धीरेंद्र पुंडीर
कश्मीर के हालात का पहला जायजा तो आपको फ्लाईट में बैठते ही हो जाता है। पहले आपको फ्लाईट में टिकट के लिए इंतजार करना होता था। ये बहुत मुश्किल था कि आप अपनी मर्जी की तारीख पर किसी फ्लाईट्स में श्रीनगर का टिकट बुक करा सकें। अक्तबूर तक चलने वाले सीजन में देश भर का पर्यटक हिंदुस्तान की जन्नत को देखने आना चाहता था। हिंदी फिल्मों से कश्मीर भले ही गायब हो गया लेकिन हिंदुस्तानी लोगो के दिल में कश्मीर और भी खुशबुओं के साथ बस गया है।
फ्लाईट्स में काफी सीट्स खाली हैं। ज्यादातर लाइनों में महज विंडो सीट्स भरी हुई है। बाकी खाली हैं। फ्लाईट्स में पसरी हुई खामोशी आपको आगे के सफर का पता बता देती है। घंटे भर की फ्लाईट में आप खामोशी से पूरा सफर तय करते हैं। प्लेन के अंदर होने वाले एनाउंसमेंट का बेसब्री से इंतजार करते हैं कि कब वो अपनी तैयार की गई आवाज में आपको ये सुना दे की सीट बेल्ट कस लें, कुछ ही देर में हमारा प्लेन श्रीनगर में लैंड करने वाला है।
कश्मीर में ठहरा वक़्त-2
प्लेन ने लैंड किया और पहली बार आपको प्लेन के अंदर आम सरगर्मी दिखती है। उतरने से पहले सीटों से निकल कर प्लेन के बीच के पैसेज में खड़े हो जाने वाली जल्दी। कुछ देर तक इंतज़ार करते हैं और फिर आप बाहर की ओर निकल आते हैं। नीचे उतरते हुए आप खुद को अंदर से बहुत खामोश पाते हैं। जहाज के दरवाजे से सीधे लाउंज में खुले रास्ते से चलते हुए भी आप लोगों के चेहरों पर कुछ खोजने की कोशिश करते हैं। लेकिन सपाट चेहरे अजनबी होने के साथ ही बेनज़र से भी दिखते हैं। वो आपको नहीं देख रहे हैं या फिर आप उनको दिख नहीं रहे हैं।
प्लेन के अंदर पी गई चाय का टेस्ट कभी का हवा हो चुका था। आप कन्वेयर बेल्ट पर पहुंच कर एक ट्राली पकड़ कर अपनी बारी का इंतजार करने लगते हैं। समय हर बार की तरह ही लग रहा हो लेकिन आपको लगता है कि ज्यादा लग रहा है। आस-पास कश्मीरी भाषा की आवाजें इस से पहले कभी इतनी अजनबी नहीं लगीं। लग रहा है जैसे चेहराविहीन आवाजों के बीच से आप गुजर रहे हैं। ख़ैर सामान लिया। बाहर गाड़ियां दिख रही हैं, यात्री नहीं। जाने कहां चले गए इन कारों में बैठ कर आने वाले लोग या फिर इंतजार करने वाले लोग।
अपनी गाड़ी में बैठ कर चुपचाप गाड़ी की खिड़की से झांकना शुरू करता हूं। ये हवाई अड्डा कुछ दिन पहले तक भी भरा हुआ दिखता था। और बाढ़ में डूबे हुए शहर के लोगों से बात करने पर लगता था कि सिर्फ शहर डूबा था लोग नहीं। भारी तादाद में वो मजदूर जो दूसरे राज्यों से इस राज्य में काम की तलाश में आए थे अचानक स़ड़कों पर दिखाई दिए थे। बहुत ज्यादा नही लेकिन कुछ लोगों ने उस वक्त भी इस शहर के अजनबीपन को महसूस किया था। वो यादें भी इस वक्त पर हावी हो रही थीं।
खैर गाड़ी में बैठ कर चले तो एअरपोर्ट के बाहर लाईन से खड़ी सुरक्षा बलों की कतार कहानी को आगे बढा रही थी। हथियारों से लैस जवानों ने बुलेटप्रूफ वेस्ट और सिर पर कैप भी लगाई हुई थी। गाड़ी शहर में घुस रही थी। कुछ दूर तक चलने पर समझ में आया कि शहर में अभी शहर जैसा कुछ भी नहीं दिख रहा था। शहर को शहर बनाने वाली दुकानें बंद थी। ताले पड़े हुए थे। खरीददार भी सड़कों पर नहीं थे। कई सड़कें पार कर आगे की ओर बढ़ते चले जा रहे थे। गाड़ी में भी खामोशी छाई हुई थी और उस खामोशी से घबरा कर हमने बात करनी शुरू कर दी।
नजीर अहमद कश्मीर में पैदा हुए और वही नौकरी कर रहे हैं। सरकारी नौकरी यहां इंडिया की नौकरी कहलाती है। अहमद साहब उसी इंडिया की नौकरी कर रहे हैं। बातचीत शुरू हुई तो पूछा कि ये क्या हो रहा है। अहमद साहब ने कहा सब कुछ पॉलिटिक्स करा रही है। कभी एक पार्टी कराती है और फिर दूसरी पार्टी। कुछ बाहर के लोग कराते हैं कुछ इंडिया कराता है। लगभग ऐसी बातें मैंने कश्मीर में इतनी बार सुनी है कि मैं बिना कोमा या फुलस्टॉप के इन पर घंटों बात कर सकता हूं। मैंने इस बात को आगे बढ़ाया कि इंडिया किस तरह कर रही है। इंडिया चाहे तो इस मसले को आसानी से हल कर सकती है।
सोशल मीडिया के इस जमाने में हर चीज आसानी से बदली जा सकती है। हर चीज को आसानी से घटाया या बढाया जा सकता है। किसी को बनाया जा सकता है। ऐसे में कश्मीर में इस तरह की बात सुनना मुझे किसी आश्चर्य में नहीं डालता। पिछले तीन महीने से कश्मीर की सड़कों पर पत्थरबाजों की भीड़ उमड़ आई है। राज्य में सरकार और दिल्ली में बैठी सरकार को पिछली किसी कहानी की तरह इसके भी गुजर जाने का इंतजार शुरू हो गया। लेकिन इस बार इस हादसे ने जैसे गुजरने से इंकार कर दिया हो। एक साथ एक जैसा एक ही वेग से महीनों से ये संकट सिर पर झूल रहा है। सरकारों को समझ नहीं आ रहा है कि इससे कैसे निबटा जाए। हर आदमी के पास हल करने के सैकड़ों तरीके हैं।
खैर यात्रा शुरू की। पहले अवंतीपोरा गए। रास्ते भर बंद सड़कों पर हलचल का कोई निशान नहीं। लोग एक्का दुक्का खड़े हैं तो उनको किसी बाहर के आदमी से बात करने मे दिलचस्पी नहीं दिखी। लोगों को लग रहा था कि इन लोगों से बात करने के कुछ हल नहीं होने वाला है।
धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंडीर की अपनी विशिष्ट पहचान है।