पुष्यमित्र के फेसबुक वॉल से साभार
आज गांधी जी की पुण्यतिथि है। यह हम सब जानते हैं कि गांधी की हत्या एक सनकी इंसान ने की थी और यह भी कि आज देश पर जिन लोगों का राज है उनमें से ज्यादातर लोगों की सोच उस सनकी नाथूराम जैसी ही है। मगर इस दौर में भी हमें याद करना चाहिये कि आजादी के ठीक पहले और उसके बाद गांधी जिस हाल में थे, वह कितना उचित था। कई उदाहरण बताते हैं कि उस दौर की राजनीति रोज गांधी की हत्या कर रही थी। उन्हें कमजोर कर रही थी।
ऐसा ही एक उदाहरण बिहार के महान समाजवादी नेता रामनंदन मिश्र की आत्मकथा में मिलता है। यह आजादी के तत्काल बाद की बात है। उन दिनों रामनंदन मिश्र चम्पारण के किसानों की समस्या और मिल मालिकों की ज्यादती की कहानी लेकर गांधी के पास पहुंचे थे। पूरी कहानी सुनकर गांधी ने कहा, हां, मुझसे श्रीजयरामदास दौलतराम (बिहार के पहले और तत्कालीन राज्यपाल) ने भी पिछली मुलाकात में इसकी चर्चा की थी। लेकिन तुम मुझसे करने क्या कहते हो?
गांधी कुछ देर मौन रहे, फिर उन्होंने विषाद भरे स्वर में कहा-पहले ये लोग मुझे शतरंज के खेल का फर्जी या बादशाह समझते थे। आज मैं उनकी नजर में साधारण प्यादा बन गया हूँ। मुझे ये लोग अब, निकम्मा मानने लगे हैं। जिनके हाथों मैंने हिंदुस्तान का राज दिया, आज मैं उन्हें उस आसन से उतार दूं, इसका साहस नहीं पा रहा हूँ। तुम इसे मेरा मोह कह सकते हो। परंतु अहिंसा धर्म अत्यंत कठिन है। मेरा अंतर एक प्रज्ज्वलित आग की भट्ठी में जल रहा है।
रामनन्दन मिश्र यह सुनकर कुछ देर स्तब्ध बैठे रहे। फिर सरल भाव से बोल पड़े-
बापूजी, मेरी तो कठिनाई यह है कि मुख्यमंत्री मेरे पत्रों का जवाब तक नहीं देते।
गांधी जी ने फिर हंसते हुए कहा-
अरे, वे लोग मेरे पत्रों का उत्तर देते हैं कि तुम्हारे पत्रों का देंगे?