ब्रह्मानंद ठाकुर
आज महाशिवरात्रि है। आदिम समाजवादी परिवार के मुखिया शिव के विवाह का दिन । हां, आदिम समाजवादी व्यवस्था, जहां परस्पर दो विपरीत प्रवृतियों वाले जीव साथ रहा करते थे। बिना किसी को नुकसान पहुंचाए। मसलन वहां सर्प था तो मोर भी थे। बैल था तो व्याघ्र भी। कहीं किसी को किसी से भय नहीं। इस मायने में शिव समाजवादी समाज व्यवस्था के एक आदर्श पुरुष हो गये। आज का दिन उन्हीं के विवाह का दिन है । शिव का पार्वती से आज ही के दिन विवाह हुआ था। वही पार्वती जिसकी प्रतिज्ञा थी कि ‘वरौं शंभु न त रहौं कुमारी।“ माता मैना की असहमति के बाबजूद पार्वती ने बौराहा शिव का वरण किया था। एक नहीं , दूसरे जन्म में भी। विस्तार से यह विवरण धर्म ग्रंथों में है। शिव के अनेक नाम हैं। उनका एक नाम खगेश्वर भी है। शिव के इसी नाम से जुडा है मतलूपुर (बंदरा) का बाबा खगेश्वर स्थान। ताम्रवर्णी शिवलिंग के लिए मशहूर।
आज से कोई तीस साल पहले इसी गांव के बाबू रामवली त्रिवेदी जी ने घर से पटना साथ जाते हुए जीप में तीन घंटे की यात्रा के दौरान इस स्थान का महत्व विस्तार से बताया था। अब वे इस दुनिया में नहीं रहे। पहले मतलूपुर एक जंगल था। बाद मे धीरे-धीरे आबाद हो कर आधुनिक रूप में विकसित हुआ। यह स्थान मुगल काल से पहले का है। यहां एक और शिवलिंग है जो खुले में बड़ के पेड़ के नीचे स्थापित है। कहते हैं कि इस शिवलिंग को आवास में रहना स्वीकार्य नहीं है, जब-जब इस जगह मंदिर बनाने की कोशिश की गयी, कोई न कोई व्यवधान हो ही गया।
शिवरात्रि के दिन पूरे परिसर को सजाया जाता है। मेला भी लगता है। पहले दूर दूर से लोग यहां जल चढाने आते थे। रास्ते भर में शिव की जयकार और उनकी भक्ति के गीतों की गूंज सुनाई देती थी। । शाम में शिव की बारात बड़ी शान से निकाली जाती थी। मंदिर परिसर से थोड़ा पश्चिम करीब एक किमी की लम्बाई में एक भिंडा (टीला) था। उस पर घुड़-दौड़ होती थी। टीला इतना ऊंचा था कि दो तीन किमी दूर से ही दिखाई देता था। बचपन में मैं अपने दादी के साथ अनेक बार वहां इस अवसर पर पैदल गया हूं। चलते-चलते जब थक जाता था तो दादी कहती, बस वही भिंडा है। देखो अब पहुंचने ही वाले हैं और हम फिर हिम्मत बटोर कर चल पडते थे। मछहा पोखर (रामपुर दयाल गांव) पर पहुंचते ही वह भिंडा दिखाई देता था। मेला में पहुंचकर एक रबर की गेंद, तब शायद चार आने में मिलती थी, जरूर खरीदते थे। मिट्टी का मैना, खरहा या भेंड़ में से कोई एक भी खरीदवा लेता था, लेकिन न अब वह बचपन रहा न वो बाल-सुलभ उत्साह।
आज सुबह 6 साल के पोते ने अचानक याद दिला दिया –‘बाबा आज मतलूपुर का मेला है‘ तो अपना बचपन याद आ गया। मैं अपनी दादी और चाचा से यही कहकर मेला जाने की जिद करता था। उत्सव तो यह कह कर खेलने लगा। शायद जिद करना अभी नहीं सीखा है। अब वह मेला भी पहले वाला कहां रहा। भिंडा सपाट बना दिया गया। उस पर सरकार ने भूमिहीनों को बसा दिया है। घुड़-दौड़ भी नहीं होती। मेला लगता है, लेकिन रास्ते में श्रद्धालुओं की पहले जैसी भीड़ नहीं दिखती। आस्था का रूप बदल गया है। शायद वक्त का प्रभाव है। अब ढेर सारे मंदिर और शिवालय बन गये हैं। सबके अपने-अपने शिव हैं। आस्था की सामूहिकता टुकडों में जो बंट गयी है !
ब्रह्मानंद ठाकुर/ बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।