शहंशाह आलम
बच्चे जनने में मुटा गई है, मेरी छोटी-पतली कमर ।
काजल मेरे गालों पर बहता है,काले आँसुओं की तरह।।
तुम्हारे हाथों का स्पर्श जाने बिना, मेरी छातियाँ दुबक गई हैं,
वक्ष-कुसुम कुम्हला गए हैं,तुम्हारे प्रेम से भरे चुंबन के बिना।
मेरे होंठ पीले पड़ गए हैं।।
मेरी पापों से भरी प्रार्थनाओं में, झुलसी हैं सारी मर्यादाएँ।
और छोड़ गई हैं मेरी देह को,शिष्ट-शालीन राख में बदल कर।।
कविता का यह समय इस मामले में महत्वपूर्ण कहा जाना चाहिए कि विश्व की समकालीन कविता में स्त्री-कविता का दख़ल बढ़ा है। विश्व की स्त्री-कविता की यह दख़लंदाज़ी मेरी नज़र में बेहद उपजाऊ, बेहद व्यापक और बेहद संवेदनशील है। ‘फिर आएगा वसंत’ इति माधवी का स्त्री-कविता में उसी सार्थक दख़ल का परिणाम है। इन कविताओं में एक स्त्री की यातनाओं की चीख़ें नहीं हैं। इन कविताओं में एक स्त्री के रोशन दिन हैं और इन्हीं रोशन दिनों को बचाने की छटपटाहटें हैं। सच यही है कि इति माधवी की इन कविताओं के शीशे चटक-चटक कर टूट-बिखर नहीं रहे बल्कि इन कविताओं के शीशे इति माधवी के पारदर्शी जीवन को साफ़ पानी की तरह दिखा रहे हैं। इति माधवी के संग्रह की पहली कविता का रंग देखिए
मेरा भी मन तब अनुरागी था, जब पनघट पर मुझे भी, एक गगरी जल मिल जाता था।
दिन का प्रथम सवेरा,हमारी किलकारियाँ, फुलझड़ियों-सी चमकती-दमकती सतरंगी किरणें
उलझे-लपटे लता-बूटों,जंगल-झाड़ों में भी राह निकाल लेती ।।
पनघट की गीली मिट्टी की,पकड़ जो थी हमारे पैरों मेंगूँथे थे हम।
पनघटी मिट्टी से और पदचिह्न भी थे हमारे एक।
मेरा भी मन तब अनुरागी था, जब पनघट पर एक गगरी जल मुझे भी मिल जाता था।।
बिम्ब की सृष्टि में, सौंदर्य को तलाशता, खोखले सत्य को खँगालता
ढहता गया वह अरूप, विपुल साधन के मध्य, एक ‘बिम्ब’ प्रत्यक्ष आँखों से ओझल हो गया।।
इति माधवी की कविताओं की ख़ासियत यह है कि इन कविताओं में पुराने मौसमों के पदचिह्न छोड़ नहीं दिए गए हैं। ऐसा करना एक कवि के लिए जायज़ भी है और वाजिब भी। जायज़ इसलिए कि पुराने मौसम के बाद नया मौसम आता है और वाजिब इसलिए कि पुराने मौसमों की आवाज़ जिस तरह नए मौसम में बची रहती है, वैसे ही कवि के हर नए कहे में पुराने कहे की गूँज अक्सर बची रहती आई है। मेरे ख़्याल से फ़िलिस्तीनी कवयित्री सूसन अबुलहवा अपने समय की जिस बेचैनी को, जिस बेसब्री को, जिस बेताबी को आकाश के सातवें तल तक पहुँचाना चाहती हैं, इति माधवी अपने भीतर के पुराने मौसमों की आवाज़ को गीली मिट्टी तक में बचाए रखना चाहती हैं। ऐसा इसलिए है कि इति माधवी जड़ और निर्जीव कवयित्री नहीं हैं, ना इनकी कविताओं में जड़ता और निर्जीवता की मारा-मारी दिखाई देती है। इति माधवी की कविताएँ पानी के किसी नए सोते जैसी हैं, जिसका पानी ताज़ा है, मीठा है, ठंडा है। कविता का यह सोता इतना तरोताज़ा इसलिए भी है कि ‘ फिर आएगा वसंत’ इति माधवी का पहला संग्रह है, इसीलिए इस संग्रह की कविताएँ मासूमियत से अपनी बातें कहती हैं :
बहुत दिनों बाद,आज थम गई है बदली आकाश में, उमड़-घुमड़ लगाती है क़यास
मेरे आने से ख़ुश कौन है, कौन है उदास,स्वागत, आ बदली बरस ।
सभी नाचें-गाएँ,ख़ुशियों की धुन बजाएँ, झमाझम-झमाझम ।
बजे तीन ताल, कृषक थिरकेँ हल उठाएँ, कजरी का स्वर उठे
गोट लगे लहँगे में,झूमे-गाएँ कजरी, उन्मत्त यौवन बालाएँ
बरस बदली कि, वर्षों का इंतज़ार, आज सरस हो जाए, प्यासी आँखेँ हो जाएँ तृप्त।
चिर प्रतीक्षा हो जाए ख़त्म, बरस कि उन्मुक्त हो जाएँ बंधे कुंतल, बरस पल-पल।।
निखर आएँ पीपल पर पत्ते, जैसे उग आई हैं, जन-मानस की संभावनाएँ।
बरस, ऐ बदली बरस, जैसे माँ की करुणामयी आँखें, सुख-दुःख दोनों में निरंतर बरसती हैं।
किसानों की पथराई आँखें भी, ख़ुशी से भर आई हैं, लहलहाएँ सूखे खेत
बरस बदली कि तू, कई वर्षों पर तो आई है, देख, बचपन तैरने लगा है, काग़ज़ की नावों पर।।
ये काग़ज़ की नावें, लदी हुई किलकारियों से, सम्भावनाओं से उगती आस और साँसों की सुगंध से
ये नावें जाएँगी सात समुन्दर पार, बरस ऐ बौराई बदली ।।
इति माधवी की संगीत की ताल जैसी कविताएँ मनुष्य, प्रकृति और पर्यावरण से इस क़दर जुड़ी हैं कि ये सारी कविताएँ किसी कुंतला स्त्री सरीखी हो गई हैं। तभी तो इन कविताओं में पनघट है, किरण है, मिट्टी है, पहाड़ है, सूर्य है, नीम है, कली है, इन्द्रधनुष है, समुन्दर है, ब्रह्माण्ड है, रेत है, चिरइया है, बारिश है, वसंत है, पतझड़ है, बादल है, नाव है, पीपल है, बगिया है, बंजारा है, आँगन है, कठपुतली है, स्वप्न है, घोंसला है, तूफ़ान है, मौन है, मान-मनौवल है, रसगुल्ला है, चाँदनी है, दूध है, पंचतत्व है, मीना बाज़ार है, मड़ई है, पगडंडी है, पथ है। सच यही है कि ये कविताएँ स्त्री-केश से होती हुईं समाज में फैली हुई क्रूरता के विरुद्ध अद्भुत आक्रोश तक पहुँचती हैं। इति माधवी के पास शब्दों, मुहावरों, चुनौतियों के जो औज़ार हैं, उनसे इति माधवी कविता के चाक पर जो चाहती हैं, जैसा चाहती हैं गढ़ती हैं, रचती हैं, सजाती-सँवारती हैं। इनका यह सहज गुण समकालीन कविता में किसी नए चमत्कार जैसा नहीं भी है, तब भी संग्रह की कविताएँ उस ख़ानाबदोश स्त्री की, उस कुम्हार स्त्री की, उस सब्ज़ी बेच रही स्त्री की, उस गेहूँ उपजा रही स्त्री की ज़रूर हैं, जिनसे यह दुनिया बनी है और बची हुई भी है। इसलिए कि ये कविताएँ एक स्त्री के एकालाप की कविताएँ ना होकर वर्तमान से जद्दोजहद की कविताएँ हैं।