गंगापुत्र स्वामी साणंद ने जिस गंगा को बचाने के लिए अपनी शहादत दी है, उसी गंगा को बचाने के लिए हमारी सरकारें बरसों से भागीरथ प्रयास का दंभ भरती रही हैं । ऐसे में जिन परिस्थितियों में स्वामी साणंद की मौत हुई वो ना सिर्फ हमारी सरकारों के रवैये पर सवार खड़े करता है बल्कि गंगा को बचाने के लिए किए जा रहे सरकारिया दांवों की पोल भी खोलता है । साणंद जी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से काफी उम्मीदें थी, फिर भी बार-बार साणंद जी के अनुरोध को पीएमओ ने अनसुना किया । देश से मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी गंगा भक्त होने का दावा तो करते हैं, लेकिन जब उसी गंगा को बचाने के लिए एक ‘गंगापुत्र’ आमरण अनशन पर बैठा तो ना तो प्रधानमंत्री को उसके जीवन की चिंता रही और ना ही उनकी मांगों को लेकर कोई एक्शन प्लान ही नजर आया । हमारी सरकारें गंगा को अविरल बनाने की दिशा में कोई ठोस कदम उठाती नजर नहीं आईं बल्कि जीवन दायिनी गंगा को बचाने के लिए अनशन पर बैठे साणंद जी का अनशन तुड़वाने की ना सिर्फ कोशिश की बल्कि जीवन की डोर टूटने के बाद ही दम लिया गया । उनके निधन के बाद मीडिया भी जागा और हमारे देश की सोती जनता भी, लेकिन क्या उनकी शहादत के बाद भी उनकी आखिरी इच्छा पूरी हो पाएगी । इन्हीं सब बातों पर बदलाव पर पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार पीयूष बबेले की टिप्पणी ।
पीयूष बबेले के फेसबुक वॉल से साभार
अविरल गंगा के लिए शहादत देने वाले साणंद जी अब जब चले ही गए हैं, तो हम पलटकर फिर सोचें कि वह बूढ़ा बाबा आखिर किस बात के लिए अनशन कर रहा था। वह यही तो कह रहे थे कि गंगा की धारा अविरल होनी चाहिए। वह यही तो कह रहे थे कि उत्तराखंड में गंगा पर बनी हाइड्रोपावर परियोजनाएं खत्म कर दी जाएं। वह खुद भी इंजीनियर थे, इसके बावजूद उनकी मांगों को पूरी तरह मानना संभव नहीं था। गंगा की अविरल धारा, हमारी मौजूदा परिस्थितियों में संभव नहीं है। इसकी वजह सिर्फ यह नहीं है कि उत्तराखंड में बहुत सारे बांध बन गए हैं। बल्कि इसकी वजह यह है कि हमने टिहरी बांध और गंग नहरों के माध्यम से गंगा के पानी का बड़ा हिस्सा खेती के लिए सुरक्षित कर दिया है। यही नहीं गंगा के पानी का दूसरा हिस्सा दिल्ली, गाजियाबाद और अन्य शहरों में पाइप लाइन के जरिए पीने को भेजा जाता है। यही हाल यमुना और हिमालय से निकलने वाली दूसरी नदियों का है। ये सब नदियां भी गंगा की सहायक नदियां ही हैं, यानी गंगा ही है।
अगर स्वामी जी की मांग के मुताबिक गंगा को अविरल कर दिया जाए तो फिर हमें किसानों और शहरों को अभी मिल रहा, पानी रोकना पड़ेगा। इसका सीधा मतलब होगा हमारे वर्तमान जीवन में अचानक एक भूचाल का आना। इसका मतलब होगा एक झटके में हमारी खेती के एक बड़े हिस्से का खत्म हो जाना। यही वह बुनियादी वजह थी जिसके चलते पहले मनमोहन सिंह सरकार और अब नरेंद्र मोदी सरकार स्वामी जी की बात नहीं मान सकी, लेकिन क्या इतना कहने से स्वामी जी की मांग पूरी तरह गलत हो जाती है। नहीं, वह गलत नहीं होती। हमने जिन परिस्थितियों का जिक्र किया है, वे कुदरत की बनाई नहीं हैं, इंसान की बनाई हैं। स्वामी जी जिस परिस्थिति की बात कर रहे थे, वह कुदरत की बनाई थी। गंगा की अविरलता प्रकृति की देन है। तो हम क्या करें। हम अपने नए इंजीनियरों और नीतिकारों की मानें या फिर इंजीनियर से संत बन गए स्वामी साणंद की बात मानें। बद्रीनाथ से लेकर बलिया तक गंगा की दशा और दिशा को गहराई से देखने और समझने के तजुर्बे के आधार पर मैं कहूंगा कि अगर हमें अपनी सभ्यता को बचाए रखना है तो धीरे-धीरे स्वामी साणंद की मांग की तरफ बढ़ना होगा।
हमें याद रखना चाहिए कि जब नदी मरती है तो कोई नहीं बचता। आखिर को हड़प्पा सभ्यता वहां बहने वाली सरस्वती (या आप उसका जो नाम चाहें वह रख लें) नदी के सूखने से ही खत्म हुई थी। हमारे कई साम्राज्यों की राजधानियां तो इसलिए वीरान हो गईं कि नदियों ने अपनी धारा बदल ली थी। वे सभ्यताएं भी इन त्रासदियों से इसलिए गुजरीं क्योंकि वे नदी से बहुत ज्यादा की मांग करने लगी थीं और नदी की ओर से दी गईं चेतावनियों के बावजूद खुद को बदलने को राजी नहीं थीं। गंगा भी हमें वार्निंग कॉल दे रही है। स्वामी जी अपने ऋत की प्रेरणा से उसे सुन पा रहे थे, हम अपने तर्क आधारित सत्य की जिद में उसे अनुसना कर रहे हैं। गंगा अपने संकट के सबसे गहरे काल में पहुंच चुकी है। गंगा सागर से लेकर गढ़मुक्तेश्वर तक उसके तटीय इलाके में भूजल में आर्सेनिक की मात्रा बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है। इससे आसपास के इलाकों का भूजल पीने लायक नहीं बचा है। यह बड़े पैमाने पर बीमारियों की वजह बन रहा है। हमारी सबसे पवित्र नदी के आसपास बीमारियों और मौत का डेरा होता जा रहा है।
गंगा के भीतर पलने वाला जलजीवन बुरी तरह क्षत-विक्षत हो चुका है। इसके किनारे बसे शहरों का भूजल भी प्रभावित हो रहा है। गंगा का अपना जल तो प्रदूषित हो ही चुका है। यह सब गंभीर चेतावनी की बातें हैं, लेकिन हम अब भी कह रहे हैं कि गंगा में गिरने वाले नालों पर ट्रीटमेंट प्लांट बनाकर गंगा को साफ कर लेंगे।राजीव गांधी के जमाने से नरेंद्र मोदी के जमाने तक हम अपनी इस जिद पर कायम हैं, लेकिन इस जिद का कोई नतीजा निकल नहीं रहा है, क्यांकि गंगा सिर्फ इंजीनियरिंग का नहीं, जिंदगी का मुद्दा है। उसका अपना इकोसिस्टम और वह अपने आप में पूरी कायनात है।
हमें अब इंजीनियरों की जिद के बजाय गांधी की व्यापक दृष्टि की तरफ देखना होगा। आखिर क्यों हम गंगा, सतलज और यमुना का पानी उत्तर भारत के शीर्ष इलाकों में ही इस्तेमाल कर लेना चाहते हैं। आखिर क्यों हम चने के लिए मुफीद मिट्टी में धान उगाना चाहते हैं। क्यों पश्चिमी यूपी में जबरन गन्ना उगाना चाहते हैं। अब यह साबित हो चुका है कि खेती के ये पैटर्न बहुत कामयाब होने के बावजूद न सिर्फ प्रकृति के खिलाफ हैं, बल्कि दीर्घकाल में टिकाऊ नहीं हैं।
अब जब देश में प्लानिंग कमीशन खत्म हो चुका है और नीति आयोग बन गया है तो नीति आयोग को नई नीति भी बनानी चाहिए। उसे यह भी याद रखना चाहिए की हम पांच हजार साल पुरानी सभ्यता हैं, तो अब हमारी नीति कम से कम कुछ सौ साल की तो होनी चाहिए। इस नीति में आत्मनिर्भर गांव न सही, आत्मनिर्भर शहर तो बनाए जाएं। इस नीति में तय हो कि हमें अपनी नदियों, जमीन, पहाड़ और हवा का कैसे संरक्षण करें। मोटे तौर पर कहें तो इस समय सारे पंच महाभूत क्षित, जल पावक, गगन और समीर संकट में हैं। स्वामी जी तो इनमें से सिर्फ एक यानी जल यानी गंगा को बचाने में शहीद हो गए। आगे चलकर हम देखेंगे कि इस देश में बाकी पंच महाभूत को बचाने के भी आंदोलन होंगे और जो लोग ये आंदोलन करेंगे, वे हमारे दुश्मन नहीं, हमारे सबसे बड़े हितैषी होंगे। यह वे लोग होंगे जो हमें अपने समाज की असली सर्जिकल स्ट्राइक की जरूरत बताएंगे। इसलिए स्वामी जी की मौत में हम इस बात को खासतौर से देखें कि वे अपने लिए नहीं मरे हैं, हमारे लिए मरे हैं। उनका बलिदान तभी सार्थक होगा, जब हम अपने और आने वाली नस्लों की फिक्र करने वाली सभ्यता को विकसित करने के बारे में सोचेंगे।
पीयूष बवेले। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। इंडिया टुडे और दैनिक भाष्कर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी रह चुके हैं। संप्रति जी ऑनलाइन मीडिया में संपादक की भूमिका निभा रहे हैं