‘यहां तक आते आते सूख जाती है नदियां, मुझे मालूम है, पानी कहां ठहरा होगा।’ दुष्यंत जी की ये पंक्तियां किसान और सरकार के फैसले को लेकर बड़ी सटीक बैठती हैं । इसको इस तरह समझ सकते हैं । सरकार हर साल उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है, लेकिन कितनी जगहों पर किसानों को उसका लाभ मिलता है ये किसान से बेहतर कोई और नहीं जानता । बीते खरीफ मौसम में मुजफ्फरपुर जिले में 1.32 लाख टन धान क्रय का लक्ष्य निर्धारित किया गया था जबकि 31 मार्च तक लक्ष्य का मात्र 26 प्रतिशत धान ही खरीदा जा सका। किसानों ने अपना धान बिचौलिए व्यापारियों से एक हजार रूपये क्विन्टल की दर से बेचने को मजबूर हो गए । इसमें नोटबंदी का काफी सहयोग भी मिला, कोई अनाज खरीदने को तैयार ही नहीं था लिहाजा औने-पौने भाव में बेचना पड़ा । यही हाल इस बार गेहूं का है। सरकार ने 1625 रूपये प्रतिक्विनटल गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया है। 15 अप्रैल से क्रय केन्द्र हर हाल में चालू करने की बात थी, लेकिन ज्यादातर क्रय केन्द्र चालू ही नहीं हुए ।
मैं खुद एक किसान हूं। मार्जिनल फार्मर । मैं भुक्तभोगी हूं और काफी निकट से देख रहा हूं कि कैसे पिछले 40 सालों से किसान खेती से मुंह मोड़ते रहे हैं। 40 साल पहले खेती में पूंजी की लागत काफी कम थी । बीज अपना था । रासायनिक खाद और कीटनाशकों का उपयोग न के बराबर था। खेती की देशी तकनीक थी। हल-बैल अपना था। फसल चक्र का उपयोग लोग करते थे। मवेशी पालते तो गोबर की खाद पर्याप्त हो जाती थी। मूंग, ढैंचा, सनई हरी खाद के लिए बोया जाता था। नगद खर्च काफी कम होता था। 5 बीघा जमीन जोतने वाला किसान साल में सारा खर्च काट कर ढाई-तीन हजार का बचत कर लेता था । तब ढाई-तीन हजार बहुत होता था। एक रूपये में तीन सेर दूध, 28-30 रूपये मन चावल और 12-15 रूपये मन आंटा मिलता था। यह बात है करीब साठ के दशक की । सत्तर के दशक में देश के प्रसिद्ध कृषिवैज्ञानिक एम स्वामीनाथन ने हरित क्रांति की शुरुआत की। तब खाद्यान्न उत्पादन के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने में किसानों ने बड़ी भूमिका का निर्वाह किया । शायद उसे पता नहीं था कि बाद में यही हरितक्रांति का नारा उनके गले की फांस बन जाएगा। 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने ‘ जय जवान, जय किसान ‘का नारा दिया । किसानों ने बड़े जोश के साथ देश के खाद्यान्न उत्पादन में कीर्तिमान स्थापित किया।
हरित क्रांति के बाद हमारी परम्परागत देसी तकनीक गायब होने लगी। आधुनिक खेती में हिईब्रिड सीड, रासायनिक उर्वर्कों, कीटनाशक और तृणनाशक रसायनों का उपयोग बढ़ने लगा। बड़ी ही चालाकी से सुनियोजित तरीके से परम्परागत बीजों की गुणवत्ता एवं उत्पादकता सम्वर्धन की जगह किसानों को बहुराष्ट्रीय बीज उत्पादक कम्पनियों का गुलाम बना दिया गया। हल की जगह ट्रैक्टर ने लिया । सरकारी नलकूप बेकार हुए तो उसे ठीक कराने और नियमित बिजली आपूर्ति सुनिश्चित कराने की जगह डीजल चालित पम्पसेट्स का जाल बिछवा दिया। किसान जब इसके अभ्यस्त हुए तो 1970 में 90 पैसे प्रति लीटर बिकने वाला डीजल 60 रूपये प्रति लीटर के पार चला गया । यानी फसल की लागत बढ़ती गई और किसान बदहाल होता गया और आज आलम ये है कि देश का अन्नदाता खुदकुशी को मजबूर है और उन्हीं की पैदावार से बहुराष्ट्रीय कंपनियां मालामाल हैं ।
अब जरा धान और गेहूं की फसल के व्यावहारिक अर्थशास्त्र पर ध्यान दिया जाए । एक एकड़ धान की खेती करने में बीज, कदव, उर्वरक, रोपाई, सिंचाई, निकौनी, फसल कटाई और तैयारी में औसतन 20 हजार रूपये खर्च होता है। पिछले 5 सालों से लगातार सूखा और अल्प वृष्टि की स्थिति रहने की वजह से कम से कम 8 सिंचाई करनी पडती है। किसानों को किस्मत साथ दिया तो एक एकड़ में उपज होगी अधिकतम 16 क्विंटल। इसका बाजार मूल्य होगा 16-20 हजार रूपये। मतलब प्रति एकड़ किसान ने जितनी लागत लगाई किसी तरह वो निकल सकी । इसी तरह एक बीघा गेहूं की खेती की बुआई से लेकर कटाई तक कम से कम खर्ज होता है करीब 13-14 हज़ार रुपये और गेहूं का उत्पादन एक बीघा में अधिकतम होता है करीब 12 क्विनटल । जिसका बाजार मूल्य होगा करीब 18-20 हजार रूपये । वह भी तब जब फसल आंधी बर्षा और ओलावृष्टि से बच जाए।
इस हालात में किसान पुराना हिसाब चुकता करे या फिर अगली फसल की तैयारी के लिए पैसा जुटाए । लिहाजा धीरे-धीरे किसान कर्ज को बोझ तले दबता चला जाता है । यही नहीं जरा सोचिये इस हालत में एक किसान कैसे अपने परिवार की परवरिश करेगा । बेटी की शादी कैसे करेगा या फिर बच्चों की पढ़ाई कैसे करेगा। यानी हर हाल में उसे कर्ज लेना ही पड़ता है और उसकी अदायगी का कोई साधन नहीं रहता । पिछले दिनों तमिलनाडु के किसान अपनी मांगों को लेकर दिल्ली तक पहुंचे ताकि हमारी बहरी सरकारों की नींद खुल सके । हालांकि 41 दिन के आंदोलन के बाद उन्हें महज आश्वासन लेकर लौटना पड़ा है ।
ब्रह्मानंद ठाकुर/ BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।