नवबंर क्रांति से रूस की ‘आधी आबादी’ को मिला हक

नवबंर क्रांति से रूस की ‘आधी आबादी’ को मिला हक

ब्रह्मानंद ठाकुर

रूस की नवंबर क्रांति को लेकर पिछले अंक में हमने आपको रूस में समाजिक बदलाव के बारे में बताया साथ ही ये भी बताया कि कैसे कृषि के क्षेत्र में रूस में नई क्रांति आई । इसके अलावा हमने रूस की शिक्षा व्यवस्था के बारे में विस्तार से चर्चा की और बताया कि कैसे रूस में एक समान मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को लागू किया जिससे समाज में काफी हद तक समानता का भाव जागृत हुआ । आज बात होगी रूस में महिलाओं की दशा और दिशा नवंबर क्रांति के जरिए कैसे बदली और वहां क्रांति से पहले महिलाओं की क्या दशा थी ।

नवंबर क्रांति के 100 बरस- तीन

रूस में नवंबर क्रांति से पूर्व जार के शासन काल में महिलाएं हर तरह के मानवोचित अधिकार से वंचित थीं। सरकार और नागरिक संस्थानों के दरवाजे महिलाओं के लिए बंद थे। कामकाजी महिलाओं का जीवन नारकीय हो चुका था। महिलाओं को 12-12 घंटे लगातार काम करना पडता था। बीच-बीच में बेरोजगारी और मालिकों का बर्बर शोषण मजदूर वर्ग के परिवारों को नारकीय बना दिया था। परिवार टूटने लगे थे। जार के शासन में पूर्वांचल क्षेत्र की महिलाएं तो न्यूनतम मानवाधिकारों से वंचित थीं। पुरुषों के साथ बैठना भी मना था।  पर्दा प्रथा कायम थी। कन्या संतान का जन्म  परिवार के लिए अभिशाप था।  जारशाही के इतिहास को यदि टटोला जाए तो 1897 की जनगणना के अनुसार, जार के रूस में कुल कार्यरत महिलाओं का 55 प्रतिशत बड़े जमींदारों, पूंजीपतियों, व्यवसायियों और अफसरों के दासी के रूप में नियुक्त थीं। बड़ी-बड़ी कृषि जमींदारियों में 25 प्रतिशत महिलाएं काम करती थीं। शिक्षा और अन्य सरकारी महकमे में मात्र 4 फीसदी महिलाएं ही कार्यरत थीं। कल-कारखाने और अन्य निर्माण कार्यों में 13 प्रतिशत महिलाएं नियुक्त थीं।

समाजवादी सरकार के गठन के बाद सोवियत यूनियन के संविधान का जब निर्माण हुआ तो वहां आर्थिक, सांस्कृतिक सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के पुरुषों के बराबर अधिकार प्रदान किए गये। रोजगार, मजदूरी, आराम, अवसर, सामाजिक सुरक्षा और शिक्षा के क्षेत्र में पुरुषों के साथ बराबर मर्यादा, राष्ट्र की तरफ से मां और बच्चे की सुरक्षा प्रदान करना राष्ट्र की जिम्मेवारी तय की गई। बड़ी संख्या में शिशु-मातृसदन नर्सरी और किंडरगार्टन स्थापित किए गये। पुरुषों की तरह महिलाओं को भी वोट देने का अधिकार मिला। 1928 से 1937 तक दो पंचवर्षीय योजनाओं में सोवियत संघ में कार्यरत महिलाओं की संख्या 30 लाख से बढ़कर 90 लाख हो गई। महिलाओं के काम की प्रकृति में भी बड़े परिवर्तन हुए।

1936  में सोवियत यूनियन की कुल कार्यरत महिलाओं में से 39 प्रतिशत महिलाएं बड़े उद्योगों और अन्य निर्माण कार्यों में नियुक्त थीं। महिलाओं को  शिक्षा, चिकित्सा, कल-कारखानों, विज्ञान सहित अन्म कार्यों में भी लगाया गया था। तब लेनिनग्राद स्थित शोरोखद जूता कारखाने में 60 प्रतिशत महिलाएं कामगार थी। दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात क्रांति के बाद यह हुई कि वहां उत्पादन और सामाजिक क्रियाकलापों में संलग्न महिला कामगारों के लिए बड़े बदलाव किए गये। सोवायत संघ में ऐसे अनेक किंडरगार्टेन और नर्सरी स्थापित किए गये जहां महिलाएं काम पर जाते समय अपने बच्चों को रख  कर जा सकती थी। आंकड़ों के अनुसार 1937 में वहां ऐसे 18 लाख बच्चों के रखने की व्यवस्था थी। खेती सहित अन्य मौसमी सामूहिक फार्मों सब नर्सरी और किंडर गार्टेन में 1937 में 51 लाख बच्चों के रखने की व्यवस्था थी। सामूहिक रसोई और डिब्बाबंद भोजन की व्यवस्था ने गृह कार्य से भारी संख्या में महिलाओं को छुटकारा दिला दिया। वहां 30 हजार से अधिक जन खाद्य आपूर्ति संस्थाएं खोली गई। काम का समय घटाकर 7 घंटा प्रतिदिन निर्धारित किया गया । पुरुष और महिलाओं दोनों को समान काम के लिए समान वेतन की नीति लागू की गयी। जारशाही वाले रूस में ऐसा प्रावथान नहीं था। क्रांति से पहले जहां रेलवे में महिलाओं को बहाल करने पर प्रतिबंध था, क्रांति के बाद सोवियत संघ ने इसमें बदलाव किया। 400 स्टेशनमास्टर,1400 सहायक स्टेशन मास्टर, 10 हजार रेलवे इजीनियर और टेक्नोक्रैट महिलाएं थीं। आवश्यक सांगठनिक क्षमता रखने वाली किसी भी महिला को किसी भी सोवियत संस्था का मैनेजर बनने का अवसर दिया गया।

सोवियत संघ में महिला कामगारों की शारीरिक क्षमता पर पूरा ध्यान रखा गया। क्षमता से ज्यादा काम करने की सख्त मनाही थी। सोवियत कानून 18 वर्ष से कम उम्र के लडके-लडकियों को काम करने की इजाजत नहीं देता है। गर्भावस्था के छठे महीने से लेकर शिशु जन्म के बाद छ: महीने तक महिला कामगारों को उनकी शिफ्ट में काम करने की मनाही हो गई। सामान्य सालाना छुट्टियों के अलावा भी महिलाओं को संतान के जन्म के 35 दिन पहले से संतान जन्म के बाद 28 दिनों तक पूरे वेतन सहित छुट्टियों की व्यवस्ता की गई। स्तन पान कराने वाली कामगार महिलाओं को हर साढ़े तीन घंटे के अंतराल पर आधे घंटे की छुट्टी दी जाने लगीं। ताकि वह अपने बच्चे को दूध पिला सके। सोवियत यूनियन में कोई भी बच्चा नाजायज नहीं माना जाता है। सभी बच्चों को वहां समान अधिकार मिला हुआ है। वहां शादी का अर्थ होता है दो स्वतंत्र और समान अधिकार प्राप्त महिला-पुरुष का स्वेच्छा से मिलन। पति-पत्नी दोनों की सहमति के आधार पर या इसमें से किसी एक की मर्जी पर शादी तोड़ी जा सकती है लेकिन बच्चों की परिवरिश के लिए माता और पिता दोनों की जिम्मेवारी राष्ट्र तय करता है।

सोवियत यूनियन में वेश्यावृति का खात्मा हुआ

जार शासन के दौरान वेश्यावृति को कानूनी मान्यता मिली हुई थी। इसलिए वहां वेश्याओं की संख्या ज्यादा थी। क्रांति के बाद सोवियत यूनियन ने वेश्यावृति को समूल उखाड़ फेंका । यह काम वहां कानून बनाकर और फिर पुलिस फौज के सहारे नहीं किया गया। यह हुआ सोवियत महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा निश्चित कर और उनको पूर्ण स्वतंत्रता देकर। इस बारे में महान साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी जी लिखते हैं- ‘सोवियत संघ में स्त्रीत्व ने एक नये संसार में प्रवेश किया है। सोवियत नारियां पुरुषों के साथ एक नयी समता का उपयोग करती हैं। चाहे वे जिस किसी क्षेत्र में हों, अपना कीर्तिमान स्थापित करने में वे पुरुषों से पीछे नहीं हैं। यह मुक्ति उन्हें मुफ्त में नहीं मिली है। इसके लिए उन्हें बड़ा कठोर संघर्ष करना पड़ा था।युगों-युगों से रूस की स्त्रियां गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी हुईं थीं। ईसा की पवित्र वेदी को छुने तक का भी उनको अधिकार नहीं था। शादी के समय पुरुष सोने की अंगूठी के हकदार थे। स्त्रियों को लोहे की अंगूठी से ही संतोष करना पडता था। तब रूस के पोप ने फरमान जारी किया था- ‘औरतें मर्दों की व्यक्तिगत सम्पत्ति हैं।’ अगर कोई स्त्री अपने पति की बात नहीं मानती तो उसे कोड़े से पीटा जाए।

इतना उत्पीडन सहने के बाबजूद रूस की महिलाओं में मानवीय भावना मरने नहीं पायीं। जारशाही के विरुद्ध जब वहां की जनता में विद्रोह पैदा हुआ तो असंख्य पति परायण स्त्रियों ने घर छोड़, घर का वैभव-विलास और बच्चों का मोह त्याग कर साइबेरिया के संकटों को हंसते-हंसते झेला। जिस समय रुस में  गृह युद्ध जारी था,  वहां की महिलाओं ने अपने नाम सिपाही में लिखाए, घुड़सवारी की, मशीनगनें चलाईं। जब कार्निलोव अपनी फौज लिए लेनिनग्राद की ओर दौड़ा चला आ रहा था, दो लाख महिलाएं युद्ध के मोर्चे पर आ डटी थीं। यह था उनका त्याग, यह थी उनकी वीरता और उनका शौर्य ।


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।