ब्रह्मानन्द ठाकुर
कलम के जादुगर , स्वतंत्रता सेनानी , पत्रकार रामवृक्ष बेनीपुरी की आज 55वीं पुण्यतिथि है। इनका जन्म मुजफ्फरपुर जिले के औराई प्रखंड अंतर्गत बेनीपुर गांव में एक सामान्य खेतिहर परिवार में हुआ था। जब वह चार साल के हुए तो उनकी मां मर गई।नौ साल की उम्र में उनके सिर से पिता का भी साया उठ गया। नन्हा बालक रामवृक्ष अनाथ हो गया। ऐसे कठिन समय में यदि मामा द्वारिका प्रसाद सिंह की स्नेहिल छांव नहीं मिली होती तो उसकी दशा क्या होती ? खुद बेनीपुरी के शब्दों में- “यदि पिता जीवित होते तो मुझे न ननिहाल जाना पड़ता, न मेरे जीवन में परिवर्तन होता, न मैं वह सब कुछ हो पाता, जो आज हूं। आज मैं एक छोटा-सा अनपढ किसान होता, खेती-बारी करता, बच्चों के साथ खेत-खलिहान में मरता-खपता होता, जैसी कि मेरे चचेरे भाइयों की हालत है।
”पिता की मृत्यु ने बालक रामवृक्ष के जीवन की दिशा ही बदल दी। सच है, घनघोर विपदा में भी बेहतर भविष्य की उम्मीद की किरण छिपी होती है। मातृ-पितृ हीन बालक रामबृक्ष के साथ भी ऐसा ही हुआ। उनके पिता के श्राद्धकर्म में वंशीपचडा गांव से उनके मामा बाबू द्वारिका प्रसाद सिंह आए हुए थे। श्राद्ध समाप्त होते ही वे रामबृक्ष के दादा से अनुमति लेकर उन्हें अपने साथ वंशीपचडा ले गये। वहां वे 15 सालों तक रहे। यहां उनकी पढाई -लिखाई गांव की झोपड़ी में स्थित लोअर प्राइमरी स्कूल से शुरू हुई। उस जगह पर आज विद्यालय की आलीशान इमारत है और वह स्कूल मिड्ल तक अपग्रेड हो चुका है। यहीं उन्होंने उर्दू-फारसी भी पढी। स्वाध्याय की लत लगी और तुलसी कृत रामचरितमानस , विनय पत्रिका , सुखसागर , प्रेमसागर , बैताल पचीसी , सिंहासन बत्तीसी, पद्माकर का जगत विनोद आदि पुस्तकें पढने का अवसर उन्होनेअपने मामा के स्नेहिल छांव में पाया। इस तरह बंशीपचडा की माटी और आब-ओ-हवा ने इस नन्हे टुअर बालक रामबृक्ष को संस्कारित कर उसे महान लेखक, स्वतंत्रता सेनानी और समाजवाद का पुरोधा बना दिया।अपने पिता को खो कर रामबृक्ष ने मामा के रूप में एक नया पिता पाया। मामा को केवल बेटियां थीं , बेटे हुए लेकिन जीवित नहीं रहे। लिहाजा द्वारिका बाबू ने इन्हें पुत्रवत स्नेह दिया और पुत्र के समान ही इनका पालन-पोषण भी किया। मामा उनकी हर ख्वाहिश पूरी करते, सब तरह से प्रसन्न और सुखी रखते थे।1970 के दशक में मुजफ्फरपुर को विभाजित कर वैशाली, सीतामढी और फिर बाद में शिवहर जिला बना। वंशीपचडा गांव इसी शिवहर जिले के तरियानी प्रखंड का एक गांव है। मुजफ्फरपुर -मीनापुर-शिवहर रोड पर। मुजफ्फरपुर जिला मुख्यालय से करीब 40किमी दूर। इस गांव के आबाद होने का भी अपना एक इतिहास है, जो करीब ढाई सौ साल पुराना है। गांव के सबसे बुजुर्ग अम्बिका सिंह ने बताया कि आज से करीब 8 पीढी पहले इनके परदादा सहजराम सिंह ने यह गांव आबाद किया था। बात 1762 ई0की है। तब तुर्की जिला हुआ करता था। लार्ड क्लाइब यहां के गवर्नर थे और सहजराम सिंह उनके विश्वस्त सिपाही। सहजराम सिंह यूपी के गाजीपुर जिले के जमुनिया परगना अन्तर्गत रेवतीपुर के निवासी थे। लार्ड क्लाइब के नेतृत्व मे जब मैसूर पर आक्रमण हुआ तब उस लड़ाई में वहां के निजाम हैदर अली की हत्या सहजराम सिंह ने कर दी थी। लार्ड क्लाइब ने उन्हें इस इलाके की 80 बीघा जमीन बतौर पुरस्कार मे दे दी। इसके बाद वे अपने परिजनों के साथ यहां आ कर बस गये। सहजराम सिंह के यहां आने के कुछ साल बाद उनके गांव से अन्य जाति के कुछ लोग भी यहां आ गये। इन सबों को 376 रुपये तहसील कायम कर 22-22 बीघा जमीन मुफ्त में दे दी गई। इस तरह यह गांव आबाद हुआ।यहां के निवासियों ने मिलजुल कर अपनी लगन और मेहनत से इस जंगली इलाके को खेती योग्य और हरा-भरा बना दिया। इसका उल्लेख खुद बेनीपुरी जी ने किया है-” बेनीपुर की बाढ को अपनी नसों मे लेकर मै बंशीपचडा पहुंचा था , किंतु यहां के प्राकृतिक दृश्यों ने मुझे अभिभूत करना शुरू कर दिया। बेनीपुर में सिर्फ दो फसलें, धान या खेसारी, कभी कभी जौ या गेहूं ही होती थी। बंशीपचडा एक सदा बहार यह गांव। जिधर निकलिए , उधर ही बाग-बगीचे। आम के पेड़ तो बेनीपुर मे भी थे, लेकिन लीची के सौन्दर्य ने मुझे यहीं मोहित किया।अमरुद , आंवला , बेल , कटहल , जामुन , नीबू , बेर कहां तक गिनती की जाए ! वसंत और बरसात में बंशीपचडा दुल्हिन -सा लगता, हर खेत उसका आंचल , हर आंचल रंगीन, सरस ,सफल ,सुन्दर।” जाहिर है सम्पूर्ण बेनीपुरी साहित्य में जो प्राकृतिक सौन्दर्य है , उसमें अधिकांश बंशीपचडा का ही प्राकृतिक सौन्दर्य प्रतिबिम्बित है।” उनकी कहानियों के कई पात्र इसी गांव के हों हैं।बेनीपुरी जी जब यहां आए तो गांव में एक तालाब के किनारे फूस की झोपड़ी में संचालित लोअर प्राइमरी स्कूल से अपनी पढाई शुरू की थी। यहीं की माटी में पलकर बालक रामबृक्ष किशोर बेनीपुरी हुए। रचनात्मकता का विकास भी इसी परिवेश में हुआ और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने की भावना भी यहीं पैदा हुई। जब वे दसवीं के छात्र थे तो गांधी के आआह्वान पर पढाई छोड़ ,आंदोलन में शामिल हो गये। बड़े -बुजुर्गों ने मना किया, उनके अपने शिक्षकों ने नसीहत दी , दोस्तों ने समझाया लेकिन कहां मानी किसी की बात। पढाई छोड कूद पडे आजादी आंदोलन में। जेल की यातनाएं सहीं। संघर्षों , कठिनाइयों की आंच में तप कर उनकी रचनात्मकता और निखर उठी। पत्रकारिता , साहित्य सृजन और समाजवाद की राजनीति में उन्होंने जो कीर्तिमान बनाया , जो लकीर खींची , आज तक उस क्षेत्र में उससे बड़ी लकीर कोई नहीं खींच पाया। बेनीपुरी जी की पत्रकारिता, राजनीति और जन आंदोलनों तक ही सीमित नहीं रही , उनका सृजनात्मक साहित्य का भी विपुल भंडार है।इस बेनीपुरी को गढने और फिर उसे देश और साहित्य की सेवा में अर्पित कर देने मे वंशीपचडा का अमूल्य योगदान है।बेनीपुरी जी की रचनाओं का फलक बडा व्यापक है। उन्होंने 1921 से 1959 तक एक दर्जन से अधिक पत्र पत्रिकाओं का सम्पादन किया। पडोसी देश नेपाल की आजादी मे उनके ‘जनता’अखबार का योगदान जगजाहिर है।उन्होंने न केवल अन्य लेखकों को प्रोत्साहित किया वल्कि खुद भी विभिन्न विधाओं मे विपुल लेखन किया।माटी की मूरतें ,अम्बपाली,तथागत, उडते चलो, उडते चलो, जंजीरें और दीवारें, गेहूं और गुलाब , पतितों के देश में, कैदी की पत्नी, सम्पूर्ण बाल साहित्य ( दो खंड). अमर बाल कहानियां, सीता की मां ,लाल रूस , लाल चीन ,जयप्रकाश , नई नारी ,कुछ मैं ,कुछ वे, चिंता के फूल , पैरों में पंख बांध कर आदि उनकी कालजयी रचनाएं हैं। बेनीपुरी जी ने नाटक भी लिखे। नेत्रदान और विजेता उनके प्रमुख नाटक हैं। उनकी पुस्तक’ डायरी के पन्ने ‘ इस महान साहित्यकार के जीवन संघर्षों को जानने ,समझने में बड़ी सहायक है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद दिसम्बर 1959 में बेनीपुरी जी के विशेष अनुरोध पर गांधी भूमि का उद्घाटन करने बेनीपुर गए थे। इस कार्यक्रम की तैयारी हेतु अत्यधिक परिश्रम के कारण बेनीपुरी जी पक्षाघात के शिकार हो गये। उन पर पक्षाघात के तीन आक्रमण हुए। अंततः 7सितम्बर ,1968 को 69बर्ष की अवस्था में इनका निधन हो गया।