संजीव कुमार सिंह
जनसत्ता की कैच लाइन रही है सबकी खबर दे, सबकी खबर ले। टीवी में काफी समय गुजारने के बाद अपने लिए इसके मायने बदलते लग रहे हैं। अब टीवी सबकी खबर नहीं देता। लिहाजा टीवी पर नहीं सोशल मीडिया से पता चल रहा है कि राज किशोर नहीं रहे। वो राजकिशोर, जिन्हें एक समय पढ़े बगैर करार नहीं मिलता था। उनकी लेखनी और बेलागलपेट अपनी बात रखने की काबिलियत के ऐसे कायल थे कि उनका लिखा शायद ही कोई लेख एक सांस में न पढ़ा हो। उनकी लिखी बातों को हम जैसे कई लोग लकीर ही मानते थे।
याद है 90 के दशक में ये बहस चली थी कि भारत जैसे देश में सौंदर्य प्रतियोगिताएं होनी चाहिए कि नहीं। ये सवाल इसलिए भी उठा था कि उसी समय सुष्मिता सेन और ऐश्वर्या राय ने सौंदर्य प्रतियोगिताएं जीती थीं। उसी समय सहारा समय के हस्तक्षेप में राजकिशोर का आर्टिकल छपा ‘सौंदर्य खुद एक प्रतियोगिता है’। इसके बाद मन के सारे संशय दूर हो गए थे। राजकिशोर ने हम जैसे हजारों लोगों का वैचारिक द्वंद दूर किया होगा। वो पत्रकार ही नहीं लेखक और विचारक थे।
राज किशोर की किताब तुम्हारा सुख का इतना बौद्धिक आतंक मचा किहम लोगों के सहयोगी मुकेश कुमार ‘दैनिक जागरण मेरठ के संपादक ‘ ने पुस्तक मेले में वो किताब ढूंढकर खरीदी थी। विधवा से शादी के लिए इंग्लैंड के राजा की कुर्सी को ठोकर मारने वाले किंग से लेकर जॉन स्टुअर्ट मिल्स के बारे में किताब में आंख खोलने वाली जानकारी मिली थी। उनके संपादन में निकली ‘आज से प्रश्न’ आज भी कई प्रश्न करती है। धीरे-धीरे राजकिशोर अपने चेतन संसार से दूर हो गए थे लेकिन उनके निधन की खबर के बाद कबीर याद आ रहे हैं ‘रहना नहीं देस विराना है’।