मीडिया, मानहानि और  दबाव की मनमानी

मीडिया, मानहानि और दबाव की मनमानी

राकेश कायस्थ

अमित शाह के बेटे जय शाह की ओर से न्यूज़ पोर्टल द वायर के खिलाफ दायर किये गये आपराधिक मानहानि मुकदमे की पहली सुनवाई खासी दिलचस्प रही। जय शाह की ओर से पेश हुए वकील ने माननीय मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट से कहा कि हमारे बड़े वाले एडवोकेट हाई कोर्ट के एक दूसरे मुकदमे में व्यस्त हैं, इसलिए आ नहीं पाएंगे, कोई और तारीख दे दीजिये। बीजेपी ने जिस मामले को राष्ट्रीय मानहानि का सवाल बना दिया हो, उसकी पैरवी के लिए बड़े वाले वकील साहब वक्त तक नहीं निकाल पाये। मजिस्ट्रेट साहब ने भी वकील साहब की व्यस्तता को समझा और सुनवाई 16 अक्टूबर तक के लिए स्थगित कर दी।

पेशेवर वकीलों के पास दस काम होते हैं। वे रेल मंत्री पीयूष गोयल या यूपी के हेल्थ मिनिस्टर सिद्धार्थनाथ सिंह की तरह फुर्सत में नहीं होते कि इधर खबर छपी, उधर एक प्राइवेट सिटिजन की कंपनी का बैलेंस शीट लेकर बचाव के लिए प्रेस कांफ्रेंस करने दौड़ पड़े।आखिर बीजेपी और केंद्र सरकार को जय शाह के बचाव की इतनी जल्दी क्यों थी? क्या वायर ने वाकई कोई ऐसा इल्जाम लगाया है, जिससे उनकी मानहानि होती हो? वायर के संचालक और जाने-माने पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन का कहना है कि उन्होने सरकारी वेबसाइट पर पड़ी सूचना को सिर्फ सार्वजनिक किया है, ताकि उस पर चर्चा हो सके।

वायर ने जय शाह का पक्ष जानने के लिए एक प्रश्नावली भी भेजी थी। जिसके जवाब में उनके वकील ने 100 करोड़ रूपये की मानहानि का सिविल सूट दायर करने धमकी दी और बाद में मानहानि का क्रिमिनल केस दर्ज करवा दिया। सत्ता के शीर्ष पर बैठे किसी भी ताकतवर आदमी के करीबी रिश्तेदार की संपत्ति रातो-रात और संदेहास्पद तरीके से बढ़ती है, तो उसपर सवाल उठते हैं। क्या इसमें कुछ अजूबा है? मुझे याद है, जब मोदी सरकार नई थी, तब अर्णब गोस्वामी के टाइम्स नाऊ ने छाती पीट-पीटकर सुषमा स्वराज पर इल्जाम लगाया था कि उन्होने ललित मोदी को निजी रिश्तों के आधार पर मदद पहुंचाई है और बदले में सुषमा स्वराज की बेटी बांसुरी स्वराज को आर्थिक फायदा मिला है। टाइम्स नाऊ ने सुषमा स्वराज का इस्तीफा मांगने का कैंपेन तक चलाया था। क्या किसी ने टाइम्स नाऊ पर मुकदमा किया?
फर्क कहां है? फर्क सुषमा स्वराज और अमित शाह होने का है। फर्क अर्णब गोस्वामी और सिद्धार्थ वरदराजन का है। लेकिन सबसे बड़ा फर्क 2014 और 2017 का है। मीडिया संस्थानों का बिकना उस समय शुरू हुआ था, अब शायद कोई बचा नहीं है, जिसे खरीदा जा सके।

द वायर चंदे पर चलने वाला एक वेब पोर्टल है। यह ना तो तहलका की तरह स्टिंग ऑपरेशन करता है और ना किसी बड़े टीवी चैनल की तरह चीखता है कि उसने किसी भांडा फोड़ दिया है। पत्रकारिता का जो शास्त्रीय तरीका है, उस पर चलते हुए आरटीआई और दूसरे तरीकों से खबरें निकालता है, दूसरे पक्ष की बात हमेशा छापता है। यह सब करके भी अगर वह ताकतवर सत्ता प्रतिष्ठानों की आंख किरकिरी बन गया है तो इसका मतलब यही है कि भारत में पत्रकारिता अभी मरी नहीं है। वक्त कोई भी रहा हो, ईमानदारी से पत्रकारिता करने वाले मुट्ठी भर लोग ही होते हैं। गीदड़ भभकियों और बंदर घुड़कियों को इतिहास भी बहुत पुराना है। लेकिन अगर सच की ताकत है, तो बिगड़ता कुछ भी नहीं है। जय शाह अगर केवल यह कह देते हैं कि आरोप बेबुनियाद है, तो मामला खत्म हो जाता। आखिर सरकार उनके पप्पा की है, किसके बाप की मजाल थी कि मामले की जांच करवा लेता। लेकिन ताकतवर होने के गुमान में मोदी सरकार ने एक उड़ता तीर ले लिया। ज्यादा पीछे जाने की ज़रूरत नहीं है। इसी सरकार के दौर में मीडिया को डराने की कोशिशों का नतीजा सबने देखा है। एनडीटीवी पर एक दिन के बैन का एलान हुआ। इतनी किरकिरी हुई कि फैसला वापस लेना पड़ा।

इसी वायर ने महान देशभक्त कारोबारी सुभाष चंद्र गोयल की कंपनी की एक लॉटरी घोटाले में संलिप्तता की खबर छापी थी। इसी तरह 100 करोड़ का मुकदमा दायर हुआ था। मामला कोर्ट में पहुंचा, परते खुलनी शुरू हुई, छीछालेदर बढ़ती देखकर मुकदमा करने वाले ने चुपचाप केस वापस ले लिया। बीजेपी और केंद्र सरकार ने अपनी अकड़ में एक छोटे न्यूज़ पोर्टल की खबर को नेशनल हेडलाइन बनवा दिया। यह अंधकार और अहंकार का युग है। अहंकार गंदे पानी का तालाब है। जाने कितने बड़े-बड़े इसमें डूब गये लेकिन साहब पूछे कितना पानी?


राकेश कायस्थ।  झारखंड की राजधानी रांची के मूल निवासी। दो दशक से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय। खेल पत्रकारिता पर गहरी पैठ। टीवी टुडे,  बीएजी, न्यूज़ 24 समेत देश के कई मीडिया संस्थानों में काम करते हुए आपने अपनी अलग पहचान बनाई। इन दिनों स्टार स्पोर्ट्स से जुड़े हैं। ‘कोस-कोस शब्दकोश’ नाम से आपकी किताब भी चर्चा में रही।