मधुरेंद्र कुमार
सवाल नोटबंदी पर नहीं बल्कि नोट की उपलबध्ता को लेकर है। अव्यवस्था का आलम अराजकता को निमंत्रण देने लगा है। बैंक से लेकर एटीएम तक घंटों दिन रात वक़्त गुजार कर मायूस लौटते चेहरे अब हताश नज़र आने लगे हैं। ये बेबसी अब गुस्सा पैदा करने लगी है, यह गुस्सा सड़कों पर है हुजूर। इस गुस्से को थाम लीजिये, वरना अगर ये फूटा तो हिंसा सड़कों पर होगी और हालात संभाले नहीं संभलेंगे !!
जनता की बेबसी, हताशा और गुस्से पर हुक्मरान पर्दा डालने में जुटे हैं तो वहीं विपक्ष के नेता गुस्से को भड़काने और उसे हवा देने में लगे हैं। ये और बात है कि व्यवस्था परिवर्तन के पर्याय बनकर जो चहेरे देश में उभरे थे, उन पर जनता दांव नहीं लगा रही। वरना लक्ष्मी नगर से लेकर आजादपुर मंडी और अंततः रिजर्व बैंक के दरवाजे तक तो सीएम केजरीवाल बंगाली दीदी के साथ जोर आजमाइश करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। जनता के गुस्से को थामकर आंदोलन में तब्दील करने की कुव्वत कुंद दिख रही है, शायद इसलिए क्योंकि जनता वैकल्पिक राजनीति के असली चेहरे को पहचान चुकी है। सड़क से लेकर संसद तक विपक्ष हल्लाबोल तो कर रहा है लेकिन जनता नेताओ पर भरोसा करने से कतरा रही है।
सड़क से संसद तक जनता की परेशानी और अव्यवस्था पर रार साफ़ दिख रही है और इसकी तपिश भी महसूस की जा सकती है। ये अव्यवस्था इसलिये भी विकराल होती जा रही है क्योंकि हाशिये पर खड़े लोगों को पैसा चाहिए- रोटी के लिए, इलाज के लिए, मजदूरी के लिये, खेत के लिए, खलिहान के लिए, रेहड़ी,पटरी दुकान के लिए। और ऐसे लोगो की तादाद देश में सर्वाधिक है। कुल मिलाकर स्थिति साफ है। पैसा चाहिये, बैंक से लेकर एटीएम तक। और हर हाल में इसे देना होगा, जल्द से जल्द देना होगा वरना सिर्फ बीजेपी और सरकार को नहीं बल्कि समूचे देश को इसकी भारी कीमत चुकानी होगी। जिस नोटबंदी से देश को फायदे की उम्मीद है, वह अव्यवस्था की बलि चढ़ जायेगी और नुकसान देश के इतिहास में सर्वाधिक होगा।
मधुरेंद्र कुमार। बिहार के बेतिया जिले के निवासी। पिछले एक दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। इन दिनों दिल्ली में प्रवास।