चंद्रशेखर आज़ाद का तमंचा और मूछें

आज चंद्रशेखर आजाद का जन्मदिन है। इस क्रांतिकारी की पहचान रही मूंछों और तमंचे पर देवांशु झा ने एक कविता लिखी है। 

chhandra sekhar azadअल्फ्रेड पार्क में निश्चय ही
दृढ़तर हुए थे, तुम्हारे दृढ़ हाथ
जब तुमने अपने तमंचे में भरा था
आत्मा की भट्ठी में पिघलाया हुआ अंतिम लोहा ।
कांपा था समय, कि
लोहे की पहचान में
पुरुष से बड़ी होने वाली थी
पदार्थ की भूमिका।

और आने वाले युगों में
मूंछें ही देने वाली थीं, तुम्हारा पहला परिचय
हमरी चेतना में अब तक घनी हैं
तुम्हारी ताव लेती मूछें
हमने पढ़ा और सुना कि कभी न अस्त होने वाले
साम्राज्य के सिपहसालारों की मुट्ठिय़ां
तुम्हारी मूछों से ढीली पड़ जाती थीं।

पर यह मालूम न था कि
इतिहास की दृष्टि भी
तुम्हारी मूछों पर ही अटकी रह जाएगी,
दो ईंच ऊपर, तुम्हारी सांद्र आंखों तक न जा सकेगी।
मैं पढ़ता हूं, तुम्हारी तपी आंखों में
आजाद होने के अर्थ।

ताव लेती मूछों से कहीं तेज थीं तुम्हारी आंखें
जो भरी-भरी होकर भी खाली थीं
संघात में डोलते सागर से
और न वहां बस विद्रोह ही था
उस चमकते कोड़े का
जिसकी हर चोट दे गई थी तुम्हें
बाहर कर दिए जाने की पहली पीड़ा।

मैं चकित हूं, कैसे
झाबुआ के अंध देहात में
तुमने भर ली थी
अपनी उनींदी आंखों में मुक्ति की पूर्णिमा।
सच है सभ्यताओं के विकट युद्ध में
तुमने बोली हथियारों की चुनी
पर भाषा के निर्माण में
प्रयोग उतना ही करना चाहा
जितना आंखों में आंखें डालकर
बात कहने के लिए जरूरी था।

मैं क्षुब्ध हूं,
इतिहास तुम्हें देशभक्त तो कहता है
पर लोहा तमंचा और मूछों का ही मानता है।

devanshu jha


देवांशु झा। झारखंड के देवघर के निवासी। इन दिनों दिल्ली में प्रवास। पिछल दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। कलम के धनी देवांशु झा ने इलेक्ट्रानिक मीडिया में भाषा का अपना ही मुहावरा गढ़ने और उसे प्रयोग में लाने की सतत कोशिश की है। आप उनसे 9818442690 पर संपर्क कर सकते हैं।


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