अखिलेश्वर पांडेय
नये साल पर मुझे कई बधाई संदेश मिले, मैंने भी कई लोगों को ‘हैप्पी न्यू इयर’ का मैसेज भेजा। स्मार्टफोन आने के बाद किसी भी खास अवसर पर शुभकामनाएं देना अब बड़ा ही सहज काम हो गया है। चिट्ठी पत्री, ग्रीटिंग्स कार्ड और तो और फोन कॉल करने से भी छुटकारा। एक ही मैसेज सबको फॉरवर्ड करो और काम खत्म। स्मार्टफोन युग से पहले इतने लोगों को शायद ही कभी शुभकामनाएं भेजे जाने का चलन रहा हो! टेक्नोलॉजी ने हमें औपचारिक तो बनाया पर हमसे हमारी असली वाली फिलिंग्स छिन ली। कोई चित्र, विडियो क्लीप, कोई साधारण सा मैसेज, कोई ऑडियो क्लीप जो अमूनन कहीं से आया होता है उसे ही हम फॉरवर्ड करके अपनी औपचारिकता पूरी कर लेते हैं। पर कुछ सालों पहले तक ऐसा नहीं था। हम बाकायदा फोन कॉल करके शुभकामना देते थे, भले ही वह कुछ चुनिंदा लोग हों। अब किसी को कॉल करके ‘हैप्पी न्यू इयर’ बोलना अजीब लगता है, उसे कैसे लगेगा? यह सोचने के बजाय हम खुद ही इसे एक निकृष्ट कार्य मान कर इससे मुक्ति पा लेते हैं।
सामान्यत: मैं भी इसी का आदी हो गया हूं। सुबह का इंतजार कौन करे, 31 दिसंबर की रात 12 बजे से ही सभी को मैसेज करना शुरू कर दिया (सूची लंबी जो थी)। इस बीच कुछ नये लोगों के भी मैसेज आते रहे, उनको भी यथायोग्य जवाबी बधाई संदेश की प्रक्रिया चलती रही। शाम होते-होते मैं निश्चिंत हो चुका था कि चलो यह रस्म भी पूरी हो गई। तभी अचानक हरिवंश सर का फोन कॉल आया। हालांकि निजी तौर पर मेरे लिए यह खुश होने की बात थी पर मैं चौक गया। यह अनप्रीडेक्टिबल था। मेरे हेलो कहते ही दूसरी तरफ से ‘हैप्पी न्यू इयर अखिलेश’ सुनायी पड़ा। मैंने भी उन्हें नये वर्ष की बधाई दी। फिर सामान्य शिष्टाचार के तहत दूसरी बातें भी हुईं, पर यह पहली दफा था जब मैं उनसे बातचीत करते हुए खुद को असहज महसूस कर रहा था। मैं ग्लानि महसूस कर रहा था। मुझे लग रहा था कि किसी ने मेरी चोरी पकड़ ली हो। मैं कोई अपराध करते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया हूं!
इस बातचीत के कई घंटे हो चुके हैं पर अभी तक उनकी बातें मेरे कानों में गूंज रही है। ‘खुश रहो! अच्छा लगा, तुमसे बात करके।’ तब से यही सोच रहा हूं – काश! यह फोन उन्हें मैंने ही कर लिया होता। पर क्या मैं उतना ही सहज हो पाता, जितना वे थे? पीढ़ियों का अंतर कई बार हमें कई महत्वपूर्ण कामों से पीछे धकेल देता है। हम यंत्रवत खड़े रह जाते हैं और वक्त आगे निकल चुका होता है। क्या यह सच नहीं कि मैसेजिंग में वह फिलिंग्स नहीं जो लाइव बातचीत में है। पर यह फिलिंग्स पीढियों में उत्तरोत्तर कम होती जा रही है। आज के बच्चे मम्मी-डैडी से भी फोन कॉल के बजाय वाट्सएप, एसएमएस पर ही सहज होते हैं। घर से दूर रहने वाले बच्चे सुबह एक मैसेज मम्मी-डैडी को करके दिनभर की छुट्टी पा जाते हैं, पर बड़े-बुजुर्गों का मन तो बिना आवाज सुने भरता नहीं है।
सलाम है उनकी इन आदतों को। शायद हम नयी पीढ़ी को उनकी इन आदतों ने ही बचाया हुआ है। तभी तो हम अपने अभिभावकों को फोन करें न करें उनके फोन आने पर खुशी जरूर महसूस करते हैं। कभी-कभी अफसोस और ग्लानि भी कि कॉल हमने क्यों नहीं किया? इतनी भी फिलिंग्स बची रहे तो, बची रहेंगी पीढ़ियां, बचे रहेंगे रिश्ते, प्रेम, समाज और हम।