नमस्ते, कल्पितजी !
मैं नीलाभ मिश्र हूँ, पटना से आया हूँ ।
नवें दशक का कोई शुरुआती वर्ष था, जब नीलाभ मिश्र मुझसे मिलने अशोक-मार्ग के घर आये थे। नवभारत टाइम्स का पटना संस्करण बन्द हो चुका था, जहाँ नीलाभ काम करते थे। अब नीलाभ मिश्र हैदराबाद से प्रकाशित एक अंग्रेज़ी अख़बार के राजस्थान संवाददाता बनकर जयपुर आये थे।
तब नीलाभ मिश्र युवा थे, मुझसे तीन बरस छोटे। यह हमारी मित्रता की शुरुआत थी। उन्होंने बताया कि पटना में आलोक धन्वा ने कहा था कि जयपुर जाओ तो कृष्ण कल्पित से ज़रूर मिलना।
कुछ ही दिन में नीलाभ जयपुर में जम गये। प्रायः हर-रोज़ ही मुलाक़ातें होने लगीं। कॉफी-हाउस में, प्रेस-क्लब में और अधिकतर कवि-पत्रकार संजीव मिश्र (अब दिवंगत) के राजस्थान विश्वविद्यालय के सामने के एक घर के ऑउट-हाउस में। संजीव मिश्र के उस किराये के घर में महफ़िलें जमने लगीं। संजीव मिश्र, अशोक शास्त्री (भी दिवंगत), अंजू, सीमन्तिनी, अजन्ता और कविता श्रीवास्तव इत्यादि। बाद में नीलाभ की गहरी दोस्ती कविता श्रीवास्तव से हुई जो अभी कल तक चलती आती थी। शायद कविता श्रीवास्तव के कारण ही नीलाभ अरुणा रॉय , PUCL और राजस्थान के जन-आंदोलनों से जुड़े। अब वे पत्रकार से अधिक एक्टिविस्ट नज़र आने लगे थे। बाद में वे दिल्ली चले गये लेकिन राजस्थान से जुड़े रहे।
नीलाभ का हिंदी और अंग्रेज़ी पर समान अधिकार था। मैथिल ब्राह्मण होने के नाते संस्कृत पर भी उनका सहज अधिकार था। साहित्य से उनका गहरा नाता था और वे खाने-पीने के शौक़ीन थे। वे अध्यवसायी थे और यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि कुछ ही बरसों में वे राजस्थान की राजनीति, समाज, इतिहास, भूगोल में पारंगत हो गये थे। वे पत्रकारिता को नौकरी नहीं, परिवर्तन का हथियार मानते थे और अंतिम समय तक अपने प्रगतिशील विचारों पर अडिग रहे।
जब मेरा तबादला पटना हुआ तो नीलाभ ने कहा – पटना जा रहे हो ? तब मैंने कहा था कि पटना से एक आदमी कम हो गया तो मैं उसकी भरपाई करने जा रहा हूँ। यह सुनकर नीलाभ ज़ोर से हँसे थे।
बाद में जब मैं दिल्ली पहुँचा तो गाहे-बगाहे मुलाक़ात होती रही। साहित्यिक-समारोहों में और शाम को प्रेस-क्लब में। वे अधिकतर प्रेस-क्लब के अहाते में बैठते थे। अचानक उनके आस-पास पत्रकारों का जमावड़ा बढ़ने लगा तो पता चला कि उन्होंने आउटलुक छोड़ दिया है और अब वे नेशनल हेराल्ड, नवजीवन और क़ौमी आवाज़ के ग्रुप एडिटर बन गये हैं।
जब मैं पिछले वर्ष दूरदर्शन से मुक्त हुआ तो नीलाभ ने कहा – अब क्या इरादा है। मैंने कहा – इरादा नेक है। इस पर नीलाभ कहने लगे – पत्रकारिता को लाभान्वित कीजिये तो मैंने उत्तर दिया – बची-खुची ज़िन्दगी पत्रकारिता में नहीं, कहीं और बर्बाद करना चाहता हूँ। सुनकर नीलाभ अपनी चिर-परिचित हँसी हँसने लगे।
नीलाभ मिश्र की अपनी घरेलू परेशानियों का मुझे पता था। उनकी बीमारी की भी (नॉन अल्कोहलिक लिवर सिरोसिस !) मुझे ख़बर थी, लेकिन नीलाभ मिश्र इतनी ज़ल्दी चला जायेगा – यह ख़बर किसी को नहीं थी ।
एक प्रतिबद्ध पत्रकार, कल्पनाशील सम्पादक और एक प्यारे इंसान का जाना बहुत तक़लीफ़देह है !