विकास मिश्रा
8-9 साल की उम्र रही होगी, जब मैंने पहली बार पाव-रोटी खाई थी। चाय में डुबोकर जब मुंह में डाला तो ऐसा लगा जैसे स्वर्गलोक में चले गए हों। नितांत पिछड़े गांव के बच्चे के लिए तब पाव-रोटी सपना ही तो हुआ करता था। जब घर से बाहर निकले तो ब्रेड-बटर, छोला-समोसा, टिक्की, गोल गप्पा, कचौड़ी जैसे व्यंजनों से भेंट हुई। ये सारे व्यंजन रात में सपनों में आते रहते थे। जब भी बृजमनगंज, उस्का बाजार, नौगढ़ या गोरखपुर गए तो मौका देखते ही समोसा- छोले पर टूट पड़ते थे। गोरखपुर पढ़ने गया तो गोलगप्पों का चस्का लग गया। 1 रुपये में 20 मिलते थे, दिद्दा पैसे खूब देती थीं, वो पैसे गोल-गप्पा, समोसा खाने के काम आते थे। उसी दौरान कोल्ड ड्रिंक से भी मुलाकात हुई गोरखपुर में। सुना कई लोगों से था कि पियो तो डकार आती है, जो बहुत ही मस्त होती है।उस वक्त डेढ़ रुपये में गोल्ड स्पॉट और कोक की एक बोतल मिलती थी। पहली बार पिया तो पूरा पिया न गया। डकार मारी तो खांसी आ गई। बाद में तो पूछिए मत, मौका मिलते ही कोल्ड ड्रिंक गटागट अंदर।
समय के साथ उम्र बढ़ी, मसाला डोसा, इडली-सांभर, चाऊमीन जैसे नए-नए व्यंजनों का साथ मिला। तब मैं ही नहीं, सभी दोस्त कहते थे कि नौकरी लगने के बाद घर का खाना बिल्कुल नहीं खाएंगे। बस चाऊमीन, डोसा ही खाएंगे। इलाहाबाद पढ़ाई के दौरान पैसे बचाकर हर महीने एक बार एल्चिको रेस्टोरेंट में चाऊमीन खाने चले जाते थे। नौकरी लगी, कमाई बढ़ी तो बाहर खाने का रिकॉर्ड तोड़ दिया। ‘विचार मीमांसा’ में काम करने के दौरान ज्यादातर बाहर ही रहा तो फुटपाथ से लेकर फाइव स्टार तक जाकर खूब खाया। बाहर के खाने में कैवल्य प्राप्त हो गया। कुछ महीने बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि घर के खाने से बेहतर कहीं कुछ नहीं है। शुद्ध खाना, स्वादिष्ट खाना, पौष्टिक खाना, पवित्र खाना सिर्फ घऱ में ही मिल सकता है, बाहर नहीं। मैं अब बिल्कुल भी बाहर नहीं खाना चाहता, बहुत मजबूरी में ही जाता हूं। खास तौर पर बच्चों का साथ देने के लिए।
मेरा बेटा और कई भतीजे-भतीजियां, भानजे-भानजियां अभी उम्र के उस दौर में हैं, जहां से मुझे बाहर खाने के सपने आते थे। इन्हें भी ऐसे ही सपने आते हैं। मैं जानता हूं कि घर के खाने से बेहतर कहीं का खाना हो ही नहीं सकता, ये वो सच है, जो हर इंसान महसूस करता है, लेकिन मेरी उम्र के आस-पास पहुंचने के बाद। या फिर नौकरी मिलने के कुछ महीने बाद। जिसने बरसों तक सिर्फ बाहर ही खाना खाया हो, वो घर के खाने की कीमत समझता है, लेकिन नई पीढ़ी में जिसे घर का खाना उपलब्ध है, उसकी आत्मा रेस्टोरेंट और होटल के आस-पास ही भटकती है। ये वो सच है, जिसे सिर्फ अनुभव किया जा सकता है, नई पीढ़ी को समझाया नहीं जा सकता। हमें भी बचपन से लेकर किशोरावस्था तक बाहर कुछ खाने को लेकर घर से खूब डांट पड़ती थी। समझाया जाता था कि बाहर का खाना नुकसानदेह है, घर का पौष्टिक। तब हमारी समझ में ये बातें नहीं आती थीं, समझाने वाले चालू नजर आते थे। अब हम समझाने वालों के दौर में है। अगर समझाएं तो बच्चे चालू समझेंगे। तो समझाता नहीं हूं। मेरा बेटा कहता है कि वो रोज बाहर का खाना खा सकता है, लगातार महीनों तक, घर के खाने की याद भी नहीं आएगी। मैं सुनता हूं, क्या कहूं। वो समझेगा, लेकिन उस उम्र और हालात में जब मुझे घर के खाने की अहमियत पता चली थी। आज हर घर की बड़ी समस्या है कि बच्चे घर का खाना खाना ही नहीं चाहते, बाहर के माल पर झपट्टा मारते हैं।
10 में से 8 घरों में आप देखिए तो पाएंगे कि मां बच्चों के पीछे-पीछे दौड़ती रहती है, कुछ खिलाने के लिए। चावल-दाल में घी चाहे जितना डाल लो, बच्चा मुंह में लेगा, लेकिन पेट तक ले जाने में मम्मी को शीर्षासन करवा देगा। हां, वहीं अगर लेज के चिप्स हों, हल्दीराम की भुजिया हो, कुरकुरे हों तो बच्चे कब सफाचट कर गए पता भी नहीं चलेगा। दूध गले में अटकेगा, लेकिन कोल्ड ड्रिंक मिल गया तो दे गटागट। ऐसे में मां के सामने धर्मसंकट। वो जानती है कि कुरकुरे-चिप्स, कोल्ड ड्रिंक नुकसानदेह है, लेकिन बच्चे को ये सच समझा नहीं सकती। जंक फूड का भयावह सच, लोग अखबारों में पढ़ते हैं, लेकिन नई पीढ़ी को इसका नुकसान आप समझा नहीं सकते। मां चिल्लाती रहती है-ये नुकसान करेगा। बच्चे को लगेगा-ये मेरे दुश्मन हैं, जो मुझे इसे खाने से रोक रहे हैं। ये घर-घर की कहानी है। बचपन जंक फूड के जाल में फंसा है, जवानी अपने बच्चे को इस जाल से निकालने की जंग लड़ रही है। ये भूलकर कि ‘सास भी कभी बहू थी’।
विकास मिश्रा। आजतक न्यूज चैनल में वरिष्ठ संपादकीय पद पर कार्यरत। इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन के पूर्व छात्र। गोरखपुर के निवासी। फिलहाल, दिल्ली में बस गए हैं। अपने मन की बात को लेखनी के जरिए पाठकों तक पहुंचाने का हुनर बखूबी जानते हैं।