोखा बना, जिसके जरिए लोक इस गीत में शामिल हो गया।
नगमा सहर ने इस परिचर्चा में मॉडरेटर की भूमिका निभाई। लोक और सिनेमा के रिश्तों की बात करते हुए नौशाद और ओपी नय्यर साहब का भी जिक्र हुआ, राजकपूर का और प्रकाश झा का भी। रेणु भी इस चर्चा में उतरे। मनोज मुंतशिर के मुताबिक तमाम एलिट कल्चर के बीच रेणु ने लोक का खूंटा गाड़ने का काम किया। तीसरी कसम के कई गीत चर्चा का हिस्सा बने। स्वानंद किरकिरे ने ‘लाली-लाली डोलिया…’ के फिल्मांकन को बेहतरीन बताया।
नैन लड़ जहियें… से लेकर बावरा मन तक … लोक रस कैसे फिल्मों में आया इस पर दोनों गीतकारों ने अपनी बात कही। स्वानंद किरकिरे ने कहा कि लोक जो आपके मन में बसा है, रूह में बसा है वो कभी न कभी शब्दों के जरिए सामने आ ही जाता है लेकिन लोक के ‘इस्तेमाल’ का चलन उन्हें नागवार गुजरता है। स्वानंद किरकिरे ने बावरा मन और ओ री चिड़ैया जैसे कुछ गीत गुनगुना कर इस सत्र को थोड़ा रोचक बनाया। कई बार बातचीत बिखरती सी दिखी लेकिन स्वानंद किरकिरे ने उसे पटरी पर बनाए रखनी की भरसक कोशिश की।
हिवड़े में लोक-गीतों को जगा गए मामे खान
कहने की जरूरत नहीं कि आखिरी सत्र में मांगनियार मामे खान और उनकी मंडली ने कार्यक्रम को नई बुलंदी दी। मामे खान ने कहा कि इस तरह के लोक उत्सव का आयोजन कर रिवायत ने एक बड़ी पहल की है और आने वाले दिनों में इसकी अहमियत इस कदर बढ़े कि हर लोक कलाकार इसमें शरीक होने का बेसब्री से इंतज़ार करे। पधारो म्हारे देस, हिवड़े में जागे…,, यार मेरा परदेस गया, सानू एक पल चैन न आवे, मैं तन हारा… मन हारा और दमादम मस्त कलंदर तक तमाम हिट गाने मामे खान ने गाए और दर्शक झूमते रहे। छाप तिलक रंग दीनी… के साथ मामे खान ने सुरों का जो संगम यहां बनाया वो अद्भुत था। मामे खान की मंडली में एक तरफ मूल मांगनियार कलाकार थे तो दूसरी तरफ आधुनिक वाद्ययंत्रों का भी समागम था। एक तरह के ‘फ्यूजन’ से नया प्रभाव पैदा करने में जुटे हैं मामे खान। हालांकि दर्शक दीर्घा में कुछ लोग ऐसे भी थे जो उनकी लोक-गायकी को लोक वाद्यों के साथ सुनने की मंशा लिए पहुंचे थे।
रिवायत का सफ़र लंबा है और हौसला अभी बाकी है
लोक कलाओं के उत्सव के लिहाज से रिवायत का ये पहला आयोजन कई मायनों में खास रहा। कला प्रेमियों की उम्मीदें जगीं। जैसा कि बिंदु चेरुंगथ, जमरुद मुग़ल, मोहन जोशी और उनकी टीम ने वादा किया है कि ये मुहिम दिल्ली-मुंबई जैसे बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं रहेगी, हिंदुस्तान के दूर-दराज के गांवों तक रिवायत की धमक महसूस होगी। लोक-कलाओं के उत्सव का ये रंग अभी और गाढ़ा होना बाकी है। पहले उत्सव में लोक-कलाओं की झलक भर दिखी है, लोक साधकों के साथ संवाद अभी और पुख्ता होना बाकी है। लोक-कला के बूते ‘स्टारडम’ हासिल कर चुकी हस्तियों से आप पहले उत्सव में रूबरू हो चुके हैं, गुमनामी में खोए लाक-कलाकारों से गुफ़्तगू अभी बाकी है। तो दोस्तों चलते रहिए साथ, रिवायत के सफर में हो जाइए शरीक… क्योंकि ‘लोक-रिवायतों’ का सफ़र लंबा है और मुसाफ़िरों का हौसला अभी बाकी है।
पशुपति शर्मा। पत्रकार, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी।
अनोखी पहल।मनोहर, मनभावन।पहला आयोजन और ऐसा हृदयग्राही प्रभाव! अद्भुत। प्रस्तुति के लिए धन्यवाद और स्वर्णिम भविष्य के लिए शुभकामनाएं।
शुक्रिया मंजुश्री जी … आपको अच्छा लगा यह जानकार हमें भी अच्छा लग रहा है … अपना स्नेह देती रहें