आज पापा का जन्मदिन है। बचपन की कुछ यादों के साथ पापा को जन्मदिन की शुभकामनाएं।
बचपन में हर बच्चा शरारती होता है, मम्मी बताती हैं मैं भी शरारती था। एक बार जिस चीज की जिद पकड़ ली उसे पूरा कराए बिना दम नहीं लेता। अगर जिद पूरी नहीं होती तो आसमान सर पर उठने वाला मुहावरा चरितार्थ हो जाता।
उन दिनों गांवों में हैंड पंप नहीं था, कुएं से पानी निकालकर घर आता था। लिहाजा बच्चों को अपनी जिद मनवाने का वो सॉफ्ट टारगेट होता यानी कुएं से जो पानी घर लाया गया उसे गिरा देता। मां पापा दोबारा पानी लाते फिर गिरा देता। ये प्रक्रिया कई बार दोहराई जाती और आखिरकार पापा बात मान लेते, लेकिन कभी मेरी उस गलती के लिए डांटा फटकारा नहीं।
थोड़ा बड़ा हुआ शैतानियां और बड़ी हुई, दोस्तों से लड़ाई झगडे हुए, चोट लगती दर्द भी होता। छोटे से लड़ाई होती तो पीटकर आता और बड़े के आगे एक ना चलती तो रोना सबसे अच्छा फार्मूला होता। घर वालों की सहानभूति मिलती और चुप कराने के लिए कुछ लेमन चूस (टॉफी) मिल जाती लेकिन कभी डांट फटकार नहीं मिली।
लड़ाई झगड़े में चोट लग जाती तो पढ़ाई से भी छुट्टी और दवा के लिए जौनपुर शहर भ्रमण का मौका भी मिल जाता। उन दिनों जौनपुर के मशहूर सर्जन डॉक्टर केपी यादव जो मामा के गांव के पास के थे लिहाजा रिश्ते में उन्हें हम सब भैया बुलाते। पापा और दादा सिंचाई विभाग जौनपुर में नौकरी करते थे इसलिए अपने साथ हमें भी जौनपुर ले जाते। दवा के लिए डॉक्टर साहब के यहां छोकर चले जाते।
चोट छोटी हो या बड़ी। हल्की खांसी भी आती तो हमारी जिद की वजह से इलाज डॉक्टर केपी यादव के यहां होता। जब पापा और दादा ऑफिस चले जाते तो हम डॉक्टर साहब के घर पर ही खेलते। स्कूल से छुट्टी हो जाती, इलाज भी हो जाता और मस्ती का मौका भी। अच्छी बात ये थी कि इस बात पर न डॉक्टर साहब को कोई परेशानी होती और ना ही उनकी पत्नी यानी भाभी को। भाभी भी अपने बच्चे की तरह ही रखती। घर पर जितने भी बच्चे थे उनका इलाज वहीं होता और आज भी हमारे फैमिली डॉक्टर वहीं हैं।
पढ़ने में मैं परिवार में सबसे कमजोर था। लेकिन जिद में सबसे तेज। ठीक से तो याद नहीं है चौथी कक्षा में रहा होगा, स्कूल में बुक फाड़ दिया तो टीचर ने पिटाई कर दी।(पहली बार मार पड़ी) घर का स्कूल था, दादा जी अध्यक्ष थे, मम्मी भी वहीं पढ़ाती थीं। जिससे मैं टीचर के आगे गुस्से में बोला “बब्बा से कहिके तोहके स्कूले से निकल वाय देब”। रोता हुआ घर आया; बाबा से आप बीती सुनाई। लेकिन यहां मेरी जिद काम नहीं आई। दादा जी प्यार से बोले “मास्टर साहब ऐसे तो नहीं मारे होंगे, कुछ तो गलती किए होगे”। मैंने भी बड़ी मासूमियत से उन्हें बता दिया “हां किताब फाड़ दिया था”। दादा जी जवाब सुनते ही बोले “गलती करने पर मार तो पड़ेगी ही”। (उस समय टीचर की मार पर परिवार को कोई ऐतराज नहीं होता था )
खैर पहली बार पता चल गया हर जिद पूरी नहीं हो सकती। धीरे धीरे पढ़ाई आगे बढ़ी । हाई स्कूल भी पूरा कर लिया, पढ़ने में अच्छा नहीं था लिहाजा रिजल्ट बहुत खराब आया। किसी तरह पास हो गया। सोचा आज तो घर मार पड़ेगी। डर और खराब नंबर के गुस्से के साथ मार्कशीट को मोड़कर जेब में रखकर घर पहुंचा। लेकिन जैसा मैं सोचा था वैसा कुछ नहीं हुआ। पापा की फटकार की बजाय प्यार ही मिला साथ में नसीहत की इसी लिए कहते हैं थोड़ा पढ़ा करो। उस दिन के बाद के पोस्ट ग्रेजुएशन तक निरंतर नंबर में सुधार आते गए।
आखिरी बार जिद इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से जर्नलिज्म करने के बाद दिल्ली आने के लिए की। मामा के लाख मना करने के बाद भी पापा ने ये जिद भी मान ली और मैं दिल्ली चला आया। करीब 17 साल से दिल्ली हूं। मेरे बच्चों की पढ़ाई लिखाई भी दिल्ली एनसीआर में ही हो रही है। विरासत में पिता की मिली सीख अपने बच्चों को देने की पूरी कोशिश करता हूं। आज मेरे पापा 62 बसंत पार कर चुके हैं। जिस उम्र में मैं अपने पिता से जिद किया करता था आज उसी उम्र में मेरा बेटा भी मुझसे जिद करता है। लेकिन कभी कभी मैं अपने पापा की तरह धैर्य नहीं दिखा पाता। फिर भी कोशिश करता हूं पापा की तरह ही एक अच्छा पिता बनने की।
एक बार फिर पापा जो जन्मदिन की शुभकामनाएं।