‘राष्ट्रवाद’ के सियासी छलावे में उलझता देश

‘राष्ट्रवाद’ के सियासी छलावे में उलझता देश

ब्रह्मानंद ठाकुर

आज देश में चारों तरफ राष्ट्रीयता और देशभक्ति की होड़ मची हुई है। ऐसा लगता है आजादी के 7 दशक तक देश के लोगों में राष्ट्र के प्रति कोई प्रेम था ही नहीं । शायद इसी लिए आज राष्ट्रवाद की नयी परिभाषा गढ़ी जा रही है । जेएनयू की घटना से लेकर जुनैद की हत्या तक । आधी रात की आर्थिक आजादी वाली जीएसटी कर प्रणाली लागू करने से लेकर शिक्षा के भगवाकरण करने तक सारी घटनाएं राष्ट्रवाद की नयी अवधारणा पर केन्द्रित जान पड़ पड़ती हैं । एक ऐसा राष्ट्रवाद जहां असहमति की कोई गुंजाइश ही नहीं है। या तो राष्ट्रवाद की इस नयी अवधारणा के सुर में सुर मिलाओ या फिर राष्ट्र विरोधियों की जमात मे शामिल हो कर अंजाम भुगतने की तैयारी करो।

लिहाजा ये समझना जरूरी है कि आखिर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की नजर में राष्ट्रीयता क्या थी और आज की सरकारों की नजर में राष्ट्रवाद के मायने क्या हैं । इन्ही सवालों के जवाब जानने के लिए गांधी मार्ग पत्रिका में प्रकाशित तीन आलेख आपके सामने रख रहा हूं । 28 अगस्त 1925 में कोलकाता में बापू के दिये भाषण पर आधारित पहला आलेख हैं “मेरी राष्ट्रीयता, हमारी राष्ट्रीयता।  उस दौरान बापू ने अपने भाषण के शुरुआत में ही इस विषय को स्पष्ट करते हुए पूछा था – ‘क्या यह सम्भव है कि कोई अपने देश को प्यार करे और उनसे घृणा न करे, जो उसके देश पर शासन करते हैं और जिनका शासन हम नहीं चाहते हैं या जिनके शासन को हम हृदय से नापसंद करते हैं?  सम्भव है कि कुछ लोग सोंचते हों कि अपने देश को प्यार करना और उस पर शासन करने वालों से घृणा करना असम्भव है। इस सवाल पर मैं (महात्मागांधी) ने बहुत मनन किया और 1915 में भारत लौटने के बाद ही नहीं बल्कि जब से मैंने सार्वजनिक जीवन में और सार्वजनिक सेवा में प्रवेश किया तब से (1894) ही काफी विचार करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि किसी का भी देश प्रेम यानी राष्ट्रीयता उन लोगों के प्रति प्रेमभाव रखने से निरपेक्ष हो ही नहीं सकती जो उस पर शासन करते हैं और जिनके शासन का तौरतरीका जनता को नापसंद है।’

मसलन राष्ट्र और सत्ता दोनों दो अलग-अलग चीजें है। राष्ट्र कभी नहीं बदल सकता जबकि शासन और सत्ता व्यवस्था बदलती रहती है। जो शासन व्यवस्था देश की आम जनता के हितों – स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार का ख्याल न रखे । भय, भूख और भ्रष्टाचार से मुक्ति न दिला सके और जनता के खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को कुछ मुठ्ठी भर लोगो के हित में उपयोग को प्रश्रय देने लगी रहे ऐसे शासन के प्रति असहमति का होना स्वाभाविक है। इस तरह  छद्म राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नाम पर इस असहमति के स्वर को दबाने के प्रयासों का विरोध राजद्रोह या गैर राष्ट्रवाद हर्गिज नहीं है।  वैसे तो महात्मागांधी के राष्ट्रीयता सम्बंधी ये विचार आजादी आंदोलन के समय के हैं, लेकिन वर्तमान  में भी यह अप्रासंगिक नही है।

वहीं राष्ट्रवाद:  संकुचित और निष्फल, नाम से एक आलेख आचार्य विनोवा भावे का है जिसकी शुरुआत ही इस वाक्य से हुई है कि ‘हमारे देश मे ‘राष्ट्रवाद’ नाम का एक नया ही पदार्थ आया है और बड़ी धूमधाम से आया है। नारा है कि ‘हमारे देश में स्वाभिमान नहीं था’ जिसकी यहां बड़ी जरूरत है। आगे विनोब कहते हैं कि भारत अंतर्राष्ट्रीय राष्ट्र है। जिस तरह राष्ट्र में हर राज्य अपनी अपनी थोडी आजादी केन्द्र को अर्पित करता है ‘वैसे ही हर देश को अपनी थोड़ी- थोड़ी आजादी विश्व को अर्पित करनी पड़ेगी  और विश्व एक राष्ट्र राज्य बनेगा।। राष्ट्रवाद दुनिया के टुकडे करता है। विनोवा भावे का ये भी मानना था कि राष्ट्रवादी रहेंगे तो पिछड जाएंगे। विज्ञान के युग में राष्ट्रवाद टिक नहीं पाएगा । इसलिए उन्होंने जय जगत का नारा दिया । उन्होंने कहा था हमारी बुनियाद होगी ग्राम-परिवार और शिखर होगा विश्व परिवार।’

राष्ट्रीयता पर तीसरा आलेख प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता बलराज साहनी का है। शीर्षक है – राष्ट्रीयता का आडम्बर। इस आलेख में उनका वह भाषण है जो उन्होंने 1972 में जेएनयू के दीक्षांत समारोह मे दिया था। अपने संस्मरणों के माध्यम से उन्होंने बताया है कि ‘हमारे देश को आजाद हुए इतने साल (1972 में 25साल) हो गये लेकिन गुलामी और हीनता का भाव हमारे मन से दूर नहीं हुआ। वे सवाल करते हैं कि आजादी के इतने सालों बाद क्या हम यह दावा कर सकते हैं कि व्यक्तिगत, सामाजिक या राष्ट्रीय स्तर पर हमारे विचार, हमारे फैसले और हमारे काम मूलत: हमारे अपने हैं? क्या हमने दूसरों की नकल करनी छोड़ दी है ? क्या हम स्वयं अपने लिए फैसले ले कर उस पर अमल कर सकते हैं। या फिर इस नकली स्वतंत्रता का नकली दिखावा करते रहेंगे ? वे  कहते हैं कि आज भारत का शासक वर्ग कोई बुनियादी तब्दीली नहीं चाहता। अंग्रेजों की व्यवस्था को उसी प्रकार बनाए रखने में उसका फायदा है। किंतु वह खुलेआम अंग्रेजी को अंगीकार नहीं कर सकता, इसलिए राष्ट्रीयता का कोई न कोई आडम्बर खड़ा करना जरूरी होता है। इसलिए वह संस्कृतवादी हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने की ढोंग करता है।

आज जनसाधारण को पैसे और रुतबे की छाया से आजाद कराने की जरुरत है।इस समय हर तरफ पैसे और रुतबे का बोलबाला है। समाज में इज्जत उसी की है , जिसके पास मोटर है , दौलत का दरिया बहता है। क्या ऐसी हालत में कभी समाजवाद आ सकता है ? समाजवाद से पहले हमें वह माहौल तैयार करना होगा जहां सिर्फ धन-दौलत होना ही सम्मान का पैमाना न बने। हमें ऐसा माहौल बनाना होगा जहां सबसे ज्यादा सम्मान उस मजदूर को मिले जो चाहे शारीरिक मेहनत करता हो या मानसिक, अपने कौशल और प्रतिभा से, अपनी कला से देश की सेवा कर रहा हो, नया आविष्कार कर रहा हो। पुरानी सोंच को तोड़ कर एक नयी सोंच लानी होगी।

जाहिर है इन तीनों आलेखों को पढ़ने के बाद राष्ट्रवाद की जो अवधारणा आज पैदा करने की कोशिश की जा रही है, वह नितांत बेतुकी तो है ही उन स्थापनाओं का सर्वथा विरोधी भी है जिसके बल पर एक मजबूत और कल्याणकारी राष्ट्र के निर्माण की कल्पना हमारे देश के मनीषियों ने कभी की थी।


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।