खामोशियां… मनमोहन से मोदी तलक

खामोशियां… मनमोहन से मोदी तलक

रविकिशोर श्रीवास्तव

हज़ार जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी…अगस्त 2012 का वो वक्त… जब तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह संसद परिसर में मीडिया से मुखातिब हुए… तो टूजी स्पैक्ट्रेम, कोलगेट जैसे मुद्दों के सवालों पर उनके जवाब का इंतज़ार था लेकिन तब डॉ मनमोहन सिंह ने शायराना अंदाज़ में सवालों को टालने की कोशिश की या यूं कहें किनारा करने का दांव चला। हालांकि मीडिया में डॉ मनमोहन सिंह की खामोशी के कई मतलब गढ़े गए और बीजेपी सहित तमाम विरोधी दलों ने दागियों को बचाने के लिए इसे मौन स्वीकृति बताया।

इसके बाद बीजेपी ने डॉ मनमोहन सिंह की खामोशी को बड़ा सियासी हथियार बनाया और कांग्रेस के खिलाफ आजमाना शुरू कर दिया। तब गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी दिल्ली दरबार में दस्तक देने की तैयारी कर रहे थे। जिनकी भाषण शैली राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा और सुर्खियों का सबब रही, और है। बीजेपी इस नारे को बुलंद करती रही कि 2014 में देश को बोलने वाला पीएम मिला यानी नरेन्द्र मोदी। चाहे कोई मंच हो या रैली पीएम मोदी और डॉ मनमोहन सिंह के बीच तुलना करें तो मोदी ज्यादा आगे नज़र आते हैं। मन की बात हो या फिर नमो ऐप जनता से बातचीत की कड़ियां जोड़ी और वो लगातार जनता के बीच अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहे।

खैर 2014 के बाद अब पड़ाव 2019 की ओर बढ़ चला है। वक्त की कसौटी में परखा जाए कि क्या वाकई देश को बोलने वाला पीएम मिला है या नहीं। मुद्दों के अंदर झांककर देखेंगे तो मिलेगा कि जब देश जटिल मुद्दों में उलझा हो तो पीएम मोदी भी खामोशी की चादर ओढ़ लेते हैं। कह सकते हैं कि उनके सिपहसालार तो बयान देते नज़र आते हैं लेकिन बात जब पीएम मोदी की ओर हो तो शोर कम ही सुनाई देता है या बिल्कुल नहीं। दलित आंदोलन और उसके ईर्द गिर्द हिंसा का मुद्दा यही कहता है।

20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट में बड़ा बदलाव कर दिया। फौरन गिरफ्तारी वाले क्लॉज में फेरबदल कर जांच के बाद गिरफ्तारी और अग्रिम जमानत का प्रावधान शामिल किया गया। इसको लेकर दिल्ली से दक्षिण तक सियासत में भूचाल आ गया। विपक्षी दलों को बड़ा मुद्दा हाथ लग गया तो एनडीए के घटक दल, जिसमें केन्द्रीय मंत्री राम विलास पासवान की पार्टी एलजेपी और केन्द्रीय मंत्री रामदास अठावले की आरपीआई ने इशारों-इशारों में अपनी आपत्ति दर्ज कराई और पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की मांग रख दी। शोर बीजेपी के अंदर से भी था लेकिन सतह पर आने से पार्टी बचाती रही। कुल मिलाकर 20 मार्च को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद केन्द्र सरकार हरकत में तो थी। लेकिन सवालों का अंबार भी सत्ता की दहलीज पर दस्तक दे रहा था क्योंकि संसद और राज्यों में बीजेपी की ताकत और आरक्षण के खिलाफ माहौल दलित समाज में सस्पेंस पैदा कर रहा था और इसी में जन्म हुआ भारत बंद का।

2 अप्रैल को केन्द्र सरकार रिव्यू याचिका लेकर सुप्रीम कोर्ट गई। केन्द्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद मीडिया से मुखातिब हुए और भरोसा दिलाया कि दलितों के हक-हुकूक को बनाये रखने के लिए केन्द्र सरकार मुस्तैद है, पर सवाल पीएम मोदी की चुप्पी का था। 20 मार्च से लेकर 2 अप्रैल के बीच पीएम मोदी की तरफ से इस मामले में एक शब्द न आना, सड़क से संसद तक माहौल को गरमा गया। नतीजा ये हुआ कि उत्तर भारत में कोहराम मच गया। माना जाता है कि अगर पीएम मोदी जो सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं, जिनके मन की बात देश गंभीरता से सुनता है, वो एक बार इस मामले में सरकार का पक्ष रखते तो शायद इससे मजबूत संदेश जाता और तस्वीर अलहदा रहती। इसकी मांग दलित समाज के चिंतक करते रहे।

ये तो रही दलित आंदोलन की बात लेकिन पिछले 4 साल के ट्रैक रिकॉर्ड को देखें तो पीएम मोदी सीधे तौर उन मुद्दों से बचते रहे, जिसका सीधा वास्ता सरकार से जुड़ा है। इन चार साल में चुंनिदा न्यूज़ चैनल को दिए गए इंटरव्यू को छोड़ दें तो पीएम मोदी ने एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की। सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री को लेकर ये सवाल असहज कर देने वाला है। उनके जवाब में डॉ मनमोहन सिंह ने 2009 से 2014 के बीच दो बड़ी प्रेस कॉन्फ्रेंस ( एक विज्ञान भवन और दूसरा प्रधानमंत्री निवास) में की।

विदेश दौरे पर विशेष विमान में डॉ मनमोहन सिंह मीडिया से बातचीत करते थे। ये सिलसिला पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से पहले से चला आ रहा है, जो परंपरा  पीएम मोदी के दौरे में टूटती नज़र आ रही है। मोदी ने प्रधानमंत्री के प्रेस सलाहकार रखने के रिवाज को भी समाप्त कर दिया। ये सलाहकार मीडिया का व्यक्ति हुआ करता था। इससे पहले सभी प्रधानमंत्रियों ने किसी वरिष्ठ पत्रकार या किसी अधिकारी को प्रेस सलाहकार के तौर पर नियुक्त किया था। इतना ज़रूर है कि बीजेपी मुख्यालय में दीवाली और फिर होली मिलन पर पीएम मोदी देश की मीडिया से मिलते हैं लेकिन इसे आप प्रेस कॉन्फ्रेंस तो कतई नहीं कह सकते।

सशक्त लोकतंत्र में प्रेस कॉन्फ्रेंस की अहमियत ज्यादा रहती है और प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति से उम्मीद की जाती है कि वो सवालों को तरजीह दें, उनकी उपेक्षा न करें। पीएम मोदी ने एक परंपरा मन की बात से ज़रूर शुरू की लेकिन इसमें वो मुद्दे गायब रहे जिस पर पीएम मोदी का पक्ष या कहें नज़रिये का इंतज़ार था, जैसे सीबीएसई पेपर लीक। एग्ज़ाम शुरू होने से पहले पीएम मोदी की किताब आई, बच्चों को एग्जाम टिप्स मिले और टाउन हॉल के जरिए पीएम मोदी ने बच्चों के बीच मन की बात की थी लेकिन एग्ज़ाम के वक्त पेपर लीक का बवंडर उठा और करीब 22 लाख छात्रोंं की किस्मत दांव पर लग गई।

पेपर लीक कैसे हुआ, जिस एग्ज़ाम को लेकर पीएम मोदी सक्रिय रहे उसमें सिस्टम की इतनी बड़ी चूक कैसे हो गई। तमाम सवाल हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर बार-बार मीडिया से मुखातिब होकर सफाई देते रहे। तमाम आला अफसर सिस्टम में गड़बड़ी को लेकर एक पैर पर खड़े नज़र आए। बावजूद इसके इतने बड़े मामले में पीएम मोदी का एक ट्वीट न आना, छात्रों को अखर गया। दोबारा एग्ज़ाम से खफा तमाम छात्र जंतर मंतर पर पहुंच गए।

ऐसे ही ऊहापोह के हालात तब बने जब दिल्ली में स्मॉग का कहर बढ़ा। नवंबर-दिसंबर में जब देश की राजधानी में PM 2.5 और PM10 का लेवल खतरनाक स्तर पर चला गया था और दिल्ली में श्रीलंका की क्रिकेट टीम मास्क पहनकर खेल रही थी। उस वक्त दिल्ली को इंतज़ार था कि सरकारें क्या कर रही हैं, इस पर पीएम मोदी कुछ बताएं। आप कह सकते हैं कि संघीय व्यवस्था में हर मुद्दे पर पीएम का बोलना ठीक नहीं लेकिन पीएम मोदी से देश की अपेक्षाएं ज्यादा हैं। मसला सिर्फ दिल्ली का नहीं बल्कि हरियाणा, पंजाब, यूपी के राज्यों से है, लिहाजा उनकी राय मायने रखती है। जिस तरह नोटबंदी के ऐलान से लेकर जीएसटी की लॉन्चिंग तक पीएम मोदी के पैगाम से देश की उम्मीदें बंधी, ठीक उसी तरह ज्वलंत मुद्दों पर उनके पक्ष का इंतज़ार देश करता है।


रविकिशोर श्रीवास्तव। इलेक्ट्रानिक मीडिया में पिछले 7-8 सालों से सक्रिय। उत्तर प्रदेश के बलरामपुर के निवासी। संप्रति दिल्ली में निवास। सियासी और सामाजिक हलचल पर पैनी नज़र। दुनिया को समझने और खुद को परखने की ललक बरकरार।

3 thoughts on “खामोशियां… मनमोहन से मोदी तलक

  1. सियासत कोरह अच्छी तरह पता होता हैकि कहां बोलने से और कहा चुप रहने से सत्ता का सुख नैसर्गिक बन जाता है। लेकिन याद रहे इसका परिणाम भी बडा घातक होता है।

  2. Netaon ka maun rahna ek baat hai…logon ka maun rahna dusri baat..kaash ki ye desh bole…baar baar bole…aur itna bole ki ewan hil jayen..koynki jab hum bole hain badlaav tabhi hua hai.

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