धीरेंद्र पुंडीर
इतिहास एक जिंदा चीज है जो देश इसका अहसास नहीं करते उन्हें ये मुर्दा कर देता है। निर्णय लेने वालों को वास्तविक सच्चाई की कोई समझ, कोई पकड़ नहीं थी। वे भ्रमों के संसार में रह रहे थे। अपने-आपको धोखा देने की उनकी अनंत क्षमता पूरी तरह उजागर हो चुकी थी। 22 नवंबर को मतदान के दिन शहर सुनसान पड़े थे और गांव सोए हुए। आतंकवादियों ने दिन में नागरिक कर्फ्यू और रात में (ब्लैक आउट) अंधेरा रखने की घोषणा कर दी थी। मतदाताओं को ललचाने के लिए कुछ मतदान केन्द्रों के आगे टीवी सेट्स रखवा दिए गए थे। जिनके पास रखे विज्ञापन पत्रक में लिखा हुआ था-” कोई भी जो अपना मत डालेगा, उसे यह उपहार स्वरूप मिलेगा।” कुछ दूसरे मतदान केन्द्रों के पास कफन रखे थे जिन पर लिखा था –” जो कोई अपना मत डालेगा, उसे यह मिलेगा। सरकारी सत्ता का इतना पतन हो चुका था कि उसका मजाक उड़ाया जा सकता था।” (काश्मीर दहकते अंगारे)
आपको लगता है कि ये बात हाल ही में हुए श्रीनगर चुनाव की है तो आप ग़लती पर हैं। ये तस्वीर 1989 में हुए चुनाव की है। तत्कालीन सरकार के मंत्री गुलाम रसूल सोपोर के रहने वाले थे। विधानसभा अध्यक्ष हबीबुल्ला भी वही के रहने वाले थे। नेशनल कांफ्रेस के अब्दुल अहद वकील भी वहीं के रहने वाले थे और वोट कुल पड़े थे पांच (5)। बारामूला शहर में मुख्य भाग में एक भी वोट नहीं पड़ा था और दूसरे मतदान केन्द्रों की भी यही स्थिति थी। श्रीनगर में बॉयकाट के चलते मोहम्मद शफी बट्ट निर्विरोध चुने गए थे। अनंतनाग में भी लगभग यही हालत थी। उस वक्त भी ऐसा ही हुआ था। लेकिन जीत के बाद बनाई गई सरकारों को क्या हुआ? देश की बाकी जनता को पत्रकारों ने ये दिखा दिया कि डेमोक्रेसी की जाती हुई है। कश्मीर की जनता ने अलगाववादियों को जवाब दिया है।
और फिर आप वापस देख रहे हैं कि कश्मीर में अभी क्या हुआ। दरअसल, ये हिंदुस्तान के राजनीतिक नेतृत्व का वो बौनापन है जो सिर्फ राजनीतिक जीत हासिल करने में यकीन करता है। कोई भी ऐसी नीति 1947 से बनी नहीं है जो इस बात की ओर इशारा करती हो कि क्या हम वाकई कश्मीर को लेकर गंभीर हैं। क्या वाकई ये एक राष्ट्र है जिसकी रक्षा करने की शपथ लेकर देश को खा रहे हैं।
क्यों सच नहीं बोलते है राजनेता। क्या कश्मीर के बारे में सच बोलना गुनाह है। राजनेताओं की धार्मिक वोटों को हासिल करने की ख्वाहिश के चलते कि देश लंगड़ा दिख रहा है। कश्मीर को लेकर राष्ट्र का इतना संसाधन फूंका जाता है। उनको हर तरफ से ईमदाद देने की कोशिश की जाती है। दरअसल ज्यादातर आप जिन नेताओं के बयान सुनते हैं, उनकी नजर देश के बाकि हिस्सों में वोटो को सेंकने पर होती है। क्योंकि ये सच कोई नहीं बोल रहा कि कट्टरवाद की एक पूरी लहर से हिंदुस्तान के सुरक्षा बल जूझ रहे हैं। इस पर कोई सोचने को तैयार नहीं कि शरिया मांग रहे ये लोग, जिहाद के लिए जान देने की बात करने वाले लोग, क्या घाटी में ताकत हासिल कर सिर्फ घाटी तक ही सिमट जाएंगे। क्या पूरी दुनिया को शरिया के नीचे लाने के गीत गाने बंद कर देंगे। और मजलूम और कमजोर राष्ट्र के तौर पर दिख रहे एक देश को बख्श देंगे। क्या माफ कर देंगे ये आतंकी बाकि जम्मू में बने हुए मंदिरों को। क्या बनिहाल की सुंरग से आगे न आने की कसम खा लेंगे।
दरअसल देश को लेकर एक किस्म का रूमानी भाव अभिव्यक्ति की आजादी के दीवानों में है। कन्हैया जैसे लोगों को देखता हूं तो लगता है कि परजीवियों की ये जमात कितनी आसानी से देश का भाष्य बदल देती है और पत्रकारों के एक धूर्त गैंग का आौजार बन जाती है। कई पत्रकार कश्मीर के दर्द की कहानी बेचकर लीजेंड बन चुके हैं। विदेशों में काफी बुद्धिजीवी और पुरस्कार लायक समझे जा चुके हैं। लेकिन दांव पर क्या है, इस पर बात करने के लिए देश अभी भी शून्य में है।
मैं कश्मीर में अलगाववादी नईम खान से मिला था। नईम खान ने बेहद साफगोई से बात की। नईम खान इस बात से बहुत नाराज था कि मसर्रत आलम के ऊपर पीएम नरेन्द्र मोदी को संसद में बोलना पड़ा। और मैं भी यही बता रहा था कि प्रधानमंत्री को संसद में बोलना पड़ रहा है। दोनों एक ही बात को बोल रहे थे और अपनी-अपनी समझ साझा कर रहे थे। मैंने कहा था कि नईम खान जी क्या अब भी आप को लगता नहीं है कि बाकि देश कश्मीर को लेकर अपनी नींद से जाग रहा है।
मेरे साथ मेरे कैमरामेन भी थे- युनुस साहब। वो भी श्रीनगर के ही थॆ और मेरी बात को गौर से सुन रहे थे। मैंने नईम खान को कहा था कि अब देश बहुत शहादत देने के लिए तैयार नहीं है। कश्मीर उसकी नजर में एक परेशानहाल प्रदेश था दुश्मनों की मांद नहीं । अब देश में ये माहौल शायद बदल रहा है। क्योंकि कश्मीर में लोकतंत्र का विकास भी इस तरह से हुआ है कि जब तक किसी पार्टी के हाथ में सत्ता होती है, तो वे भारत में कश्मीर के पूर्ण विलय को और भारत को धर्मनिरपेक्षता का आश्रय मानते हैं। परंतु जैसे ही उनके हाथों से सत्ता की बागडोर खिसकी, उन्होंने अपनी जेबों से हरे रूमाल निकाले, पाकिस्ताना क समर्थन करने लगे और भारत को, कश्मीर की पहचान मिटाने वाली साम्राज्यवादी ताकत कहने लगते हैं। उन्होंने अपने पैर दो किश्तियों में रखे हैं और आपको अधर में लटकाये रखा।
बहुत से लोगों को ये बदलाव बीजेपी के आने से लग रहा है। मेरा मानना है कि इसका किसी पार्टी से कोई रिश्ता नहीं है। देश में एक दूसरे के साथ जुड़ने की एक तीव्र इच्छा आपको सोशल मीडिया पर दिखाई देगी। लोग व्हाट्स एप, या दूसरे तरीकों से एक दूसरे से संवाद कर रहे हैं। ये संवाद कई बार लोगों को नफरत से भरा हुआ या फिर घृणा से भरा हुआ दिखता है लेकिन ऐसा नहीं है, ये लोगों का एक दूसरे के साथ बढ़ता हुआ रिश्ता है। किसी एक चीज को दूसरे के बारे में बताने की ललक है।
मुझे याद है कि नईम खान को मैंने कहा था कि पहले जब भी शहीद जवान की लाश उसके घर जाती थी तो शायद ही गांव वालों के अलावा कोई आदमी उस पर ध्यान देता होगा। लेकिन आज शहादत का मतलब है कि दक्षिण से लेकर उत्तर तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक सब तरफ से सरकार पर कार्रवाई का दबाव बनता जाता है। मैं गौतम गंभीर के ट्विट को देख रहा था कि ट्वीट पर रिट्वीट और कमल हासन से लेकर मुंबई तक सब लोगों की भावना एक जैसी दिख रही है। सब लोग कश्मीर का एक हल तलाश करना चाह रहे हैं- ऐसा हल जो देश के लिए शुभ हो।
विचारधाराओं के कितने भी रास्ते हों, धर्म कितने भी हों , मत कितने भी हों लेकिन एक बात याद रखनी चाहिए कि ये गुलदस्ता ही नहीं होगा तो कोई फूल नहीं रहेगा। देश के लौहपुरूष जिनके हाथों में शायद कश्मीर का न होना एक बड़ी परेशानी की वजह मानी जाती है, सरदार पटेल की कुछ लाईंनें है-
“यदि हमें अपनी बाजुओं पर भरोसा नहीं है तो राष्ट्र के रूप में अपना अस्तित्व बनाए रखने का हमें कोई हक नहीं है “
धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंढीर की अपनी विशिष्ट पहचान है।