पशुपति शर्मा
दिल्ली के एनएसडी प्रांगण का अभिमंच सभागार शनिवार, 6 अगस्त की शाम हमारी लोक परंपराओं में से एक नौटंकी के रंगों से सराबोर नज़र आया। नगाड़े की धमक के बीच कलाकारों के अभिनय का सहज प्रवाह था। नौटंकी की परंपरागत झलक और किस्सागोई का सिलसिला साथ-साथ चल रहा था।
नाटक ‘तमाशा -ए- नौटंकी’ का आलेख मोहन जोशी का था, जिसमें उन्होंने कलाकारों की निजी जिंदगी के कुछ रंग समेटते हुए नाटक का ताना-बाना बुना है। नौटंकी के कलाकारों की निष्ठा कैसे वक्त के साथ बदलती है, ये इस नाटक में दिखलाया गया है। दरअसल, जैसे-जैसे मनोरंजन के आधुनिक साधन बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे नौटंकी जैसी कलाओं के लिए अपना वजूद कायम रख पाना मुश्किल हो जाता है। आर्थिक तंगी की वजह से कलाकारों में भी भटकाव आता है और नौटंकी का स्तर भी गिरता जाता है। व्यवसायिकता के दबाव में नौटंकी का मनोरंजन भौंडी शक्ल अख़्तियार कर लेता है। एक तरफ नौटंकी की मूल परंपरा है और दूसरी ओर नौटंकी के नाम पर ‘तमाशा’।
नाटक का अंत एक सकारात्मक नोट पर होता है, जहां कला के भूखे कलाकार वापस बाईजी के पास लौट आते हैं लेकिन तब तक नौटंकी का काफी नुकसान हो चुका होता है। नौटंकी की इस यात्रा को स्नेहा, शिव प्रसाद गौड़ मंच पर बखूबी प्रदर्शित कर जाते हैं। स्नेहा ने बड़ी खूबसूरती से नौटंकी के अलग-अलग फेज को अपनी अदाकारी के जरिए उभारा है। वो नौटंकी करते हुए जितनी सहज दिखती हैं, नौटंकी के नाम पर हो रहे तमाशे में भी उतनी ही सहजता से ठुमके लगाती हैं। शिव प्रसाद गौड़ भी हर दृश्य में अपने अभिनय से दर्शकों का ध्यान खींचते हैं। वो चाहे कंधे मचका कर नौटंकी का नाच हो या फिर फुलपैंट और छींटदार बुशर्ट में नौटंकी का भौंडापन सबकुछ साफगोई से बयां होता है।
कलाकारों में अनिरुद्ध, संगीता, देबारती मजूमदार और जॉय भी प्रभावी रहे हैं। नौटंकी के अभिनेता की चाल-ढाल और उसकी अदाकारी में अनिरुद्ध बेहतर दिखे हैं। बाईजी की भूमिका में संगीता ने नौटंकी को लेकर अपनी तड़प कायम रखी है तो वहीं जॉय ने ‘नौटंकी के खलनायक’ के रूप में अपने चरित्र का ठीक-ठीक निर्वाह किया है। पहले दृश्य की ‘पेंटफाड़ू’ ठिठोली से लेकर आख़िरी सीन के चालाक ‘सौदेबाज’ तक उनके कैरेक्टर के कई रंग दिखते हैं। शायर सरदार की भूमिका में मोहन जोशी के हिस्से कई गंभीर संवाद हैं। हिंदी-उर्दू की एकता से लेकर गंगा-यमुना में बहती मजहबी एकता की धारा तक सब कुछ इस किरदार के जरिए बयां करने की कोशिश है।
नाटक के आख़िरी दृश्य में संगीत निर्देशक पंडित रामकुमार शर्मा की एंट्री जानदार है। हॉल में बैठे दर्शकों की सीटियां और तालियां लगातार नौटंकी के रोमांच को बढ़ा रहीं थीं। देश के अलग-अलग हिस्सों से आए कलाकारों के साथ नाटक की निर्देशक साजिदा ने जितने कम समय ये नाटक तैयार किया वो वाकई काबिले तारीफ है। मणिपुर की संस्था TREASURE ART ASSOCIATION की ओर की गई नाटक की पहली प्रस्तुति ही बेहद मनोरंजक और कामयाब रही है।
पशुपति शर्मा ।बिहार के पूर्णिया जिले के निवासी हैं। नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से संचार की पढ़ाई। जेएनयू दिल्ली से हिंदी में एमए और एमफिल। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। उनसे 8826972867 पर संपर्क किया जा सकता है।
मुझे नाटक का concept और purpse दोनों ही बहुत अच्छे लगे । हालांकि तमाशा तो भला क्या बनेगी नौटंकी, बेचारी का वजूद ही खत्म होता लग रहा है । इसलिये शीर्षक बड़ा सटीक और अद्भुत लगा जो बहुत कुछ कह गया । अफ़सोस मैं नाटक देख न सका। खबर भी नहीं लगी और शायद मैं शहर में भी नहीं था ! लेकिन मुझे पढ़ और जान कर खुशी हुई !! कोई और शो हो तो खबर दें बहुत बहुत मुबारक और धन्य वाद !!!
नाटक का concept और purpse दोनों बहुत अच्छे लगे । तमाशा तो क्या बनेगी नौटंकी, बेचारी का वजूद ही खत्म होता लग रहा है । शीर्षक सटीक और अद्भुत । अफ़सोस मैं देख न सका। खबर नहीं लगी शायद मैं शहर में नहीं था ! पढ़ और जान कर खुशी हुई !! और शो हो तो खबर दें । मुबारक और धन्य वाद !!!
अद्भुत !!