पशुपति शर्मा के फेसबुक वॉल से साभार
आज बापू की शहादत का दिन है। किसी सिरफिरे ने उन्हें गोली मार दी थी। लेकिन गांधी जैसी शख्सियत की हत्या महज गोली से नहीं हो सकती। उनकी हत्या तो तब होती है जब हर दिन उनके विचारों पर गोलियां दागी जाती है। गांधी की हत्या तब होती है जब हत्यारों के पैरोकार ही गांधी-गांधी का जाप कर विचारों के फासले पर धुंध फैलाने की कोशिश करते हैं।
गांधी की हत्या तब होती है जब हम विनम्र किंतु अहिंसक सवालों का जवाब हिंसा से देते हैं। जब हम देश में हिंसा की संस्कृति को जायज ठहराना शुरू कर देते हैं। जब गांधी को हम गैर-प्रांसगिक घोषित करने लगते हैं। हम गांधी के विचारों को स्मारकों, संग्रहालयों और बुतों में कैद करने की कोशिश करने लगते हैं। जब हम अपनी सुविधा का गांधी गढ़ते हैं और उसे प्रचारित करने लगते हैं।
गांधी की सांसें तब टूटती हैं, जब हम मजहबी सियासत का ढिंढोरा पीटते हैं। जब लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में काबिज नेता ये जयघोष करते हैं कि जो बहुसंख्यक सियासत के साथ नहीं चल सकते, वो किसी और मुल्क में पनाह तलाश लें। गांधी की सांसें तब दम तोड़ने लगती हैं जब मुजफ्फरनगर से लेकर असम तक दंगाई मानसिकता वाले लोग बेखौफ अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं।
गांधी को चरखे और खादी तक सीमित करने वाले लोगों को कभी एहसास ही नहीं हो सकता कि गांधी की प्राणवायु के स्रोत क्या थे? चरखे और खादी के पार जाकर वो जिस बात पर जोर देना चाह रहे थे, उसे तो हमने भुला दिया और प्रतीकों के पीछे गांधी-गांधी कर भागते रहे। गांधी जिन ‘हत्यारों’ को माफ करने का माद्दा रखते थे, गांधीवादी आज भी उन ‘हत्यारों’ के निंदा-सुख से खुद को जुदा नहीं कर पाए हैं।
गांधी की शहादत के दिन कुछ पल ठहर कर सोचता हूं तो यही पाता हूं- गांधी को गोली तो 1948 में लगी थी, लेकिन मर तो वो अब रहे हैं- आहिस्ता, आहिस्ता।