आजादी के 7 दशक बाद भी हम देश में समान शिक्षा और समान स्वास्थ्य जैसी मूलभूत जरूरतों को भी आम जन मानस तक नहीं पहुंचा सके । हम सपना तो देखते हैं मंगल ग्रह पर पहुंचने का और इसमें कोई बुराई भी नहीं है, लेकिन सवाल ये है कि आखिर जमीन पर रहने वाले लोगों के संवैधानिक अधिकारों की पूर्ति किए बिना क्या चांद और मंगल पर जाना बेमानी नहीं है । देश में शिक्षा व्यवस्था को लेकर महान साहित्यकार प्रेमचंद ने अपने साहित्य के जरिए जो आवाज उठाई थी आज भी उसकी प्रासंगिकता बनी हुई है, लिहाजा प्रेमचंद की 138वीं जयंती के मौके पर 31 जुलाई को बिहार के मुजफ्फरपुर में आयोजित विचार गोष्ठी में आए अतिथियों ने समान शिक्षा पर जोर दिया ।
इस विचारगोष्ठी में प्रेमचंद की शिक्षा सम्बंधी अवधारणा पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए बीआरए बिहार विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉक्टर रवीन्द्र कुमार रवि ने कहा कि “प्रेमचंद ऊंची से ऊंची तालीम नि:शुल्क उपलब्ध करवाने के पक्षधर थे। उनका मानना था कि मुल्क को फौज से कहीं ज्यादा जरूरत तालीम की है। उनके तमाम उपन्यास और कहानियों में शिक्षा सम्बंधी उनके विचार देखे जा सकते हैं।“ रवींद्र कुमार का कहना है कि ‘शिक्षा का सवाल पूंजीवादी व्यवस्था से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इसे देश की वर्तमान सडी-गली, मृतप्राय पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था से जोड़कर देखने और समझने की जरूरत है। शिक्षा, संस्विकृति , नीति-नैतिकता और मूल्ययबोध अपने समय के आर्थिक आधार का ऊपरी ढांचा होता है। यही उसे नियंत्रित और संचालित करता है। इसलिए देश की शिक्षा व्यवस्था की वर्तमान दुर्दशा को यदि समाप्त करना है तो मौजूदा पूंजवादी व्यवस्था के खिलाफ़ आंदोलन चलाना होगा। बिना ऐसा किए प्रेमचंद के शिक्षा सम्बंधी सपने को साकार नहीं किया जा सकता।‘
समान शिक्षा प्रणाली लागू कराने की मांग को लेकर लम्बे समय से आन्दोलन कर रहे युवा एक्टिविस्ट और पत्रकार कुंदन कुमार ने प्रेमचंद्र को याद करते हुए कहा कि ‘आजादी की खुशफहमी पालते हुए हम आज तेजी से आर्थिक गुलामी की ओर बढ रहे हैं। राजसत्ता मूल मुद्दे से आम जनता का ध्यान हटाने के लिए नित नये बेतुके मुद्दे उछाल रही है। सोची-समझी ‘साजिश’ के तहत सरकारी शिक्षण संस्थाओं को नकारा बनाया जा रहा है ताकि शिक्षा का निजीकरण और बाजारीकरण कर आम आदमी को शिक्षा से वंचित कर दिया जाए। यही कारण है कि आज मीडिया द्वारा सरकारी शिक्षण संस्थाओं को बदनाम करने की मुहिम चलवाया जा रहा है।
साहित्यकर्मी और समाजसेवी ब्रहमानन्द ठाकुर ने कहा कि इस विषय पर चर्चा हमें प्रेमचंद के शिक्षा संबंधी विचारों के आलोक में करने की जरूरत है और प्रेमचंद की शिक्षा सम्बंधी अवधारणा को समझने के लिए उनके समय, तत्कालीन आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों को समझना होगा। प्रेमचंद के समय का भारत गुलाम भारत था। समाजिक व्यवस्था सामंती थी। शिक्षा केवल मुठ्ठी भर कुलीन लोगों के बच्चों के लिए सुलभ थी। आम आदमी शिक्षा से काफी दूर था। अंग्रेज हुकूमत की शिक्षा के आम लोगों तक प्रचार- प्रसार में कोई खास रूचि नहीं थी। मैकाले की शिक्षा पद्धति अपनी जरूरत के लायक लोगों को शिक्षित कर रही थी ताकि भारत पर उसका शासन-शोषण जारी रह सके। प्रेमचंद ने इस स्थिति को पूरी गम्भीरता से महसूस किया। सोवियत समाजवादी क्रांति के बाद वहां शिक्षा के क्षेत्र में हुई प्रगति से वे काफी प्रभावित हुए। यही कारण था कि उन्होंने देश में ऊंची से ऊंची तालीम नि:शुल्क उपलब्ध कराने पर विशेष बल दिया। आजादी के 70 वर्षों बाद भी हमारे देश की शिक्षा लगातार महंगी होती जा रही है जिससे आम आदमी की पहुंच से शिक्षा बाहर हो चुकी है।
विचार गोष्ठी में डाक्टर पूनम सिंह, डॉक्टर वीरेन नन्दा, रामचंद्र सिंह, डॉक्टर नन्द किशोर नन्दन, नागेश्वर प्रसाद सिंह समेत तमाम वक्ताओं ने मौजूदा शिक्षा व्यवस्था और उसकी दुर्दशा पर गम्भीर चिंता व्यक्त करते हुए इसके खिलाफ़ व्यापक जनान्दोलन चलाने की आवश्यकता पर जोर दिया । प्रेमचंद जयंती समारोह के दूसरे सत्र में कविसम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें महेश ठाकुर चकोर, डॉक्टर कुमार विरल, राम उचित पासवान, प्रवीण कुमार मिश्र, महफूज अहमद आरिफ, डॉक्टर रवीन्द्र कुमार रवि, शशिकांत झा, तारकेश्वर प्रसाद सिंह ने काव्यपाठ किया। कवि सम्मेलन का संचालन श्रवण कुमार ने और आध्यक्षता डॉक्टर रवीन्द्र कुमार रवि ने की।