मैगसेसे और स्कॉटहोम वाटर जैसे पुरस्कारों से नवाजे गए जल वैज्ञानिक राजेन्द्र सिंह का कहना है कि केंद्र की मोदी सरकार जनता के पानी को कंपनियों को देने की तैयारी कर चुकी है। इसके लिए 15 दिन पहले कागजी कार्रवाई पूरी हो चुकी है। सात विदेशी कंपनियों ने पानी के व्यवसाय का खाका खींच लिया है। यहां तक कि तालाब, कुंए, बावड़ियों का पानी भी सुरक्षित नहीं। पेश है पानी के निजीकरण, सूखे के कारण और नदियों के पुनर्जीवन पर राजेंद्र सिंह से शिरीष खरे की बातचीत के अंश
सवाल: जल-संकट और पानी के निजीकरण के बीच मौजूदा केंद्र सरकार की जल-नीति को कैसे देखते हैं?
राजेंद्र सिंह-अभी तक पानी सबका था, लेकिन मोदी सरकार देशभर के पानी को केंद्र के अधीन करके निजी कंपनियों के हाथों में सौपने का प्रस्ताव बना चुकी है। नदियों को सूखा बताकर यह पूरी साजिश रची गई है। इस कार्यवाही में पानी का पहले सरकारीकरण और फिर उसकी आड़ में निजीकरण कराया जाएगा। सात बड़ी विदेशी कंपनियां देश के 80 प्रतिशत पानी पर कब्जा करना चाहती है। बीते साल पानी व्यापार क्षेत्र में 58 हजार करोड़ का व्यापार हुआ। यह जानकर हैरत होगी कि एक सरकारी आदेश में कहा जा चुका है कि स्थानीय निकाय यदि जल-संरचनाओं का रख-रखाव नहीं कर पा रही हैं तो इन्हें निजी हाथों को सौंप दिया जाए।
सवाल: छत्तीसगढ़ में महानदी जैसी नदियों पर ऊर्जा संयंत्र परियोजनाओं के लिए बड़े-बड़े बांध बनाने से क्या राज्य का जल-प्रबंधन प्रभावित होगा?
राजेंद्र सिंह-बिल्कुल, इससे पानी का गलत इस्तेमाल भी बढ़ेगा। बड़े बांधों से नदियों का प्रवाह प्रभावित होता है और यह डूब और विस्थापन जैसी समस्याओं के अलावा कई दूसरी आफतों को जन्म देता है। जैसे छत्तीसगढ़ सहित 13 राज्यों में जो सूखा आया है वह नदियों के पानी के साथ छेड़छाड़ का नतीजा भी है। महाराष्ट्र जैसा राज्य जहां सबसे ज्यादा बांध बनाए गए हैं, आज सबसे ज्यादा सूखे की चपेट में है। दरअसल, सरकार ने नदियों का प्रवाह खत्म कर दिया है। इसलिए सरकार को भी इस दुष्काल से सबक लेते हुए नदी के जीवन के अधिकार के बारे में सोचना चाहिए।
सवाल: छत्तीसगढ़ की नदियों को प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए किस दृष्टिकोण का पालन सबसे जरूरी है?
राजेंद्र सिंह-हर राज्य की सरकार के मन में पानी के बदले पैसा कमाने का रोग लग गया है। इसलिए लोगों के पानी को प्रदूषित करना, उन्हें बीमार करना उद्योगों का काम हो गया है। इसके चलते भी पानी का संकट पैदा हुआ है। इसे रोकने के लिए हर नदी और गंदे नाले दोनों के प्रवाहों को अलग-अलग करना जरूरी है। राजधानी रायपुर में बहने वाली खारुन नदी तक का यही हाल है, जबकि खारुन जैसी नदियों को बचाना बहुत आसान है।
सवाल: बीते दिनों अरपा सहित कई नदियों पर कब्जे के प्रकरण भी सामने आए, इन पर लगाम कैसे लगाई जा सकती है?
राजेंद्र सिंह–यहां जितनी भी जल-संरचनाएं हैं, उनकी भूमि का चिन्हाकन और सीमांकन करना होगा। राज्य सरकार सरकारी अध्यादेश जारी कर कलक्टर को तीन महीने के भीतर इस काम को पूरा करने का निर्देश दे। दूसरा, जल योजनाओं का सारा काम ठेकेदारों को दे दिया गया है। उनके इंजीनियर कंपनियों को अधिकतम फायदा पहुंचाने के लिए विस्तृत परियोजना रिपोर्ट बना रहे हैं, जबकि ऐसे कामों को सामुदायिक विकेन्द्रकरण के मॉडल पर पूरा किया जाना चाहिए।
सवाल: सूखे को ध्यान में रखते हुए यदि छत्तीसगढ़ की कृषि-नीति बनाने की सोचें, तो इसमें किन बातों का ध्यान रखेंगे?
राजेंद्र सिंह–छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों की कृषि-नीति इस इलाके के फसल-चक्र के हिसाब से नहीं बनी हैं, कितने भी बांध बना ले, फसल बचाना मुश्किल है। छत्तीसगढ़ को फसल और मानसून-चक्र के बीच संबंधों को स्थापित करने वाली कृषि-नीति चाहिए। सरकार यहां के कृषि विश्वविद्यालय को इस बात के लिए पाबंद करें कि वे पारिस्थितिकी जलवायु और विविधता का सम्मान करते हुए बताएं कि किस क्षेत्र में कौन-सी फसल उगाएं या किस क्षेत्र में कौन-सी फसल न उगाएं। यह काम कृषि विभाग, मौसम विभाग और अनुभवी किसानों के साथ बैठकर तय कर सकते हैं।
सवाल: 15 साल पहले आप छत्तीसगढ़ आए थे. तब से अब तक यह आदिवासी बहुल राज्य कितना पानीदार बचा है?
राजेंद्र सिंह–बीते 15 वर्षों में यहां की कई नदियां सूख गईं। यह ऐसा कालचक्र है, जिसमें राज्य चलाने वालों की आंखों का पानी सूख गया है और नेता ठेकेदारों को आगे करके मुनाफा कमाने में लग गए हैं। बिलासपुर शहर के पास अरपा नदी से खेतों में रेत उड़कर आने लगी है। वहां से नया रेगिस्तान शुरू हो रहा है। प्रदेश में जल, जंगल और जमीन का क्षेत्र घट रहा है और यहां का पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित हो गया है। ऐसी परिस्थिति में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को चाहिए कि वे नदियों के अधिकार ठेकेदारों की बजाय लोगों के हाथों में सौंपें।
सवाल: राज्य सरकारों को आप अपना पानी बचाने के क्या उपाय सुझाएंगे?
राजेंद्र सिंह–सबसे पहले तो भूजल भंडारण, प्रदूषण, हरियाली, मिट्टी के कटाव, नदी में गाद जमाव और जल-प्रवाह जैसी बातों से जुड़ी जानकारियों के लिए ‘जल साक्षरता केंद्र’ बनाए जाएं। नदियों के अलावा तालाबों पर अब कंपनियों की नजर है तो इसके लिए सामुदायिक विकेन्द्रकरण का मॉडल तैयार किया जाए। नदी, तालाबों पर कब्जा रोकने के लिए उनकी जमीन को चिन्हित करके सीमांकन किया जाए। नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए कानून बनाया जाए। यह कानून पंचायत स्तर पर भी बनाए और लागू किए जा सकते हैं।
कहां रहा पानी सबका ?मरनासन्न पूंजीवाद ने अपने लिए संजीवनी की तलाश में जल ,जंगल और जमीन सबको लील लिया ।मध्य प्रदेश ,राजस्थान ही क्यो , हम नदियों कू प्रदेश बिहार की ही यदि बात करें तो यहां भी स्थति कुछ अलग नही ।गांव मे रहता हूं।40साल पहले प्राय:हर टोले और सम्पन्न लोगों के दरवाजे पर कुआं था ।सब लैग कुआं का पानी ही पीते थे ।बादद में चापाकल आया ।अधिकतम गहराई 100फीट वाला ।हरितक्रांति के दौड में हमने अंधाधुंंध उरवर्कों ,कीटनाशकों एवं अन्य रसायनो का इस्तेमाल शुरू किया ।भूगर्भ जलस्तर प्रदुषित होने लगा ।और भी कयी कारण रहे इस जल प्रदुषण के ।निर्वाध औद्योगीकरण ने जलस्रोतों को बर्वाद किया।एक समस्या के समाधान के लिए अनेक समस्यायें पैदा होने लगी।अब हमारे गांव मे चापाकल वाले पानी मे कयी हानिकारक तत्व पाए जाने लगे हैं।गांव में प्रतिदिन सुबह छोटे -बडे वाहनो से कथित आर ओ का पानी बिकने लगा है ।अधिकांश लोग इसके नियमित ग्राहक हैं ।20लीटर का जार दाम 20 रुपया ।पता नही यह कितना शुद्ध होगा ?भाई अब वह दिन भी दूर नही जब सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा भी बिकने लगे ।यही तो पूंजीवाद का स्पेशल फीचर है ।हरचीज बिकाऊ है ।धन-दौलत ,मान-सम्मान, इज्जत-अस्मत और मनुष्य का जीवन भी ।