धीरेंद्र पुंडीर
ये अहंकार आप पर फबता नहीं है केजरीवाल जी। आप मुलायम, अजित या नीतिश नहीं है कि कोई कबीला (जाति) आपके अंहकार को पुरस्कार मान कर ग्रहण करे। ईवीएम के झूठ को बोलना बंद करो।
केजरीवाल के आसपास के लोगों को भाग निकलना चाहिए थोड़े दिन के लिए, नहीं तो वो भी उन ईंटों की जद में आ जाएंगे जिसको अब केजरीवाल बजाने में जुट जाएंगे। दिल्ली के एमसीडी चुनावों में बीजेपी ने जीत हासिल कर ली है। आंकडो़ं से बंपर कहने से ज्यादा पार्टी इस बात पर ज्यादा इतरा सकती है कि उसको दस साल की एंटी इंकबैंसी की लहर नहीं झेलनी पड़ी बल्कि उसकी लहर और आ गयी। ऐसा क्या हो गया है। इस पर विपक्षी विचार करेंगे ही लेकिन इस पर मीडिया के उन साथियों को भी विचार करना चाहिए जो इतने दिनों से केजरीवाल की वंदना कर रहे थे, जिन्हें उनमें रब दिखता था। रब देखा और रब दिखाया, दोनों ही काम किये।
मेरा सिर्फ इस बात पर विरोध रहा है कि खबर और विचार दोनों का घालमेल नहीं करना चाहिए। खैर! बात केजरीवाल साहब पर हो रही है। मैं उस वक्त को भी याद करता हूं- जब केजरीवाल ‘परिवर्तन’ एनजीओ से निकल कर रामलीला मैदान का रास्ता तय कर रहे थे। ये रास्ता इतनी तेजी से पूरा हुआ कि वो सिर्फ सत्ता की चालबाजियां ही सीख पाए लेकिन राजनेताओं के काम के बारे में कुछ नहीं सीखा। जिन लोगों ने उनको रामलीला मैदान से पहले नहीं देखा था, उनको वो 52 गज के ही नजर आए थे। दिल्ली की जनता ने बिना एक बार भी सोचे हुए दो बार उनको सत्ता का ‘दंड’ सौंप दिया।
मैंने उनको उस वक्त भी देखा और फिर वो वक्त भी आया कि उनके सुर और ताल दोनों से विलग आवाज़ पर दिल्ली के हजारों लोगों ने उनको शपथग्रहण के समय पर सुना। लोगों को उनके गले से मोहम्मद रफी की आवाज नहीं, उनके काम से भ्रष्ट्राचार के विरोध की आवाज चाहिए थी। आवाज तो आई थी इसीलिए जनता ने बिना सोचे विचारे गाजियाबाद में रहने वाले ज्यादातर लोगों को दिल्ली का नायक बना दिया। वो दिल्ली, जिसमें राजनीति करने का ख्वाब कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर हिुंदुस्तानी देखता है। जो गुस्सा भ्रष्ट्राचार के खिलाफ उनको नायक बनाए हुए था, वही गुस्सा उन्होंने देश के सामाजिक ताने-बाने के खिलाफ दिखाना शुरू कर दिया।
पहले तो अपने सहयोगियों में से अपने आप को अन्ना का मानस पुत्र साबित किया। फिर सबसे लोकतांत्रिक और फिर सबसे बड़ा स्टार। इस प्रक्रिया में बहुत से मीडियाकर्मियों ने काफी सहयोग किया। आगे चलकर काफी उनके साथ ही हो गये प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष तौर पर।
और फिर शुरू हुआ लोकंत्रातिक मर्यादाओं को तार-तार करने का काम। केजरीवाल की आवाज ही पार्टी की आवाज हो गई। केजरीवाल की खुशी पार्टी की खुशी। केजरीवाल का गुस्सा पार्टी का गुस्सा। केजरीवाल ने एक ऐसे नायक के तौर पर अपनी छवि गढ़ ली थी कि उसको अन्याय बर्दाश्त नहीं इसीलिए वो अपने साथियों के साथ अन्याय कर रहा है क्योंकि उसको न्याय का शासन चाहिए।
मुख्यमंत्री बने और कोई विभाग नहीं लिया। लोगों को झटका लगा लेकिन निराशा नहीं, सोचा कि सब पर निगाह रखेंगे। लेकिन केजरीवाल को दिख रहा था कि सिविल लाइंस से सात रेसकोर्स रोड की दूरी तो उससे भी कम है जितनी परिवर्तन एनजीओ और रामलीला मैदान के बीच थी। लिहाजा पूरे देश में कम्यूनल ताकतों को हराने का महती कार्य करने में लग गए। उन्होंने मनीष सिसौदिया को अपना खड़ाऊं सौंप दिया। मनीष ने हर काम किया, बस जनता का काम नहीं किया। ये बात कितनी आश्चर्य की है कि मुख्यमंत्री कभी यूपी में चुनाव लड़ रहा है कभी पंजाब का मुख्यमंत्री बनने की अफवाहें अपने ही पार्टी के कै़डर में फैला रहा है। और हर बात पर प्रधानमंत्री मोदी को गालियां।
मैं केजरीवाल और दूसरे राजनेताओं के अहंकार में अतंर की बात कर रहा था। केजरीवाल ये समझने में चूक गए कि बाकी तमाम क्षेत्रीय नेता- चाहे वो अखिलेश यादव ही क्यों न हों, वो पहले यादव हैं और फिर उसका गठबंधन। चाहे नीतीश कुमार हों, वो पहले कुर्मी नेता और बाद में गठबंधन के नेता। या फिर अजित सिंह हो, वो पहले जाट और फिर गठबंधन के नेता। ये सब जातिवादी राजनीति की पैदाईश हैं। वो एक न एक जाति के नायक हैं और उनकी जाति हर काले-सफेद में उनके साथ खड़ी होती है। केजरीवाल किसी जाति के नायक नहीं थे वो जनता के नायक थे। ऐसी जनता जो देश के बाकि हिस्सों से ज्यादा औसत आय, ज्यादा बेहतर शिक्षा व्यवस्था और कम्युनिकेशन के साधन रखती है। ऐसी जनता जो देश का सही मायनों में प्रतिनिधित्व करती है। उस जनता ने जिस आदमी को जाति-धर्म और इलाके से उठ कर सिर पर बैठाया था उसका अहंकार उस जनता को नहीं भा सकता था क्योंकि उसका कोई अहसान जनता पर नहीं था। बल्कि जनता का अहसान उसको उतारना था। लेकिन केजरीवाल साहब ने जनता को सिर से उतार पर फेंक दिया।
मैं यहां केजरीवाल साहब के अपने बच्चों की झूठी कसमों की कर रहा हैं। बड़ी गाड़ी या बंगले न लेने की कसमों की बात कर रहा हूं। मैं यहां बात उस जनता के विश्वास की कर रहा हूं, जिसने टीम केजरीवाल से बहुत उम्मीदें पाल रखीं थीं। अब भी मुझे लगता है कि इस तरह के एक नेता की जरूरत है जो जाति-क्षेत्र से ऊपर उठकर जनता का प्यार हासिल करे लेकिन केजरीवाल साहब आप शायद वो नेता नहीं रहे। आपके अहंकार ने आपके समर्थकों को निराश किया है, उनको दिलासा नहीं दिया। ईवीएम की धमकी तो उस बच्चे से भी ज्यादा बचपना है जो अपना बैट तो रखता है और आउट न होने की शर्त पर ही खेलता है। यहां तो जनता के हाथ ही बल्ला है और जनता के पास ही चौके-छक्के लगाने का हुनर भी। ईवीएम की कोई औकात नहीं है साहब।
धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंढीर की अपनी विशिष्ट पहचान है।