यतीन्द्र मिश्र
एक शानदार कविता ने जैसे अपना शिखर पा लिया हो। कथ्य की आभा से छिटककर तारे की द्युति सी चमक। केदारनाथ सिंह के निधन का आशय बस इतना भर नहीं हो सकता कि एक बुजुर्ग कवि अपनी काया की धूल-माटी झाड़कर इस दुनिया से रुख़सत हो गया। होना इससे परे चाहिए कि इस धरती पर एक ऐसी संवेदनशील रहवारी थी, जिसके लिए प्रकृति के सारे जीवंत बिंब ख़ुद कविता के संसार में तरल हुए जाते थे.. उनके लिए नीम का झरना, जीवन में उदासी का मौसम लाता था, नदियाँ मनुष्य की सगोत्री बन शवों का इंतज़ार करती थीं.. और दुनिया जहान के पशु-पक्षी कहीं न कहीं उनकी कविता की दुनिया के किरदार बन मुँह चिढ़ाते थे कि देखो कैसे हमने केदारनाथ सिंह के कविता के घर में स्थायी घोंसला और निवास बनाया हुआ है।
उनके इब्राहिम मियाँ का ऊंट हो या तू फू और ली पै के घोड़े, मिलारेपा के बहाने भेड़ के बच्चे की याद या पूस की रात में युधिष्ठिर के साथ वापस लौटता हल्कू का कुत्ता-ये सब मानवीय चरित्रों की आदर्श गाथाएँ हैं, जिसका सर्जक ऋग्वेद से नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश जैसे ठेठ हिन्दी प्रदेश के अतिसाधारण चकिया गांव से निकलकर सामने आता है। हिन्दी के देश में अपने भोजपुरी घर के लिए भाषाओं की दोस्ती से पुल बनाता हुआ।
केदारनाथ सिंह के जीवन का यदि हम रूपक बनाएं तो हवा, पानी, मिट्टी के साथ सामंजस्य बनाते हुए बौद्ध जातक -कथाओं की कहानियों में मिलने वाली रोशनी का हिस्सा देखना पड़ेगा। खलिहानों, खेतों, बस्तियों, नदियों, वनस्पतियों, और सूर्य की ओर ताकते सूरजमुखियों का कमाया हुआ प्रकाश !
ये केदार जी का विनम्र जनपदीय किरदार था कि कविता में प्रकृति से चुनकर फूल और उसकी सुगन्ध टाँकते हुए और नदी की कलकल से बतियाते हुए भी उनके आगे-आगे कवि त्रिलोचन चल रहे थे। त्रिलोचन के पीछे चलते हुए, कुँवर नारायण से हमकदम और अज्ञेय, शमशेर के पदचिन्हों पर खुशी से बिछ जाने वाले कवि के पीछे हम जैसे ‘जँह-तँह करत प्रकास’ वाली कविता की नई पीढ़ी के ढेरों कवि, उनकी गरिमा और सादगी से चकित और ऊर्जस्वित खड़े हैं। अपनी कविताओं की अंजुरी से जल देने के लिए। आधे फूल और आधे शंख से नहीं, पूरे शंख और पुष्प की आभा से प्रणामपूर्वक !!
अलविदा केदार जी!