गायक येसुदास को पद्म विभूषण सम्मान से नवाजा गया है। उनके मुरीद प्रसन्न हैं। ऐसे ही एक मुरीद देवांशु झा ने कभी उनकी गायकी पर कुछ लिखा था, इस मौके पर बदलाव के पाठकों के लिए हमने उनके फेसबुक वॉल से उधार ले लिया है।
सत्तर के दशक के आखिरी वर्षों में जब हिन्दी सिनेमा के दो बड़े गायक रफी और किशोर कुमार ढलान पर थे तब दक्षिण से एक गायक मुंबई आया था। नाम था येसुदास। हिन्दी गानों से उनका परिचय कराने वाले संगीतकार थे, रवीन्द्र जैन। रवीन्द्र जैन ने येसुदास की आवाज को मलयालम फिल्मों में परख लिया था। वे मलयालम फिल्मों में संगीत दे चुके थे, इसलिए उन्हें पता था कि शराब से बोझिल होती किशोर की कला और उम्र से मात खाते मुहम्मद रफी को सुनने वाले जब येसुदास को सुनेंगे तो निश्चय ही स्तंभित हो जाएंगे, उनकी आवाज के पाश से छूटना आसान नही होगा।
आवाज क्या! शहद कहिए, जो गाने वाले के गले से निकल कर सुनने वालों के मन में उतरता, चिपकता चला जाता है। मैं व्यक्तिगत रूप से उनकी विशुद्ध गायकी का मुरीद रहा हूं। विशुद्ध इसलिए कि वे सुरों की पवित्रता को इमोशंस की नाटकीयता से वर्सटैलिटी देने की कोशिश नहीं करते। जैसे सरोज स्मृति में निराला कहते हैं- पर बंधा देह के दिव्य बांध, छलकता दृगों से साध-साध, वैसे ही उनकी आवाज स्रोत से भरपूर, टलमल करती हुई है लेकिन गायकी के अनुशासन से बंधी हुई, सुनने वालों के मन के किनारों को शीतल स्पर्श देती हुई। पहले स्वर से वे हमें बंधन में बांध लेते हैं और फिर हम मुक्त हृदय से उन्हें सुनते हैं। हिन्दी सिनेमा के लिए उनके गाए बहुत कम गानों में से अधिकांश गाने अच्छे हैं और कुछ तो बहुत ही अच्छे। एक गाना है, आ आ रे मितवा, जनम-जनम से हैं हम तो प्यासे, आनंदमहल फिल्म का ये गाना मुझे बहुत प्रिय है। उस गाने के स्वरारोह और अवरोह को नियत भावनाओं और सधे हुए सुर के साथ उन्होंने सृजित किया है। निश्चित तौर पर रचना सलिल दा की है, लेकिन पूरी तो येसुदास की आवाज के लालित्य से ही होती है। यह एक आकुल कंठ का गाना है, जिसमें विरह की अमिट रागात्मकता है। उच्चारण में हल्की मलयाली ध्वनियों के साथ वे बेदाग गाते हैं। कहीं कोई जबरन का प्रयोग नहीं, कोई ड्रामा नहीं। गाना बस गाना होता है, जिसे वे रूह से गाकर रूह तक उतार देते हैं।
उनके गानों की एक छोटी सी सूची है, जब दीप जले आना, मधुबन खुशबू देता है, माना हो तुम बेहद हसीं ( इस गाने की विशिष्टिता की चर्चा बाद में होगी), का करूं सजनी, सुनयना, नैया रे, जिद ना करो, कोई गाता मैं सो जाता, माता सरस्वती शारदा, तू जो मेरे सुर में, तुझे देखकर जग वाले पर, चांद जैसे मुखड़े पे, गोरी तेरा गांव बड़ा प्यारा, आज से पहले, तेरे बिन सूना मेरे मन का मंदिर आ रे आ..
येसुदास जैसे अचानक आए, वैसे ही एक दिन गुम भी हो गए। व़े खुद कहते हैं कि उन्हें अपने घर लौट जाना अच्छा लगा लेकिन सुना तो ये भी जाता है कि उन्हें मुंबई में धमकियां मिली थीं। घरवापसी की वजह जो भी हो लेकिन वैसी आवाज बहुत कम लोगों को नसीब होती है। मलयालम सिनेमा में उनका ऐसा एकाधिकार रहा कि दशकों तक कोई नया गायक उस जादुई आवाज से खुद को अलग कर ही नहीं सका। वहां गायकों की मौलिकता जाती रही थी। रफी और किशोर को सुनते हुए जब हम येसुदास को सुनते हैं तो एक अलग अनुभव होता है। रफी की आवाज भी रेशम सी है, उसमें कुदरती स्टीरियोफोनिक प्रभाव है, बड़ा रेंज हैं। उनके स्वरों की आवृतियां देर तक, दिनों तक भीतर उथल-पुथल मचाती हैं लेकिन उनमें एक दुर्गुण भी है, वो कई बार नाटकीयता की हदें पार कर जाते हैं। वैसे उनके नाटकीय गानों के मुरीद बहुत ज्यादा हैं लेकिन मेरे हिसाब से रफी तब बहुत बेहतर थे जब वो गानों को अपनी प्रकृति प्रदत्त कला से संवारते थे।
किशोर कुमार खिलंदड़ी और मौजमस्ती वाले बिंदास गायक के रूप में जाने गए लेकिन किशोर की पहचान उनकी आवाज में विन्यस्त दर्द है। अपनी तरह की एक अनूठी, अभूतपूर्व पुरुष आवाज, जिसमें महान कुंदन लाल सहगल की स्वाभाविक उपस्थिति है तो बंगाल की लोकधुनों का अदृश्य लेकिन श्रव्य लोक भी है। किशोर की आवाज का अपरिष्कृत होना ही उसकी विशेषता है। वह वर्षों के रियाज से तैयार आवाज नहीं बल्कि प्रतिभा की त्वरा से चकित कर देने वाला स्वर है।
येसुदास इन दोनों बड़े गायकों से जरा हटकर हैं। वे गायन में कुछ हद रफी के करीब हैं, आवाज की गुणवत्ता के हिसाब से लेकिन कला में अलग। उनकी आवाज में गंभीरता भी है, सरसता भी, सुर भी और भावनाओं से भरा संस्कार भी। उनके स्वर में भी एक स्टीरियोफोनिक इको इफेक्ट है जो पहले सुर के साथ हमें गुलाम बना लेता है। वे दिखावे के प्रयोगधर्मी गायक नहीं हैं क्योंकि गाने को विशुद्ध सुर के कठोर अनुशासन और सधे हुए भावावेश के साथ गाते हैं लेकिन ‘माना हो तुम बेहद हंसी’ गाने को सुनते हुए उनका प्रयोग सामने आ जाता है। चूंकि येसुदास कर्नाटक संगीत के गंभीर शिष्य होने के साथ पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत की भी समझ रखते हैं इसलिए इस गाने में वो कुछ वैसा कंपन ला सके जो आजकल के गानों का पारंपरिक चलन है।
येसुदास ने हिन्दी सिनेमा के लिए बहुत कम गाया लेकिन जितना भी गाया श्रेष्ठ गाया। मुझे व्यक्तिगत तौर पर, कोई गाता मैं सो जाता, तेरे बिन सूना, आ आ रे मितवा, जब दीप जले आना, बहुत प्रिय है। मैं निस्संदेह कह सकता हूं कि अमिताभ के ऊपर फिल्माए गए दस श्रेष्ठ गानों में से एक गाना आलाप फिल्म का जरूर होगा। वे कभी सितारों के गायक नहीं रहे लेकिन गायकी का लीरिकल टच ऐसा कि अमोल पालेकर से लेकर अरुण गोविल तक को पहचान दी तो अमिताभ के दमकते एकाधिकारी स्टारडम में सो रहे एक कोमल कलाकार को नई कांति दे दी। जैसे किशोर कुमार के कुछ यादगार गानों से अमिताभ पूरे होते हैं वैसे ही ऋषिकेश मुखर्जी के उस संवेदनशील किरदार की आवाज के लिए येसुदास अपनी पात्रता प्रमाणित करते हैं।
उन्होंने गिने चुने संगीतकारों के साथ गाने गाए। सलिल दा, राजकमल, जयदेव, रवीन्द्र जैन, बप्पी लाहिड़ी औऱ खय्याम। येसुदास की महानता रवीन्द्र जैन की एक ख्वाहिश से समझ में आती है। उन्होंने एक बार कहा था कि अगर ईश्वर ने मुझे दृष्टि दी तो सबसे पहले मैं येसुदास को ही देखना चाहूंगा। आज कल गाने वाले बहुत हैं लेकिन बहुत कम आवाजें हमारे मन में बैठ पाती हैं। उसकी बड़ी वजह मौलिकता की कमी और जल्दबाजी है। गायकी प्रदर्शन तब है जब उसे प्रदर्शित करने के लायक कोई बना सके। वह तो स्वांत:सुखाय कला है, जिसे गायक गाते हुए सुन लेता है और परख भी लेता है। इसीलिए हिन्दी सिनेमा के तमाम गायक, गायिकाओं की कतार में लता सबसे ऊपर हैं, क्योंकि अपनी अप्रतिम आवाज को उन्होंने शुद्ध सुरों की दमक दी, दिखावे का रंग नहीं दिया। येसुदास भी गायकी की उसी पाठशाला के छात्र रहे हैं, और शिक्षक, मार्गदर्शक भी।
देवांशु झा। झारखंड के देवघर के निवासी। इन दिनों दिल्ली में प्रवास। पिछल दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। कलम के धनी देवांशु झा ने इलेक्ट्रानिक मीडिया में भाषा का अपना ही मुहावरा गढ़ने और उसे प्रयोग में लाने की सतत कोशिश की है। आप उनसे 9818442690 पर संपर्क कर सकते हैं।
वाह!!!
इतना सुन्दर वर्णन!
येसुदास जी के साथ साथ मैं देवांशु जी का भी फैन हो गया।
धन्यवाद…