वरिष्ठ पत्रकार राकेश कायस्थ के फेसबुक वॉल से साभार
राठौड़ बिचित्रमणि सिंह! नाम सुनकर लगता था कि बाबू देवकीनंदन खत्री की किताब के पन्नों से निकलकर कोई राजकुमार घोड़ा दौड़ाता सरपट चला जा रहा है। भभुआ से घोड़ा दौड़ा और बनारस होता हुआ सीधे झंडेवालान एक्सटेंशन के वीडियोकॉन टावर के बाहर आकर रुका, जिसकी आठवीं मंजिल पर आजतक तक दफ्तर था। राठौड़ जी के दर्शन पहली बार वहीं हुए, नाम से परिचय और पुराना था।
दो दशक से ज्यादा हो गये.. हम सब एक तरह से लौंड़े-लपाड़े थे। इतनी संजीदगी नहीं थी कि व्यक्तिवाचक संज्ञा को लेकर किसी तरह की टीका-टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। राठौड़ बिचित्रमणि की गैर-मौजूदगी में और कई बार सामने भी उनके नाम को लेकर खूब बातें होतीं।बिचित्र किंतु सत्य!!!
किसी अंग्रेजी दां एंकर लड़की ने एक बार अर्थ पूछ लिया, बिचित्रमणि ने उत्तर दिया— मल्टी कलर्ड.. इंद्रधनुषी
लेकिन मैंने बिचित्रमणि में हमेशा एक रंग देखा और वो रंग है—सच्चाई, सादगी और ईमानदारी का। कम सैलरी में दोस्तों के बीच हज़ारों रुपये उधार यूं ही बांट देने और फिर भूल जाने वाले बिचित्रमणि। सगाई से लेकर तेरहवीं तक जैसे सामाजिक आयोजनों के लिए वक्त निकालकर सैकड़ों किलोमीटर की यात्राएं कर लेने वाले बिचित्रमणि।
एक बार फोन कोई उन्हें जोर-जोर से डांट रहा था। बिचित्रमणि डांट सुन रहे थे। फिर पता चला कि किसी दोस्त को उन्होंने पच्चीस हज़ार रुपये उधार दिये थे। पैसे की ज़रूरत आई तो उधार याद आया और उन्होंने अपनी फितरत से परे जाकर पैसे मांग लिये। इस पर दोस्त ने हड़काया कि बड़े शहर में रहते हो, इतनी सैलरी मिलती है, फिर भी उधार याद रखते। शर्म नहीं आती!
ये सुनकर मैं बहुत देर तक हंसता रहा। लेकिन बिचित्रमणि गंभीर थे। उन्होंने कहा— “अगर विकल्प ठगने और ठगे जाने का हो मैं हमेशा ठगा जाना पसंद करूंगा।“ इस सिद्धांत को उन्होंने शिद्दत से निभाया और मैं जब तक दिल्ली में रहा वे ठगे ही जाते रहे, अभी का पता नहीं।
मैं कई पीढ़ियों कस्बाई या नगरीय हूं, कभी आजतक एक बार भी अपने जीवन में गांव नहीं गया। बिचित्रमणि मेरे लिए वो खिड़की रहे हैं, जहां से देखकर मैं अहा! ग्राम्य जीवन, कह सकता हूं। चाय की ठीये लेकर बगल वाली सीट पर उन्हें अपने गांव के परिजनों से “ धान बोआ गइल “ “खेत जोता गइल“ पूछते बतियाते अक्सर सुनता रहा।
लेकिन राठौड़ बिचित्रमणि में जो बात मुझे सबसे ज्यादा आकर्षक लगी वो उनका पत्रकारीय व्यक्तित्व है। हफ्ते में एक नई किताब पढ़ लेते हैं। बिहार से लेकर अमेरिका तक की राजनीति में समान रूप से दिलचस्पी रखते हैं। बड़ी राजनीतिक घटनाओं पर उनकी पैनी नज़र रहती है।
राजनीति को देखने और समझने की ललक ने उन्हें इस देश के बहुत से बड़े राजनेताओं का मित्र बना दिया। रिपोर्टिंग के शुरुआती करियर में बस से उतरकर लुटियन जोन की किसी कोठी के बड़े राजनेता के यहां चले जाते थे और बतिया समझकर वापस लौट आते थे। नब्बे के दशक के आखिर का वो जमाना भी कुछ और था, तब राजनेता भी ऐसे होते थे जिनसे एकेडमिक किस्म के संवाद संभव थे।
पार्टियों परे कई-कई पूर्व प्रधानमंत्रियों तक से बिचित्रमणि का निजी संवाद था। उनके पास राजनीतिक किस्सों की भरमार है। समाज और राजनीति को पढ़ने की गहरी दृष्टि भी है। इस नाते मैं हमेशा उनसे कहता था कि आपको राजनीतिक किस्सों पर आधारित कोई संस्मराणात्मक किताब लिखनी चाहिए।
लेकिन पता ये चला कि बिचित्रमणि जी कभी प्रेम की कविताएं भी लिखते थे और अपनी पहली किताब के लिए भी उन्होंने प्रेमकथा को ही चुना। सांप्रादायिक तनाव भरे माहौल में एक अंतर्धार्मिक प्रेम कथा। नाम है– शाहीनबाग।
पिछले साल बिचित्रमणि जी ने मुझे अपना पूरा उपन्यास एक लंबी कथा के तौर पर ये कहते हुए मेरे पास भेजा था कि ये पहला ड्रॉफ्ट है.. अभी बहुत काम बाकी है। मुझे प्लॉट बेहद आकर्षक लगा और कथा-वस्तु अत्यंत पठनीय। मुझे यकीन है कि और ज्यादा काम होने के बाद उपन्यास की शक्ल में किताब बेहतर हो गई होगी। उपन्यास छपकर आ गया है और पुस्तक मेले में भी बिक रही है, ऑन लाइन आते ही मंगावकर पहली फुर्सत में पढ़ूंगा।
अगर किताबों में रुचि है, शाहीन बाग ज़रूर पलटकर देखिये और अच्छी लगे तो खरीद लीजिये। वैसे आज पुस्तक मेले में विमोचन का कोई कार्यक्रम भी है। नफरतों की आंधी में प्रेम बचा रहेगा तभी ये दुनिया बचेगी। राठौड़ बिचित्रमणि को उनके उपन्यास के लिए बहुत-बहुत बधाई!