अब वो नहीं देंगे थपकी…

अब वो नहीं देंगे थपकी…

कुछ लोग इतने अलहदा होते हैं कि उनके न होने की कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मगर ऐसे लोग हमेशा वक़्त से पहले चले जाते हैं। गुरुवार सुबह ऐसी ही खबर लेकर आई जिसने अब तक मन को थिर नहीं होने दिया है। बार-बार ऐसा लगता है कि अभी चुपके से पीछे आएंगे और कंधे पर हलकी थपकी देंगे- नाटकीय अंदाज में मुस्कुराते हुए पूछेंगे, कि क्यों पुष्य कैसे हो? फिर अपने ही अंदाज में बताने लगेंगे कि जानते हो पुष्य, आजकल वैशाली में क्या हो रहा है? फिर वे बहुत बारीक किस्म की कोई गड़बड़ी का उल्लेख करेंगे और कहेंगे, हमलोगों को इस बारे में कुछ करना चाहिये। मगर वे अब नहीं हैं। कल रात ब्रेन हेमरेज ने हमें उनसे छीन लिया।हरेंद्र नारायण जी का जाना उन तमाम लोगों के लिये व्यक्तिगत सदमा है, जो उनसे जुड़े थे।

फाइल फोटो- बाएं तरफ हरेंद्र नारायण

उनके विस्तृत अध्ययन, उनकी आसपास की चीजों को समझने की बारीक पकड़, किसी भी विषय पर ऊबा देने की हद तक बोलने की उनकी क्षमता, उनके चुटीले व्यंग्य और अपने व्यंग्य पर खुद बिल्कुल अपनी तरफ से हंसना। एक ऐसे व्यक्ति जिनके साथ होने को आप अपनी तरह इंजॉय कर सकते हैं। आप थोड़ा उन्हें छेड़ भी सकते हैं। और जरूरत पड़ने पर कुछ गंभीर बहस भी कर सकते हैं। मगर यह तो व्यक्तिगत है। आज उनके जाने की खबर को अपने अंदर पूरी तरफ जज्ब करने के बाद, उस सदमे से उबर कर उनके बारे में कुछ ऐसा लिखना चाहता हूँ कि जिससे उनका व्यक्तित्व थोड़ा सार्वजनिक हो सके।मेरे माखनलाल पत्रकारिता विवि में मेरे सीनियर थे। इस लिहाज से कि जब मैं ग्रेजुएशन कोर्स में था तो वे पीजी कोर्स में थे। हमलोगों ने एक साल एडमिशन लिया था, लिहाजा हमदोनों भोपाल और विवि दोनों के लिहाज से एक ही तरह के अजनबी थी। रहने के लिये जिस अपार्टमेंट में हमने फ्लैट किराए पर लिया था, वे भी उसी अपार्टमेंट के ग्राउंड फ्लोर पर एक फ्लैट में शिफ्ट हो गए थे। अपने फ्लैट के दरवाजे पर उन्होंने खास तौर पर लिखा था- वैचारिक क्रांति में सहभागी बनने के आपका स्वागत है। मतलब यह कि किसी भी विषय में बहस करने के लिये आप कभी भी उनके फ्लैट का दरवाजा खटखटा सकते। लगभग हर विषय पर वे सूचनाओं का खजाना अपने दिमाग में रखते थे। हम सब उन्हें चलता फिरता एनसाइक्लोपीडिया कहते थे। वे घनघोर पढ़ाकू थे। कई पत्रिकाएं और अखबार रोज पढ़ते थे और उनकी कटिंग काट कर फ़ाइल बनाते थे। यह काम वे इतनी तल्लीनता से करते थे कि दिन का आधा वक़्त उनका इसी काम में बीत जाता था।

वे सुधीश पचौरी के खासे प्रशंसक थे। और जहां तक मेरी जानकारी है कि उनके पास हिंदुस्तान अखबार में छपी अब तक की उनकी तमाम टिप्पणियों की कटिंग होगी। पढ़ने के मामले में वे कोई पसंद नापसंद का ख्याल नहीं करते। जितनी तल्लीनता से frontline पढ़ने उतनी ही गंभीरता से सरल सरल का भी पाठ करते। महिलाओं की पत्रिकाएं भी वे उस जमाने में नियमित पढ़ा करते थे।पढ़ने के अलावा उनका दूसरा शौक था, बातें करना। वे किसी से भी किसी विषय पर घंटों बतिया सकते थे। लगातार। अक्सर लोग उनसे इस वजह से ऊब भी जाते। मगर इसके बावजूद उनसे दूर रह पाना आसान नहीं था। इसलिए वैचारिक क्रांति वाले उनके कक्ष में लोग अक्सर पाए जाते। उनका शरीर कुछ ऐसा था कि वे उम्रदराज लगते थे, बोलने का लहज़ा भी इस बात की ही पुष्टि करता था। इसको लेकर एक बड़ा दिलचस्प वाकया हुआ, जब एक छात्रा के पिता ने उन्हें मेरा अभिभावक समझ लिया। इसके बाद वे झेंप भी गए। मगर यह सब चलता रहता था। वे इन बातों से कभी दुखी नहीं होते। अपने घनघोर अध्ययन, फिजिकल गेटअप और बोलने के तौर तरीके के बावजूद वे गंभीर व्यक्ति बिल्कुल नहीं थे। वे हंसते, हंसाते रहने वाले व्यक्ति थे। हम सब जूनियर होने की वजह से उनके अजीबोगरीब शौक के लिये उन्हें छेड़ते मगर वे कभी बुरा नहीं मानते। मैंने उन्हें बहुत कम उदास देखा था। उन्हे देख कर मुझे हमेशा लगता था कि वे परती परिकथा के भिम्मल मामा हैं।

जब हम पढ़ रहे थे तब मुझे लगता था कि वे जरूर किसी बड़े अखबार या टीवी चैनल में अच्छे पद पर नौकरी कर लेंगे। मगर उन्होंने मीडिया की नौकरी का रास्ता चुना ही नहीं। वे शायद किसी भी किस्म की नौकरी के लिये नहीं बने थे। अगर उनकी जिंदगी में खाने पीने और किताबों, पत्र-पत्रिकाओं को खरीदने का इंतजाम होता रहता तो वे शायद ही कभी नौकरी करते। उन्हें बस दो चीजें पसंद थी, खूब पढ़ना और खूब बतियाना।उन्होंने शायद इसी वजह से नौकरी करने के दबाव को आखिर तक टाला। जब वे इसे और अधिक टाल नहीं सके तो बिहार सरकार के इंटर विद्यालय में अनुबंध शिक्षक हो गए। दुर्भाग्य से वहां भी उनकी रोजी रोटी के मसले का समुचित समाधान नहीं हो पाया। अनियमित वेतन और लगातार चलने वाले हड़ताल की वजह से वे उदास रहने लगे। इस बीच न जाने कैसे बीपी और सुगर की चपेट में आ गए और यह बीमारी उनके लिये जानलेवा साबित हो गयी। उनके जाने का दुख तो है ही। साथ ही यह अफसोस भी है कि महत्वाकांक्षाओं से भरी इस दुनिया में क्या कभी कोई ऐसा चरित्र फिर मिल पायेगा जो खूब पढ़ने और हर किस्म की बहस करने का शौकीन हो। विदा। आप अब बस यादों में ही रहेंगे।

पुष्यमित्र