डाॅ. संजय पंकज
मीडिया की महती भूमिका से आज सम्पूर्ण विश्व सुपरिचित है। दिनानुदिन नई-नई तकनीकों और सुविधाओं से लैस होता हुआ मीडिया-जगत संसार के कोने-कोने तक अपनी पैठ बना रहा है। बड़ी तेजी से इसका विकास हुआ है। और-और विकसित होता हुआ यह अपने विस्तार में मानवीय बहुविध क्रिया-व्यापारों को बहुत ही कुशलता के साथ समेट-सहेज रहा है। इसका योगदान जिस व्यापक परिप्रेक्ष्य में है, उसकी स्वीकृति को कोई नकार नहीं सकता है।
पठ्य और दृश्य माध्यमों से पहले भी किसी-न-किसी रूप में मीडिया की अहमियत थी। चाहे उसका रूप जैसा और जो भी रहा हो। मानने वाले देवर्षि नारद को प्रथम मीडियाकर्मी के रूप में मानते हैं। उनकी जयंती को प्रकारांतर से पत्रकारिता-दिवस के रूप में मनाते भी हैं। एक लोक से दूसरे लोक तक समाचार पहुँचाना और विभिन्न लोकों का समाचार जानना, नारद जी का स्वभाव था। यह और बात है कि इधर की बात उधर और उधर की बात इधर पहुंचाने के कारण वे एक चरित्र-विशेष के रूप में भी जाने जाते हैं। मीडिया भी तो कुछ ऐसा ही काम करता है।
पहले पत्रकारिता मिशन थी, अब यह एम्बीशन है। दिशा बदल गयी है। लक्ष्य भी बदल गया है। बहुत हद तक चरित्र भी बदल गया है। व्यक्तित्व-विकास हो या सामाजिक विकास या फिर परम्परा या प्रगतिशीलता की बातें हों, सबके लिए एक सशक्त माध्यम की जरूरत है। बिना माध्यम के कार्य की सिद्धि भी नहीं होती है। प्रयोजन भी नहीं सधता है। यह माध्यम ही है जिससे एक-दूसरे से व्यक्ति जुड़ता है। जैसे बिना सेतु के नदी को आर-पार पाटना और आना-जाना संभव नहीं, वैसे ही इस बड़े संसार और इसके बहुविध विस्तार को बिना माध्यम के जानना भी संभव नहीं है और यह जानना संभव होता है तो वह मीडिया के कारण ही। जहाँ पहले मीडिया की मध्यस्थता सकारात्मक और लक्ष्यसिद्ध होती थी, वहीं आज बाजार के कारण इसमें नकारात्मकता और भटकाव का प्रवेश हो गया है। कहीं न कहीं इस बदलाव का घातक प्रभाव भी परिलक्षित होता है।
मीडिया की ताकत से आज सभी भली-भांति परिचित हैं। इसकी ताकत में हर दिन बढ़ोत्तरी हो रही है। इसका फैलाव भी बढ़ता जा रहा है। अधिकांश लोगों की सुबह-सबेरे नींद खुलते ही जो पहली तलब होती है, वह किसी अखबार या दूरदर्शन के समाचार की होती है। ढेरों अखबार हैं। ढेरों चैनल हैं। रेडियो के अनेक केन्द्र हैं। दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, द्विमासिक, त्रैमासिक, चतुर्मासिक, छमाही और वार्षिक पत्र-पत्रिकाएँ हैं। अधिकांश पत्रिकाओं में राजनीति की प्रधानता है। घटनाओं-दुर्घटनाओं की खबरें खूब छपती हैं। राजनीतिक दलों के जो समाचार छपते हैं उसमें उठा-पटक, घोटाले, आरोप-प्रत्यारोप, सफलता-विफलता, तू-तू मैं-मैं ज्यादा है। देखते-देखते हर क्षेत्र में तेजी से अवमूल्यन हुआ है। अपसंस्कृति का जोर है। क्रय-विक्रय का बाजार गरम है। बाजार की सौदेबाजी में अपनी दुकानदारी की चिंता से ग्रसित लोग नफा-नुकसान पर ज्यादा सोचते हैं। उन्हें अपने मुनाफे की फिक्र है, उस मुनाफे के चक्कर में भले ही किसी का नुकसान हो इसकी चिंता नहीं। तात्कालिक लाभ के चक्कर में दूरगामी दुष्परिणाम को ऐसे लोग देखते नहीं और समाज अंधेरे में भटकने के लिए विवश हो जाता है।
मीडिया की भूमिका पथ-प्रदर्शक, रहनुमा और पहरुए की होती है। वह एक ऐसा दर्पण है जिसमें व्यक्ति, व्यवस्था और स्थिति हू-ब-हू प्रतिबिंबित होते हैं। इससे सँवरने और संभलने का अवसर मिलता है। मगर बढ़ी हुई ताकत के बीच भी आज मीडिया अनेक कारणों से स्वयं ही धुंधला रहा है। ऐसे में सही सोच और साफ दर्पण जैसा मीडिया का रूप जब भी दीखता है तो एक भरोसा पैदा होता है कि कुछेक लोग ही सही, मगर उजाले को बचाने का संकल्प जहाँ है उसका अभिनंदन होना ही चाहिए। ऐसे लोग ही युगान्तरकारी होते हैं। मीडिया पर आज भी असंख्य जनों का भरोसा है। उसकी बातों को सच की तरह स्वीकारा जाता है। लोग-बाग चर्चा के क्रम में मीडिया का हवाला देते हैं। बहुजन के भरोसे को बनाए रखने के लिए मीडिया को निरंतर सचेत और सावधान रहने की जरूरत है।
भूमंडलीकरण और विश्वग्राम के दौर में जिस कारण सबकुछ अपने आस-पास दीखता है उसमें मीडिया का सबसे बड़ा योगदान है। घर बैठेे मीडिया ही विस्तृत जगत की; बल्कि विभिन्न लोकों की, ग्रहों और नक्षत्रों की खोज-खबर लेता, उसका हाल-चाल लगातार पहुँचा रहा है। कल तक जो सपना था, कठिन था, अप्राप्य था वह आज प्रत्यक्ष, आसान और सुलभ है तो निःसंदेह मीडिया के कारण ही। मीडिया ने एक प्रकार से बड़े संसार को समेट दिया है। मीडिया ने बहुत-बहुत बेहतर करने के बावजूद बाजारवाद के सम्मोहन में कुछ अनर्गल भी किया है और कर रहा है।
बाजार अर्थ-केन्द्रित होता है। मीडिया-हाउस संचालित करने के लिए इकोनाॅमी की जरूरत होती है। मीडिया संस्थान का ध्यान अपने मुनाफे पर ज्यादा होता है। उसके अधीन नये-नये सपनों को लेकर जोशो-जुनून में कार्य करने वाले उत्साही युवक होते हैं। पत्रकारिता में रहते हुए कुछ दूर तक उसके उसूलों की रक्षा करने के बाद भी सम्पूर्णतः वे स्वतंत्र नहीं होते। उनपर मीडिया-संस्थान के संचालक का नियंत्रण होता है। उनके निर्देशानुसार कार्य करने की विवशता होती है। बेरोजगारी की समस्या ऐसी है कि आदर्श को ताक पर रखकर घर-परिवार चलाने के लिए पग-पग पर समझौता करना पड़ता है। पहले मीडिया की सामाजिक जिम्मेदारी हुआ करती थी। आदर्श, नियम और नैतिकताओं के तहत उसे अपने कर्तव्य और दायित्व का निर्वाह करना पड़ता था। लेकिन अब तो विचारधारा और नैतिक-मूल्यों पर भी बाजार हावी है।
यह व्यावहारिक सच है कि जीवन के लिए पैसों की जरूरत है, मगर जीवन सिर्फ पैसों के लिए नहीं होता है। जीवन समाज का सुदृढ़ निर्माण और आदर्श-चरित्र गढ़ने के लिए भी होता है; इसका ध्यान रखना अत्यावश्यक है। संवेदना और मनुष्यता व्यक्ति की विशिष्ट और उत्कृष्ट पहचान होती है। इससे अलग हो जिस भी क्षेत्र में व्यक्ति कार्य करता है, वह सिर्फ मशीन होता है। स्थिति अमानवीय और संवेदनहीन न हो इसके लिए मीडिया को स्वच्छ दृष्टिसम्पन्न होना और सकारात्मक लक्ष्यसंधानी होना उसकी नैतिक, राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और वैश्विक जरूरत है। बाजार के खतरों से बचते हुए मीडिया को अपने सामाजिक दायित्व के प्रति चिरजाग्रत रहने की आवश्यकता है।
विश्व के परिप्रेक्ष्य में मीडिया की भूमिका का मूल्यांकन करने पर पता चलता है कि यह मीडिया ही है जो संसार से हर तरह से हमें रू-ब-रू करा रहा है। संसार की गतिविधियों से परिचित करा रहा है। विश्व के वितंडावादों और दृष्टिकोणों का साक्षात्कार कराता हुआ मीडिया हमें सावधान और सजग भी कर रहा है। जीवन और मूल्य के प्रति हमारी सोच क्या हो और किस तरह से हम उसकी सर्वजनीनता और सर्वउपयोगिता को तय करते हुए परिवेश और व्यवस्था को सुंदर बनाए रखें, इसके लिए मीडिया हमें एक सजग दृष्टि देता है। चीजों और संदर्भों के प्रति बेहतर सोचते रहने के लिए मीडिया बाध्य और विवश भी करता है। वह हमें आन्तरिक रूप से जाग्रत करता हुआ उत्कर्ष की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
मीडिया की अगर दिशा सकारात्मक है, तो उससे जीने का संबल और जीवन का विश्वास मिलता है। सिर्फ खबरों को परोस देना भर मीडिया का दायित्व नहीं है। उन खबरों के प्रति संवेदनात्मक दृष्टिकोण पैदा करना और उससे सबक देते हुए वैसी स्थिति फिर पैदा न हो इसके लिए सावधान करना भी मीडिया का महती दायित्व है। इतिहास साक्षी है कि समय-सम पर मीडिया ने सुसुप्त समाज को झकझोर कर जागृत किया है। समाज को उसके दायित्व का बोध कराया है। व्यक्ति को स्वाभिमान के साथ खड़ा होने के लिए ललकारा है। बिखरे और बंटे हुए समाज को संगठित होकर अराजकता के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रेरित किया है। साझेपन की संस्कृति को बचाए रखने की सीख दी है।
बड़ी-बड़ी क्रान्तियों, बड़े-बड़े आन्दोलनों और बड़े-बड़े बदलावों को सिर्फ पैदा करने का ही काम मीडिया ने नहीं किया है; कई कदम आगे बढ़कर उसमें वह सहभागी भी हुआ है। संसार की अनेक क्रान्तियों के लिए जनमानस-भूमि को मीडिया ने तैयार करते हुए सिंचित किया है। विकसित राष्ट्रों की सम्पदा और वैभव को उजागर करते हुए मीडिया ने विकासशील देशों को उत्प्रेरित किया है। विकास का मार्ग प्रशस्त किया है और राष्ट्र को गतिशील बनाया है। आज मीडिया का वैश्विक रूप हमारे सामने है।
अगर हम राष्ट्रीय संदर्भ में मीडिया की भूमिका पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि रूढ़िबद्ध भारतीय समाज को वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पन्न करने का काम बखूबी मीडिया ने किया है। विशाल देश भारत प्राकृतिक रूप से, सांस्कृतिक रूप से, भाषाई रूप से, रहन-सहन और खान-पान के स्तर पर सर्वथा अलग-अलग है। एक-दूसरे की बोली नहीं समझने वाले कई-कई क्षेत्र हैं। विभिन्नताएँ होने के बावजूद भारत का जो एकीकृत राष्ट्रीय और सांस्कृतिक रूप है, इसको बनाए और बचाए रखने में मीडिया की अहम भूमिका है। रूढ़िबद्ध भारतीय समाज में अनेक अमानवीय संकीर्णताएं थीं। उन संकीर्णताओं से मुक्ति दिलाने के लिए मीडिया ने पहले भी अलख जगाने का काम किया है और आज भी कर रहा है।
मानवीय सभ्यता का विकास और सभ्यताओं का टकराव बार-बार हुआ है। टकराव से बचाते और विकास से परिचित कराते हुए मीडिया ने सभ्यता को संस्कार-सम्पन्न और संस्कृति-सम्बद्ध करने का भी काम किया है। समाज सुधारकों, चिंतकों, कवियों और राजनेताओं के कार्यक्षेत्र को विस्तार देते हुए, एक-दूसरे को वैचारिक धरातल से जोड़ते हुए मीडिया ने उसे राष्ट्रव्यापी ही नहीं, विश्वव्यापी स्वीकृति दिलाने का भी काम किया है। समाज की जड़ता को तोड़ने का काम हो या समाज को जोड़ने का काम हो, हर जगह मीडिया की उपयोगिता सराहनीय रही है। भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में मीडिया ने जिस तरह से बढ़-चढ़कर कार्य करते हुए पूरे देश को एकजुट किया था, उसे विस्मृत नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र के निर्माण में भी उसका योगदान महत्वपूर्ण है।
लोकतंत्र की रक्षा के लिए जागरूक प्रहरी की तरह खड़ा मीडिया आमजन से लेकर खासजन तक ही क्या; बल्कि सर्वजन के लिए एक भरोसेमंद रहनुमा साथी है, संरक्षक है। लोकतंत्र का यह चैथा स्तंभ किसी-न-किसी रूप में उन तीनों स्तंभों-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को भी सुदृढ़ बल देता संतुलित और अनुशासित बनाए रखता है। इस चौथे स्तंभ को संकल्पबद्ध होकर मजबूती के साथ अडिग भाव में खड़ा रखना निहायत जरूरी है। जन-अपेक्षा इसके प्रति बनी हुई है। अतः इसे अपने संवेदनात्मक दृष्टिकोण के प्रति चिर सचेत रहना होगा।
मदांध सत्ता ने जब भी अराजकता का वातावरण बनाया है उस पर अंकुश लगाते हुए मीडिया ने मुक्ति दिलाने का कार्य किया है। समय के उतार-चढ़ाव और इतिहास के ऊहा-पोह में मीडिया की बनती-बिगड़ती भूमिका को आसानी से देखा जा सकता है। पड़ोसी देशों ने जब भी सीमा पर विवाद किया या आक्रमण किया तो मीडिया ने सम्पूर्ण देश को जाग्रत कर उसमें राष्ट्रीय भावना भरने का कार्य किया। आतंकवादी गतिविधियों के कारण जब कभी भी देश के भीतर आन्तरिक अशांति हुई उसे दूर करने में मीडिया ने अपनी तत्परता दिखलायी।
प्राकृतिक आपदा हो या राष्ट्रीय संकट हर मोर्चे पर मीडिया व्यापक जन-मानस के साथ खड़ा रहा। राजनैतिक स्थिरता लाने, साम्प्रदायिक सद्भाव बनाये रखने तथा सांस्कृतिक एकजुटता पैदा करने में मीडिया ने जो कार्य किया है उसे विस्मृत नहीं किया जा सकता है। हर मानवीय पहलू पर मीडिया की जागरूकता बनी रही है। अपसंस्कृति और वैचारिक विघटन के दौर में बाजार में खड़े मीडिया के चरित्र में भी बदलाव आया है। कभी-कभी इसकी भूमिका से नया संकट खड़ा हुआ है। बाजारू संस्कार से ग्रसित हो जाने के कारण कई बार मीडिया ने असामाजिक चरित्र को भी महिमामंडित करते हुए देश के सामने खड़ा कर दिया है। भ्रम की स्थिति उसने पैदा की है। मीडिया पर भरोसा करते हुए समाज दिग्भ्रमित हुआ है। वह दिशाहीन हुआ है। कभी-कभी तो बेमतलब की बातों को भी मीडिया ने ऐसा तूल दिया है कि उससे एक चिढ़ और ऊब ही पैदा हुई है।
कुख्यात को भी मीडिया ने अपने जोर से प्रख्यात करने का प्रयास किया है। इसकी सराहना नहीं की जा सकती है। इससे बिखराव ही पैदा हुआ है। अशांति फैली है। हर नकारात्मकता के विरुद्ध सोच-समझकर मीडिया को सकारात्मक अभियान चलाते रहना चाहिए। जन-मानस को संवेदनशील बनाने और जागरूक रखने में मीडिया की भूमिका सराहनीय होती है। जब कभी भी मीडिया ने असामाजिक चरित्र को सामाजिकता के तर्क पर स्थापित करने का काम किया है; स्थिति बिगड़ी है और समाज टूटा है।
रूढ़ियों पर प्रहार करने वाला मीडिया बाजार संपोषित किसी चैनल विशेष से जब अंधविश्वास-कथा प्रस्तुत करता है तो कैसा अनर्थ घटित होता है इसे भी जानने-समझने की जरूरत है। उटपटांग विज्ञापनों और अश्लील दृश्यों से आखिर किस तरह का जनमानस और समाज बनाया जा सकता है? मीडिया इतना भी बाजारू न हो जाए कि जीवन, मूल्य, संस्कार, संस्कृति और राष्ट्र ही हाशिए पर चला जाए। बाजारू प्रतिस्पर्धा पर उतारू मीडिया स्वस्थ परम्परा को कहीं-न-कहीं आज ध्वस्त भी कर रहा है। कच्चे बालमन को आहत कर रहा है। युवा मानस को दिग्भ्रमित और स्त्री-संचेतना को कुन्द कर रहा है। भारतीय संस्कृति मलिन न हो और इसका आलोक पूरे संसार में फैलता रहे इसका ध्यान मीडिया को रखना चाहिए। हमारी परम्परा, विरासत, चेतना और मनीषा बनी तथा बची रहे इसके लिए भी मीडिया को सावधानी से यथानुरूप कार्य करते रहने की जरूरत है।
आज मीडिया के प्रभाव से कोई भी अछूता नहीं है। हर क्षेत्र में इसकी जागरूकता और सचेतंनता का हस्तक्षेप है। यह एक तरह से बहुत ही अच्छा है। इससे व्यवस्था भी बनी रहती है। कायदे कानून भी बहुत दूर तक ठिकाने पर होते है। समाज भी सही रास्ते पर चलता है। राजनीति भी अपने दायित्व के प्रति सजग रहती है। सकरात्मक वातावरण बना रहता है। संवैधानिक संहिताओं का सही-सही पालन होता है। वैचारिक धरातल साफ रहता है। मानवीय संबंध सुदृढ़ होता है। सही दिशा का ज्ञान होता है। साफ दृष्टि मिलती है। कार्य को अच्छा परिणाम और अच्छे आदमी को पहचान मिलती है। राष्ट्रीय अस्मिता बनी रहती है। सारे संवेदनशील और सकारात्मक संदर्भों को मीडिया को अच्छी तरह से जानना समझना चाहिए। इसकी एक भूल से बड़ा अनर्थ और चूक से बड़ा उद्वेलन पैदा हो सकता है, इसका मीडिया को सदा ही ध्यान रखना चाहिए। हर तरह से वातावरण को संतुलित, समाज को समरस, व्यवस्था को अनुशासित और व्यक्ति को संवेदनशील बनाए रखने की जवाबदेही का निर्वाह मीडिया को करना ही चाहिए। वाणी और लेखनी में शील, संस्कृति, मर्यादा और शुद्धता का सम्मान होना चाहिए।
आज मीडिया में साहित्य की उपस्थिति कम है, जबकि सर्वविदित है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। यह ठीक है कि साहित्य का ही काम कमोबेश मीडिया कर रहा है, मगर साहित्य और संस्कृति की जो अनिवार्यता है और समाज के लिए उसका जो महत्व है इसके प्रति भी मीडिया को सोचना चाहिए। दिग्भ्रमित समाज और आत्ममुग्ध व्यक्तित्व को साहित्य ने सही रास्ते पर लाने का कार्य किया है। परम्परा और प्रगतिशीलता के बीच साहित्य वह सौन्दर्यसेतु है जो बेहतर को तथा संबंधों को जोड़ता है। साहित्य का समावेश मीडिया में कभी पर्याप्त हुआ करता था, मगर आज उसकी उपस्थिति कम है जबकि उसकी महत्ता और स्वीकृति व्यापक है। मीडिया को चिर-जाग्रत रहते हुए समाज को जगाए रखने के संकल्प के साथ निरन्तर संवेदनात्मक कार्य करते रहने की बुलंदी से लैस होना चाहिए। और यह भी उसे स्मरण रहना चाहिए कि-मैं सो जाऊँ तो इतिहास जगत का सो जाएगा।
संजय पंकज। बदलाव के अप्रैल 2018 के अतिथि संपादक। जाने – माने साहित्यकार , कवि और लेखक। स्नातकोत्तर हिन्दी, पीएचडी। मंजर-मंजर आग लगी है , मां है शब्दातीत , यवनिका उठने तक, यहां तो सब बंजारे, सोच सकते हो प्रकाशित पुस्तकें। निराला निकेतन की पत्रिका बेला के सम्पादक हैं। प्रेमसागर, उजास , अखिल भारतीय साहित्य परिषद, नव संचेतन, संस्कृति मंच , साहित्यिक अंजुमन, हिन्दी-उर्दू भाषायी एकता मंच जैसी संस्थाओं, संगठनों से अभिन्न रूप से जुड़े रहे हैं। हिन्दी फिल्म ‘भूमि’,’खड़ी बोली का चाणक्य ‘ तथा टीवी धारावाहिक ‘सांझ के हम सफर’ में बेजोड़ अभिनय। आपसे मोबाइल नंबर 09973977511 पर सम्पर्क कर सकते हैं।