दलहनी फसलों का उत्पादन न केवल बिहार बल्कि पूरे देश की एक गम्भीर समस्या है। सरकार के लाख प्रयास के बावजूद देश दाल के उत्पादन के मामले में अब तक आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। आखिर क्या कारण है कि जहां देश के किसान अन्य खाद्यान्न फसलों का प्रतिकूल परिस्थितियों मे भी बम्पर उत्पादन कर लेते हैं , वहां दलहनी फसलों के उत्पादन में हम लगातार पिछड़ते जा रहे है ? कुछ इन्हीं सवालों को लेकर बदलाव के मुजफ्फरपुर प्रतिनिधि ब्रह्मानंद ठाकुर ने डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्व विद्यालय के कृषि वैज्ञानिक और अखिल भारतीय दलहन विकास परियोजना के समन्वयक डॉक्टर देवेन्द्र सिंह से मुलाकात की। दलहनी फसलों के उत्पादन से सम्बंधित समस्याओं और सम्भावनाओं पर पेश है देवेंद्र सिंह से बातचीत का अंश।
बदलाव – दलहन उत्पादन में लगातार गिरावट की असल वजह क्या है, किसानों की उदासीनता या सरकार की नीति?
डॉ देवेन्द्र सिंह- हमारे देश के किसान हर वैसी फसल के उत्पादन में पर्याप्त अभिरुचि रखते हैं, जिनमें उनको कम से कम नुकसान हो। इसके लिए जरूरी शर्त यह है कि उनको सबसे पहले अच्छी गुणवत्ता वाला बीज और आधुनिक कृषि तकनीक समय से उपलब्ध कराई जाए। दलहनी फसलों के मामले मे काफी समय से ऐसा नहीं हो रहा है। बिहार के संदर्भ में बात की जाए तो यहां दलहनी फसलों के उन्नत वेरायटी की संख्या काफी कम है। विशेषज्ञ जिन उन्नत प्रभेदों की अनुशंसा करते हैं, उसका प्रमाणिक बीज किसानों को नहीं मिलता। ऐसा नहीं है कि योजनाएं नहीं बनतीं या फिर कृषि विभाग को टारगेट नहीं दिया जाता। ये सब होता है लेकिन अनुशंसित प्रभेदों के अभाव में जो अनुकूल वेरायटी नहीं है , उसी का बीज किसानों को उपलब्ध कराया जाता है। इससे अपेक्षित लाभ किसानों को नहीं मिलता और वे दलहनी फसल की खेती के प्रति उदासीन हो जाते हैं।
बदलाव- मूंग और अरहर मुख्य दलहनी फसलें मानी जाती हैं । इसके बाद चना और मसूर का स्थान है। इसमें कौन-सा प्रभेद किस क्षेत्र विशेष के लिए उपयुक्त है ?
डॉ देवेन्द्र सिंह- मूंग मूलत: दलहनी फसल है। अक्सर किसान गेहूं की फसल कटने के बाद उस जमीन में मूंग की फसल उगाते हैं। एक तरह से देखा जाए तो किसान धान, गेहूं और मूंग का फसल चक्र अपनाते हैं। सामान्य तौर पर मूंग की बुआई 10 मार्च के बाद शुरु हो जानी चाहिए लेकिन उस अवधि में खेत में गेहूं की फसल लगी रहने के कारण ऐसा सम्भव नहीं हो पाता । अमूमन 10 अप्रैल से पहले गेहूं की कटाई संभव नहीं ऐसे में मूंग की बुआई एक महीने देर की जाती है । ऐसे में किसान अगर मूंग का वही प्रभेद लगाता है जो मार्च में लगाने के लिए अनुशंसित है तो नुकसान होना तय है। इसी समस्या को देखते हुए गेहूं की कटनी के बाद मूंग के प्रभेद एचयूएम-16, पीडीएम 139, एसएमएल 668, टीएमबी 37, आईपीएम 2-3, लगाने की अनुशंसा वैज्ञानिकों ने की है। यह प्रभेद 60 से 70 दिनो में तैयार हो जाता है। गेहूं, मूंग और धान के फसल चक्र के लिए यह प्रभेद सर्वथा उपयुक्त भी है ।
बदलाव- मूंग के अलावा अरहर के लिए क्या कोई नया प्रभेद आप लोगों ने तैयार किया है ?
डॉ देवेन्द्र सिंह- इसी तरह अरहर के लिए बहार, नरेन्द्र अरहर- 1, पूसा-9 और राजेन्द्र अरहर-1 भारत के पूर्वी भाग के लिए अनुशंसित प्रभेद है। राजेन्द्र अरहर -1 हाल ही में रिलीज की गई है और इसको अधिसूचित भी किया जा रहा है। इसकी विशेषता यह है कि यह अन्य प्रभेदों से 15 दिन पहले तैयार हो जाती है। दाल में परम्परागत सुगंध है और इसमें प्रोटीन की मात्रा भी अधिक है। इसके पौधे की लम्बाई ड़ेढ से दो मीटर होती है। इसके पक कर तैयार होने का समय 240 से 250 दिन है। ये सभी प्रभेद रोगरोधी है।
बदलाव- प्रभेद के दलहन बीज की अनुपलब्धता एक बड़ी समस्या है तो इसके समाधान की दिशा में अबतक क्या कदम उठाए गये?
डॉ देवेन्द्र सिंह– दलहन बीज के मामले में देश और खासकर बिहार को आत्म निर्भर बनाने की दिशा में राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्व विद्यालय बड़ी मुस्तैदी से काम कर रहा है। समन्वित दलहन विकास परियोजना के अन्तर्गत पूरे बिहार में 12 सीड्स हब बनाए गये हैं। डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्व विद्यालय के अधीन पिपराकोठी, वैशाली, छपरा, मुजफ्फरपुर एवं सब्जीर कृषि विश्व विद्यालय के अधीन सबौर, लखीसराय, बांका, सहरसा, बक्सर, पटना और बिहार शरीफ में यह परियोजना शुरू हो चुकी है।
दलहन उत्पादन के मामले में भारत काफी पीछे हैं । कनाडा दुनिया का सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश हैं, चीन दूसरे नंबर पर और उसके बाद अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और बर्मा का नंबर है। यानी भारत दाल के उत्पादन में टॉप-5 देशों में शुमार नहीं है। भारत में दाल के उत्पादन और खपत में काफी अंतर है। यही वजह है कि हर साल भारत करीब 3-4 मिलियन टन दाल आयात करता है। भारत में इस साल 220 लाख टन दाल के उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। जबकि खपत भी 220 लाख टन के आस-पास है।भारत में दालों की जरुरत से संबंधित विजन 2050 की रिपोर्ट के मुताबिक तीन दशक बाद भारत में सालाना 50 लाख टन दलहन की जरुरत होगी और इसके लिए दलहन के उत्पादन की सालाना वृद्धि दर 4.2 प्रतिशत रहनी चाहिए।
बदलाव- किसानों को सीड्स हब से किस तरह जोड़ा गया है और इसका फायदा किसानों को कैसे मिलता है ?
डॉ देवेन्द्र सिंह- चूंकि इतने व्यापक पैमाने पर दलहनी बीज उत्पादन के लिए कृषि विश्व विद्यालय के पास पर्याप्त जमीन नहीं है। अन्य फसलों पर भी अनुसंधान और बीज उत्पादन का कार्यक्रम है। इसलिए किसानों को भी इस कार्यक्रम में जोड़ा गया है। ऐसे किसान पहले अपना निबंधन कराते हैं फिर उन्हें नगद भुगतान पर दलहनी फसलों के बीज उपलब्ध कराए जाते हैं। बुआई से लेकर फसल की तैयारी तक विशेषज्ञ गहन निरीक्षण, पर्यवेक्षण करते हैं। इसके बाद बीज प्रमाणन एजेंसी इस उत्पादक बीज के रूप मे उपयोग करने का प्रमाण पत्र देती है। इसके बाद विश्व विद्यालय सीधे नगद भुगतान पर उनसे बीज खरीद लेता है। चालू मौसम में अब तक ऐसे 28 किसानों ने करीब 400 क्विंटल मसूर बीज विश्व विद्यालय में जमा किया है। उनको 6 हजार 5 सौ रूपये प्रति क्विंटल की दर से भुगतान किया गया है। जाहिर है कि इस व्यवस्था में किसानों को उनके उत्पाद को बिचौलिए से बेचने से भी मुक्ति मिल गयी है। बाजार में फिलहाल मसूर का प्रति क्विन्टल मूल्य लगभग चार हजार 5 सौ रूपये है। इसके बाद इसी तरीके से अरहर बीज उत्पादन की प्रक्रिया भी शुरू कर दी गयी है।
ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।