जीवन में हास्य बोध का अपना महत्व है, मगर जब हम गंभीर बातों पर भी चुटकुला बनाने लगें तो हमें अपने हास्य बोध पर पुनर्विचार करना चाहिए. संदर्भ 13 नवंबर 2017 का है, फिलीपींस की राजधानी मनीला के इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीच्यूट(इरी) में फावड़ा चलाते भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर सोशल मीडिया में वायरल हो गयी. कुछ लोगों ने इसे मोदी जी के जमीन से जुड़े होने का प्रमाण बता कर इसकी तारीफ शुरू कर दी तो कई लोग इसे नौटंकी बताकर उनका मजाक उड़ाना शुरू कर दिया. किसी ने इस बात की तह में जाने की कोशिश नहीं की कि वहां आखिर हो क्या रहा है? आप तस्वीर को गौर से देखें तो उनके साथ एक होस्ट भी हैं, जो खुद फावड़ा चला रहे हैं. एक वीडियो भी है, जो बताता है कि फावड़ा चला कर किसी कार्यक्रम की शुरुआत की जा रही थी.
खैर, मसला यह नहीं है. मेरे जैसे पत्रकार का इस मसले पर आहत होने का एक बड़ा कारण है. मैं इरी में हो रहे काम का महत्व आज से नहीं पिछले छह महीने से समझ रहा हूं. वहां जो हो रहा है, वह हमारे बाढ़ग्रस्त बिहार राज्य के लिए एक बड़ी उम्मीद की तरह है, इसलिए मैं चाह कर भी फावड़ा चलाते पीएम का मजाक नहीं उड़ा सकता. दरअसल उस रिसर्च इंस्टीच्यूट ने धान की ऐसी किस्में विकसित की है, जो 15-20 दिन की बाढ़ का मुकाबला कर सकती है और 15-20 के सूखे का भी. बिहार में इसका सफल परीक्षण भी हो चुका है. छह माह पहले मैं यह देखने बिहार के सीतामढ़ी के रुन्नीसैदपुर के कुछ गांवों में गया था. वहां के किसान दो-तीन सालों से धान की इस किस्म की खेती कर रहे थे. बागमती नदी के तटबंधों के बीच फंसे इस इलाके में जहां हर साल बाढ़ का आना तय है. इस स्थायी त्रासदी के बीच महज कुछ साल पहले तक किसान धान की खेती ही नहीं करते थे. क्योंकि उन्हें मालूम था कि जब फसल डूब ही जायेगी तो पैसे खर्च करके क्या फायदा. मगर तीन साल से उन लोगों ने धान बोने का हौसला दिखाया था.
इरी, पूसा एग्रीक्लचरल इंस्टीच्यूट और सीआरएस नामक संस्था के सहयोग से यह धान की खेती शुरू हुई थी, जो उस साल तक सफल थी. हालांकि लोगों ने यह भी बताया कि पिछले तीन सालों में बहुत विनाशकारी बाढ़ नहीं आयी थी. लिहाज धान की इस वेराइटी जिसका नाम स्वर्णा सब वन रखा गया था, की गुणवत्ता का असली परीक्षण नहीं हो पाया था. इसकी गुणवत्ता का परीक्षण अगस्त महीने में हुई जब पूरे उत्तर बिहार में पिछले कुछ दशकों की सबसे भीषण बाढ़ आयी. जिस तिलकताजपुर गांव में मैं गया था, वहां खेतों में दस फीट पानी तकरीबन दस से पंद्रह दिनों तक रहा. मगर इनकी धान की फसल 80 फीसदी सुरक्षित रह गयी. जाहिर सी बात है कि यह लोगों के लिए बहुत बड़ा चमत्कार था.
बिहार जैसे राज्य में जहां हर साल औसतन छह लाख हेक्टेयर जमीन में खड़ी खरीफ की फसल डूब कर बर्बाद हो जाती है, वहां इस बीज का महत्व सहज ही समझा जा सकता है. अगर नुकसान 50 फीसदी भी कम हो जाये तो लाभ कितना बड़ा हो सकता है, यह समझा जा सकता है. और यह इरी जैसे संस्थान में काम करने वाले वैज्ञानिकों का कमाल है. ऐसे काम पर कैसे कोई हंस सकता है, भले ही वहां उद्घाटन के नाम पर थोड़ी नौटंकी हो. जाहिर सी बात है कि कृषि संस्थानों में उद्घाटन फावड़ा चला कर ही हो सकता है.
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।