पशुपति शर्मा
नहीं कहूँगा कि कहानीकार शेखर जोशी नहीं रहे. उनकी कहानियाँ हमारे साथ हैं तो वो किस्सागो भी हमारे साथ है और रहेगा.
शेखर जोशी जिनका दैहिक वजूद क़रीब 90 साल का रहा… इनमें क़रीब साठ साल वो हिन्दी साहित्य में कुछ रचते रहे, अपनी बात कहते रहे. जेएनयू के दिनों में डॉ वीर भारत तलवार ने जब रस ले-लेकर कोसी का घटवार कहानी सुनाई तो शेखर जोशी से पहली मुलाक़ात हुई. पूँजी से नई दुनिया बसाने के दौर में श्रम की कुंजी के कई क़िस्सों को शेखर जोशी ने कलमबद्ध किया. पहाड़ से जीवन का नाता रहा. शेखर जोशी की कहानियों में निम्न मध्यम वर्ग और श्रमिकों की दुनिया के कई अनदेखे, अनबूझे राज खुले. उन्होंने हिन्दी के पाठकों की संवेदना को थोड़ा समृद्ध किया. अल्मोड़ा के ओलिया गांव में जन्मे शेखर जोशी ने कुछ सालों तक सरकारी नौकरी की. 1986 के बाद से हिन्दी साहित्य की सेवा ही उनका मूल कर्म बन गया. साल 1958 में उनका पहला कहानी संग्रह कोशी का घटवार आया, उसके बाद साथ के लोग, नौरंगी बीमार है, डाँगरी वाला, प्रतिनिधि कहानियाँ… अलग-अलग नाम से कहानियाँ आती रहीं और वो चर्चा में बने रहे. पुरस्कारों से कोई ख़ास मोह नहीं रहा, फिर भी जो झोली में आए उन्हें सम्मान के साथ क़बूल किया. जिए भी आम लोगों के लिए दिल धड़कता रहा और साँसें थमीं तो समाज के लिए अपनी देह दान कर दी.
कथाकार शेखर जोशी तो हमेशा के लिए ख़ामोश हो गए, लेकिन हम और आप उनके लिखे को पढ़ते रहें, कहते-सुनते रहें, हुंकारा भरते रहें. एक कथाकार को यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
- पशुपति शर्मा