धीरेंद्र पुंडीर
एक के बाद एक माफी का सिलसिला चल निकला। याद है कि इस शख्स ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी लेकिन कोई मंत्रालय नहीं क्योंकि देश भर में पार्टी को स्थापित करना था। और लोकतंत्र के लिए कैंसर बन चुके भ्रष्ट्राचार के खिलाफ एक निर्णायक जंग भी लड़नी थी। और इसीलिए हर एक खांसी पर दुश्मन के लिए गालियां निकलती थीं। फूलों की तरह बरसती थीं, केजरीवाल की गालियां।
हर बड़े आदमी ( मैं किसी को ईमानदारी का सर्टिफिकेट नहीं दे रहा हूं) की कहानियां जनता में है। केजरीवाल की भाषा के सेलेक्शन के वक्त भी बहुत बातें होती थीं, उस वक्त के अन्ना टीम के कुछ सदस्यों से। मेरे लिए एक ही आश्चर्य होता था कि कैसे एक आईआईटी और आईआरएस आदमी तू-तड़ाक की भाषा में बात करता है। लेकिन मैं इसको शराफत नहीं काईंयापन के तौर पर देखता था क्योंकि अरविंद केजरीवाल ने अपनी अब तक जिंदगी ठीक-ठाक परिवार और बाद में देश के राजाओं की जमात में एक सदस्य के तौर पर गुजारी थी। खैर कवरेज होती रही।
मैं लगातार अन्ना टीम के उन मेंबर्स से दूर होता चला गया जो केजरीवाल के करीब होते गए। क्योंकि हर बात में झूठ की मोहर लगाते हुए उन लोगों का अतीत कुछ भी दिलासा नहीं दे रहा था। और तालिब की ‘ब्लैक स्वान’ थ्योरी का यहां कोई नाम नहीं दिख रहा था। बस हर तरफ एक बदले हुए माहौल को कैश करने की होड़ थी। कई बार देश के हालात काफी कुछ बता देते हैं। उस वक्त के हालात थे कि सूंड में सत्ता की माला लिए जनता रूपी हाथी किसी नायक को तलाश रही थी। ऐसे में बहुत दिन से अपने पंपलेट लेकर खबर के तौर पर छपवाने में मीडिया का चरित्र समझ चुके केजरीवाल ने अपना दांव चल ही दिया।
खैर कहानी सबको याद है। इस मंडली में बचे हुए लोगों का किसी भी सिद्धांत या विचारधारा से कोई लेना देना नहीं है। ऐसे में किसी को शहीद कहना उसकी कटी ऊंगली को फांसी मानना है। कुमार विश्वास जैसे मंचीय चुटुकुलाबाज हो या फिर आज शहादत की फटी हुई चादर लपेटे मिश्राजी सब कोई सत्ता की चाशनी में अपनी ऊंगलियां डुबाने के लिए बेताब है। इस दौरान कुछ कुछ अच्छा काम भी हुआ है। क्योंकि सत्ता जब मिल जाती है तो सबसे पहली और शदीद इच्छा होती है उस सत्ता को स्थायी रखने के कोशिश करना। उस कोशिश में कुछ काम भी होते हैं।
जिन लोगों को असम गण परिषद की याद है, उनको लग सकता है कि ये सिर्फ एक दोहराव है। यूं असम गण परिषद की कोई तुलना आम आदमी पार्टी से नहीं हो सकती है क्योंकि असम गण परिषद के लिए छात्रों ने खून दिया था। सपनों के लिए जान की बाजी लगाई थी। अगप और आप दोनों में वो भीड़ सच्ची थी जो बदलाव के लिए गुवाहटी हो या फिर दिल्ली दोनों शहरों में तिरंगें लेकर नारे लगा रही थी। नेताओं की जमात की सत्ता लोलुपता ने सपनों को मिटा डाला।
मेरे लिए ये लिखना सिर्फ ये याद करना नहीं है कि अरविंद केजरीवाल ने क्या किया। मुझे पहले से ही अरविंद पर पक्का भरोसा था कि वो ऐसा ही करेगा। लेकिन आज लिखने का मन इसलिए हुआ कि जार्ज ओरवेल के लोक प्रसिद्ध उपन्यास एनिमल फ़ॉर्म में क्रांति के बाद दीवार पर लिखे गए सात नियमों को किस तरह एक-एक कर के खत्म किया गया। और उससे भी बड़ी बात ये कि सौरभ भारद्वाज टाइप बुद्दिमान अपनी समझ से इसको सही साबित करने में जुट जाते हैं। और हैरान परेशान जनता ये समझ ही नहीं पाती कि दीवार पर क्रांति के वक्त क्या लिखा था।
“ पर क्या सिर्फ यही हासिल करने के लिए जानवरों ने संघर्ष किया था। महज इन्हीं कुछ चीजों को लिए उन्होंने पवनचक्की बनाई थी और जोंस की गोलियां खाई थीं ? — क्लोवर यही सब सोच रही थी। पर इन्हें व्यक्त करने के लिए उसके पास शब्द नहीं थे।
अपनी भावना को व्यक्त न कर पाने की अकुलाहट में वह इंग्लैं के जानवर गीत गाने लगी। उसके साथ सटकर बैठे सभी जानवर उसका साथ देने लगे। सभी धीमे सुर में गा रहे थेय़ उन्होंने तीन बार इसे गाया। उनके स्वर में एक अजीब उदासी थी। ऐसा पहली बार हुआ था।
जब उन्होंने तीसरी बार गाना खत्म किया, तभी स्क्वीलर दो कुत्तों के साथ आ पहुंचा। उसकी भाव-भंगिमा से लगा, जैसे वह कुछ खास बात कहने वाला हो। उसने जानवरों को बताया कि कॉमरेड नेपोलियन के विशेष आदेश से “इंग्लैंड के जानवर” गाने पर रोक लगा दी गई है। आज के बाद इसे कोई नहीं गा सकता। जानवरों को झटका लगा।
क्यों ? मुरियल ने पूछा“अब इसकी जरूरत नहीं रह गई है”, कॉमरेड स्क्वीलर ने सख्ती से कहा, “यह विद्रोह का गाना था। विद्रोह समाप्त हो चुका है। दोपहर मे गद्दारों को सजा देकर इसका आखिरी अध्याय भी समाप्त कर दिया गया है। अंदरूनी और बाहरी शत्रुओं का सफाया हो चुका है। ‘इंग्लैड के जानवर’ में हमने एक बेहतर समाज की स्थापना की अपनी आकांक्षा प्रकट की थी। वह अब स्थापित हो चुका है। इसलिए अब इस गाने का कोई मतलब नहीं रह गया है।”
सारे जानवर एक बार फिर डर गए। कोई कुछ कहता , इससे पहले ही भेड़ों ने अपना वही राग अलापना शुरू किया, “चार पैर अच्छा, दो पैर बुरा”, कुछ मिनटों तक इसे दोहराया, जिससे बहस की गुंजाईंश खत्म हो गई। । उसके बाद “इंग्लैंड के जानवर” कभी नहीं सुना गया। (उपन्यास एनिमल फॉर्म से)
धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंडीर की अपनी विशिष्ट पहचान है।