नया पमरिया के दस ढोलकिया

फोटो- यू ट्यूब स्क्रीनशॉट
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एम अखलाक

बिहार के हर अंचल की अपनी खास सांस्कृतिक विशेषता रही है। बात चाहे लोक कलाओं की हो, खान-पान की हो अथवा रहन-सहन और परिधानों की। हर अंचल अपने आंचल में कुछ खास समेटे हुए है। इन्हीं में एक है पमरिया लोक नृत्य। शाहाबाद क्षेत्र में इसे पंवरिया नाच के नाम से लोग जानते हैं। मुख्य रूप से यह कला उत्तर बिहार के सीमांचल, कोसी और मिथिलांचल की थाती है। वैसे किसी जमाने में यह पूरे बिहार में प्रचलित था। यह नृत्य अब तो देखने को भी नसीब नहीं है। हां, सरकारी संचिकाओं में इसे सहेजने के वादे जरूर दिख जाएंगे। बिहार सरकार के सांस्कृतिक नीति 2004 में इसे सहेजने का संकल्प दिखाई देता है। मिथिलांचल क्षेत्र के मधुबनी जिले के मिथिलादीप गांव और लखनौर प्रखंड में पमरिया समुदाय की बड़ी आबादी हुआ करती थी। अब यहां पहले की तुलना में इनकी संख्या कम हो गई है। बधइया गा कर जीवनयापन करने वाले इस समुदाय के कई लोग रोजगार की तलाश में पलायन कर गए हैं या दूसरे कामों में जुट गये हैं। सीमांचल और कोसी क्षेत्र में भी इनकी हालत बदतर है।

बहरहाल, बिहार के ये तीन अंचल ही ऐसे बचे हैं जहां दम तोड़ती यह पमरिया लोक नृत्य थोड़ा बहुत सांस ले रही है। गाहे-बगाहे बच्चे के जन्म पर पमरिया के थिरकते पैर, ढोलकिया की आवाज और सोहर के धुन सुनाई देते रहते हैं। बुजुर्ग साक्षी हैं कि कोसी क्षेत्र के सहरसा, मधेपुरा, सुपौल और सीमांचल क्षेत्र के अररिया, किशनगंज, पूर्णिया व कटिहार जिले में कभी इस लोक नृत्य की धूम थी। इन इलाके के लोगों ने लंबे समय तक इस लोक कला को बचाए रखा। बुजुर्ग फरमाते हैं- एक समय था तब बच्चे के जन्म के सवा माह के भीतर पमरिया की टोली घरों में आ धमकती थी। इनकी टोली में अधिकतम पांच लोग हुआ करते थे। खूब नाचते थे, गाते थे और बच्चे के लिए मंगल कामनाएं करते थे। दान में मिलने वाली रकम, अनाज और कपड़ों से इनके घर का खर्चा चलता था। सच कहें तो यही इनके जीवनयापन का मुख्य स्रोत था।

panwaria1उत्तर बिहार में देखने को मिलता है कि पमरिया नृत्य करनेवालों की टोली में एक मुख्य किरदार होता है, जो बच्चे को गोद में लेकर नाचता और गाता है। वह कमर में घाघरा लपेटे हुए रहता है। जबकि, टोली के साथी कलाकार कोरस और वादक की भूमिका में रहते हैं। मिट्टी के तबलानुमा छोटे मटके पर चमड़े से मढ़ा गया एक छोटा वाद्ययंत्र होता है, जिसे वे एक हाथ से बजाते हैं। इसे स्थानीय भाषा में ढोलकिया कहते हैं। दूसरे कलाकार खजड़ी का प्रयोग करते हैं। वहीं, शाहाबाद के इलाके में पमरिया नृत्य टीम के पास एक ढोलक होता है। यह ढोलकिया से बड़ा होता है। हाथों में ये घुंघरू भी बांधे रहते हैं।

ऐसी मान्यता है कि उनके बधइया गाने से बच्चे की उम्र लंबी होती है। ऐसी मान्यता अब भी कायम है। पमरिया नृत्य से जुड़े लोगों की मानें तो राजा दशरथ के पुत्र भगवान श्रीराम के जन्म पर भी बधइया गाया गया था। इसका उदाहरण उनके गीतों में मिलता है- राजा दशरथ के चारो ललनमा हो रामा, खेलेला अंगनमा। किनका के श्रीराम किनका के लक्ष्मन, किनका के भरत हो ललनमा हो रामा, खेलेला अंगनमा…।
पमरिया मूलत: दलित समाज से आते हैं। हिन्दू और मुसलमान बनने के बाद भी यह दलित समुदाय अपने पेशे से रिश्ता नहीं तोड़ पाया। यही वजह है कि दोनों संप्रदायों में पमरिया जाति के लोग मौजूद हैं। मिथिलांचल के लोक कहावतों में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। मिथिलांचल में कहावत प्रचलित है- नया पमरिया के दस ढोलकिया।


ekhalaque profile

एम अखलाक। मुजफ्फरपुर के दैनिक जागरण में वरिष्ठ पद पर कार्यरत एम अखलाक कला-संस्कृति से गहरा जुड़ाव रखते हैं। वो लोक कलाकारों के साथ गांव-जवार के नाम से बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन चला रहे हैं। उनसे 09835092826 पर संपर्क किया जा सकता है।

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