मशरूम की खेती से महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की ‘मनोरम’ गाथा

मशरूम की खेती से महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की ‘मनोरम’ गाथा

ब्रह्मानंद ठाकुर

महाकवि निराला  के  ‘कुकुरमुत्ता ‘ने आभिजात्य गुलाब को जब हरामी खानदानी  कहकर  ललकारते हुए कहा, ‘देख मुझको, मैं बढ़ा/डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा और अपने से उगा मैं/बिना दाने का चुगा मैं… तब शायद ही किसी को कुकुरमुत्ते के इस दावे पर यकीन हुआ होगा। निराला ने यह कविता 1941में लिखी थी। तब इस कुकुरमुत्ते को हमारे गांव में गोबर छत्ता कहा जाता था। गोबर की ढ़ेर और सडे़-गले बजब जाते कूड़े पर अचानक  उग आने वाली एक गर्हित वनस्पत्ति जिसे लोग जहरीला समझ हाथ से भी छूना पसंद नहीं करते थे। फिर भी हम बच्चे उसके आकर्षक रूप-रंग के वशीभूत हो कर उखाड़ कर खेला करते फिर मसल कर फेंक देते थे । तब कहां पता था कि आने वाले समय में यही कुकुरमुत्ता अपने नये रूप और पौष्टिक गुणों से मशरूम के रूप में गरीब-गुरबों, बेरोजगारों और भूमिहीन किसानों का जीवन संवारने वाला बन जाएगा। आज प्रत्यक्ष रूप से देख रहा हूं कि कृषि में वैग्ज्ञानिक अनुसंधानों ने मशरूम उत्पादन की नवीनतम  तकनीक  का विकास कर इसे जन जन में लोकप्रिय बना दिया है।  डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्व विद्यालय के मशरूम वैज्ञानिक डाक्टर दयाराम की मानें तो आज बिहार के 38 जिलों के 30 हजार से ज्यादा परिवार मशरूम उत्पादन से जुडे हुए हैं। मशरूम एक ऐसा पौष्टिक खाद्य पदार्थ है  जिसका उत्पादन  जमीन में नही किया जाता। यह जमीन से ऊपर किसी भी छायादार स्थान पर, घरों के अंदर भी बेकार  फसल अवशेषों की सहायता से उगाया जाता है।

ऐसी ही एक महिला हैं वैशाली जिले के लालगंज प्रखंड अन्तर्गत अगरपुर गांव की मनोरमा सिंह। स्नातक योग्यताधारी मनोरमा मशरूम उत्पादन से अपनी किस्मत संवारने मे लगी हुई हैं । फिलहाल इस व्यवसाय से इनकी औसत मासिक आमदनी 50 हजार रूपये है। इन्ंहोने 2009 में मशरूम उत्पादन से  अपना व्यवसाय  खुद के दम पर शुरू किया और आज आयस्टर के साथ साथ बटन और दुधिया मशरूम उत्पादन के अलावे मशरूम बीज उत्पादन में भी उल्लखनीय उपलब्धि हासिल कर लिया है। अपनी इस सफलता का श्रेय वह  विश्वविद्यालय के मशरूम वैग्यानिक डॉक्टर दयाराम को देती है। श्रीमति सिंह को आज यहां तक पहुंचने के लिए काफी संघर्ष करना पडा है। साल 1991 में विवाह होने के बाद जब वे ससुराल आयीं तो यहां के हालात समझने में उन्हें थोडा वक्त लगा। खेती-किसानी की दशा ठीक नहीं थी। अधिकांश जमीन बंजर पडी थी। उन्होंने सबसे पहले जमीन के एक टुकड़े में आम का बाग लगवाया और उस जमीन को खेती करने के लिए बटाई पर ले दिया। इससे बगीचे की सुरक्षा और उसकी  देखभाल सही ढंग से होने लगी। खेती का काम भी अपने हाथों मे ले लिया। बैंक से कर्ज लेकर उन्नत नस्ल वाली एक गाय भी खरीदी। समय बीतता रहा। एक दिन अपने पड़ोस के ननद के साथ ससुराल के निकटवर्ती शहर हाजीपुर किसी काम से गयी हुई थी तो ननद ने उनसे एक दुकान में मशरूम चीली खाने का प्रस्ताव दिया।

मनोरमा जी बताती हैं कि इससे पहले उन्होंने मशरूम का नाम भी नहीं सुना था।  दुकान में गयीं। मशरूम चीली का  स्वाद चखने के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंची कि यह बड़ी उम्दा चीज है। इसके बाद एक अखबार में उन्होंने मशरूम के बारे में पढा और जाना कि राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय पूसा में मशरूम उत्पादन का प्रशिक्षण दिया जाता है। यह 2008 की बात है। तबतक वे अपने घर पर बर्मी कम्पोस्ट और एजोला (मवेशी के हरे चारे के समतुल्य आहार)उत्पादन का काम कर रही थी। पशुपति प्रभु गुनगान सेवा संस्थान नाम से एट एनजीओ भी चला रही थी।  पहली बार उन्होनें 2008 में इस एनजीओ से 10 महिलाओं को पूसा में मशरूम उत्पादन प्रशिक्षण में भेजा। खुद नहीं जा सकी ।प्रशिक्षण प्राप्त कर जब वे महिलाएं वापस आयीं तो सभी ने मिल जुलकर मशरूम उत्पादन शुरू किया । आयस्टर मशरूम उत्पादन  में जब अनेक तरह की परेशानी होने लगी तब मनोरमा जी ने वैग्यानिक दयाराम से समपर्क किया और 2010 में स्वयं प्रशिक्षण लिया। इसके बाद आयस्ट , बटन और दुधिया मशरूम उत्पादन के साथ-साथ मशरूम बीज (स्पम ) का उत्पादन करने लगी । फिर उनके घर पर सोलन, ओडिशा, पंतनगर और दिल्ली से एक साथ चार मशरूम वैज्ञानिकों ने आकर  उनका हौसला बढाया और वे निरंतर कुछ नया कर दिखाने की ओर अग्रसर रहीं। इस बीच उन्होंने पाया कि उत्पादित मशरूम की बिक्री एक समस्या बनती जा रही हैं। लोगों में इसकी पौष्टिकता की जानकारी न रहने के कारण विपणन की  जब समस्या खड़ी हो गयी तब उन्होंने  मशरूम का बाई प्रोडक्ट बनाने के बारे में सोंचना शुरु किया क्योंकि इस बाई प्रोडक्ट को काफी दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता था ।

वे बताती हैं कि वो समय उनके कठिन संघर्ष का समय था । वे हार मान कर इस काम को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थीं। ऐसे कठिन  समय में डाक्टर दयाराम ने ही रास्ता सुझाया और वे मशरूम का बाईप्रोडक्ट तैयार करने लगी। इस समय वे आयस्टर ,बटन और दुधिया मशरूम से लड्डू ,पेडा, डस्ट, भुजिया, अंचार, पापड़ , बड़ी , खीर बिरियानी , लिट्टी, मशरूम चीली , पकौडा ,साबूदाना आदि करीब 20 तरह के बाई प्रोडक्ट बना रहीं है।  कृषि विश्वविद्यालय या अन्य संगठनों की ओर से समय समय पर आयोजित प्रदर्शनी में इसकी अच्छी बिक्री हो जाती है। बाजार में भी इन चीजों की मांग बढी है। लोग जागरूक हुए हैं।

मशरूम उत्पादन में जब बीज की समस्या पैदा हुई तो 2012में खुद मशरूम बीज उत्पादन का प्रशिक्षण लेकर बीज उत्पादन करने लगी। आज भी दुधिया मशरूम का बीज उत्पादन कर रही हैं। इतना ही नहीं ,अपने आस -पास के क्षेत्रों में भी लोगों को प्रशिक्षण देकर मनोरमा जी मशरूम उत्पादन से  आर्थिक आत्मनिर्भरता का पाठ पढा रही है। मशरूम उत्पादकों के सामने सबसे गम्भीर समस्या इसके विपण्ण की है। मनोरमा जी बताती हैं कि राज्य और केन्द्र सरकार यदि इस दिशा में कारगर प्रयास किए होती तो बिक्री की जो समस्या आज है वह नहीं होती। यह निर्विवाद है कि मशरूम अपने पौष्टिकता के लिए कुपोषित बच्चों और माताओं का सर्वोत्म खाद्य पदार्थ है। सरकार यदि स्कूलों के मध्याह्न भोजन योजना में कमसे कम सप्ताह में एक या दो दिन सब्जियों के रूप में इसका उपयोग अनिवार्य कर दे तो विपण्ण की जो समस्या है वह नहीं रहेगी और इसका प्रत्यक्ष लाभ इसके उत्पादकों को मिलेगा। शाकाहारियों के लिए यह  बडा ही उपयोगी है। इसमें प्रोटीन 2.5से 3.0 फीसदी , कार्बोहाइड्रेट 4-6प्रतिशत, वसा 0.4 से0.6प्रतिशत ,फाइवर 1 प्रतिशत पाया जाता है। सूखे ढिंगरी या अन्य मशरूम में प्रोटीन की मात्रा 20से 30प्रतिशत तक होती है। स्टार्च या शर्करा के अभाव में यह मधुमेह के रोगियों के लिए भी लाभदायक है। केन्द्र सरकार का  केवल रेल मंत्रायय यदि मशरूम को  अपने खाने के मेनू में शामिल कर दे तो इसके उत्पादकों को बडी राहत मिल सकती है। जरूरत है कृषिवैग्यानिकों के व्यापक जनहित में किए गये अनुसंधानों को जन जन तक पहुंचाने की और य  काम तो सरकार ही कर सकती है। (मशरूम की खेती कैसे करें इस बारे में अगले आलेख में विस्तार से चर्चा होगी)


ब्रह्मानंद ठाकुर/ BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।

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