अरुण प्रकाश
लॉकडाउन का तीसरा दिन। देश के अलग-अलग हिस्सों से गरीबों की मदद करते पुलिसवालों और आम लोगों की तस्वीरें सामने आ रही थीं। मन को सुकून मिल रहा था कि चलो गरीबों का ख्याल रखा जा रहा है, लेकिन तभी शाम को 5-6 बजे के बीच दिल्ली-गाजियाबाद बॉर्डर से जो तस्वीरें आईं वो काफी हैरान करने वाली थीं। एनएच-24 पर अचानक लोगों का हुजूम नजर आया। लॉकडाउन के बीच इतनी बड़ी तादाद में लोगों का सड़क पर आना हर किसी को हैरान कर रहा था । अंडरपास के पास से गुजरते लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग की परवाह बिल्कुल नहीं थी । ऐसा लग रहा था जैसे ये लोग कभी भी एक दूसरे के ऊपर ना गिर जाएं ।
कोई बच्चों की उंगलियां पकड़े चलता जा रहा है तो कोई बच्चों को गोंद में लिए आगे बढ़ता गया तो कोई सिर पर बैग का भारी भरकम बोझ लिए चला जा रहा था। इनमें ज्यादातर लोग यूपी, बिहार या फिर राजस्थान के रहने वाले हैं। कोई यूपी के आगरा जा रहा था तो किसी को मुरादाबाद। कोई भरतपुर के लिए निकला था तो कोई बुलंदशहर के लिए। ये जानते हुए भी कि रास्ते में इन्हें कोई साधन नहीं मिलेगा फिर भी हर कोई बस चला ही जा रहा था।
ऐसा नहीं कि ये सिर्फ एनएच 24 पर ऐसी तस्वीरें देखने को मिलीं बल्कि यमुना एक्सप्रेस वे पर भी मंजर कुछ ऐसा ही था। जगह-जगह लोगों का जमावड़ा नजर आया। किसी को टोल नाके से आगे नहीं जाने दिया जा रहा था तो किसी को कालिंदीकुंज बॉर्डर पर रोक दिया गया। शाम के वक्त लोगों के आने का जो सिलसिला शुरु हुआ वो देर रात तक चलता रहा ।
कालिंदीकुंज के पास लोगों का एक जत्था थककर सड़क किनारे बैठ गया। कुछ लोगों का कहना था कि उनको अपने घर भरतपुर जाना है, लेकिन पुलिसवाले उन्हें यहां से आगे नहीं जाने दे रहे। कमोबेस यही हाल दिल्ली के हर बॉर्डर पर नजर आया। लेकिन सवाल ये था कि कोरोना संकट को जानने समझने के बाद भी लोग ऐसी गलती क्यों कर रहे हैं। क्यों लोग जान जोखिम में डालकर सैंकड़ों किलोमीटर दूर अपने घर के लिए निकल पड़े हैं। दिल्ली सरकार के लाख इंतजामों के बाद भी लोग दिल्ली में क्यों नहीं रुक रहे। क्या इन लोगों के पास दिल्ली में रहने का ठिकाना नहीं या फिर खाने-पीने का संकट खड़ा हो गया है। या फिर इन्हें सरकार पर भरोसा नहीं। सरकारी सिस्टम पर अगर इन्हें जरा भी यकीन है तो फिर ये जान जोखिम में डालकर क्यों पैदल ही घर जाने की जिद पर अड़े हैं।
ये तमाम ऐसे सवाल थे जिसका जवाब किसी के पास नहीं था। इन्हीं तमाम सवालों को लेकर शिफ्ट पूरी होने के बाद मैं भी रात करीब एक बजे दफ्तर से घर के लिए निकल पड़ा। जैसे ही नोएडा मोड़ पर दिल्ली पुलिस की चेकपोस्ट क्रॉस कर कॉलोनी की ओर मुड़ा बस स्टैंड पर 6-7 युवक नजर आए। कोई जमीन पर ही लेटा हुआ था तो कोई बैठा हुआ। इनमें कुछ बच्चे और एक-दो महिलाएं भी थीं। लिहाजा मैंने गाड़ी रोक दी और उनसे बातचीत करने लगा ।
बातचीत के दौरान पता चला कि ये लोग जहांगीरपुरी से दोपहर 3 बजे पैदल निकले थे और आगरा जाना था, लेकिन उन्हें दिल्ली पुलिस ने बॉर्डर क्रॉस करने की परमीशन नहीं दी । लिहाजा लोग वहीं पास में बस स्टैंड पर आराम करने लगे। जब मैंने सवाल किया कि आखिर आपलोग क्यों घर जाना चाहते हैं, क्या आप लोग कोरोना संकट से अनजान हैं। तो एक शख्स बोला भाई साहब जब यहां मरना है तो फिर घर जाकर क्यों ना मरें। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की और पूछा क्या खाने-पीने का इंतजाम नहीं है, क्या रहने का इंतजाम नहीं है, तो एक शख्स बोल पड़ा, नहीं भैया घर पर बच्चा अकेला है। भाई की तबीयत खराब थी उन्हें देखने के लिए बच्चे को पड़ोसी के पास छोड़कर चला आया था लेकिन यहां आते ही लॉकडाउन हो गया फिर बताइए मैं क्या करूं। बच्चा घर पर रो रहा है आज कई दिन हो गए। ऐसे में कब तक इंतजार करते। जब ख़बर मिली कि यूपी सरकार बॉर्डर से लोगों को ले जाने का कुछ इंतजाम कर रही है तो एक उम्मीद बंधी और हम लोग घर से निकल पड़े, लेकिन अब पुलिस वाले रोक रहे हैं । बोल रहे हैं कि सुबह का इंतजार करो तुम सबका चेकअप होगा उसके बाद आनंदविहार से बस से चले जाना। अब देखते हैं सुबह तक । आगे जो होगा देखा जाएगा ।
जब मैंने पूछा खाने-पीने का क्या करोगे आप लोग, थक गए होंगे कुछ खाये-पीये हो कि नहीं तो एक युवक बोला नहीं भैया खाना-पीने तो रास्ते में जगह-जगह इंतजाम था खा लिए हैं हम सभी। हां थक जरूर गए हैं, लेकिन अगर पुलिस वाले जाने देते तो जैसे भी करके हम चलते रहते। इन लोगों की दलील का मेरे पास कोई जवाब नहीं था हालांकि कोरोना को लेकर मैंने उन्हें जो ज्ञान दिया उससे तो वो पूरी तरह इत्तेफाक रखते थे, लेकिन घर जाने का जैसे अटल फैसला भी कर चुके थे ।इन लोगों की दलीलें सुनने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि इनमें तमाम ऐसे लोग भी हैं जो किसी काम की वजह से दिल्ली आए और लॉकडाउन में फंस गए, तो वहीं कुछ ऐसे लोग भी हैं जो दिल्ली-एनसीआर में जिस फैक्ट्री में काम करते थे वहीं रहते भी थे, लेकिन फैक्ट्री बंद है तो ना काम है और ना ही रहने का ठिकाना, लिहाजा वो घर जाना ही बेहतर समझ रहे हैं।
ऐसे लोगों को ना तो सरकार पर ज्यादा भरोसा है और ना ही सरकारी इंतजामों पर । लिहाजा जब काम नहीं है तो वो यहां रहना भी नहीं चाहते वो लौट जाना चाहते हैं अपनी गलियों में, अपनों के पास। लेकिन शायद ये भूल रहे हैं कि उनकी घर जाने की ये जिद उनके अपनों को मुश्किल में डाल सकती है। अगर इसके दूसरे पहलुओं पर विचार करें तो ऐसा लगता है जैसे ये जिस इलाके में रहते हैं वहां के जनप्रतिनिधि या फिर सरकार का कोई नुमाइंदा इन्हें ये भरोसा देने में नाकाम रहा है कि उनका ख्याल सरकार रखेगी।
सरकार की तैयारियों पर तमाचा है.
सरकार की तैयारियों पर तमाचा है. Notebandi ki tarah