प्रभाकर मिश्रा के फेसबुक वॉल से साभार
आज मन बहुत उदास है। बहुत डर लग रहा है। पहले खबर आ रही थी कि देश में कोरोना के मरीजों की संख्या बढ़ रही है। मरने वालों की संख्या भी बढ़ रही है। तब यह ‘संख्या’ अपने लिए केवल ‘नम्बर’ होती ही। उसके बाद खबर आनी शुरू हुई कि हमारे शहर में कोरोना के केस मिले हैं। तब भी हमारे लिए इस खबर की अहमियत ‘नम्बर’ की ही तरह लगी।
अब बात ‘नम्बर’ से आगे निकल रही है। अब अपने करीबी, मित्र, जानने वाले संक्रमित हो रहे हैं। सुनकर चिंता हो रही है। आपका मित्र अस्पताल में हो, कोरोना जैसी बीमारी से लड़ रहा है, चिंता तो होगी ही। .. अब नम्बर कोई मायने नहीं रखता। क्योंकि अपने नम्बर नहीं होते!मेरे जानने वाले दो पत्रकार कल कोरोना के शिकार हो गए। हुमा ‘आजतक’ की वेबसाइट में काम करती थी। पिछले तीन महीने में कोरोना को लेकर जाने कितनी खबरें लिखी होगी। खुद कोरोना की शिकार हो गयी। चंद्रशेखर, इंडिया न्यूज आउटपुट में काम करते थे, मई तक वहां थे। कोरोना काल की छंटनी ने नौकरी छीन ली थी। कोरोना ने जिंदगी छीन ली।
सरकार कहती है कोरोना के साथ जीना होगा, जीना सीखना होगा! जो चले गए उनके अपनों को जाकर देखो, उनकी पीड़ा समझो .. कोरोना के साथ जीना कितना मुश्किल है! जो लोग आंकड़े की दुहाई दे रहे हैं कि मोर्टलिटी रेट कम है, हुमा और चंद्रशेखर के घर वालों को जाकर बताएं, समझाएं कि मोर्टलिटी रेट बाकी देशों से कितना कम है! जिसका अपना चला गया है, उसके लिए ये आंकड़े, मोर्टलिटी रेट सब बेमानी है। बेमानी है यह कहना कि सरकार ने बहुत बेहतर व्यवस्था कर रखा है।
जबतक आंकड़ों में अपने नहीं शामिल होते, आंकड़े केवल नम्बर होते हैं। जब उसमें अपने शामिल होने लगते .. केवल अपनों की पीड़ा, अपनों का दर्द होता है, आँकड़े गौड़ हो जाते हैं।भगवान हुमा और चंद्रशेखर की आत्मा को शांति दें। परिवार को इस दुःख को सहने की ताकत दें। सरकारों को सदबुद्धि दें क्योंकि सरकारें केवल आँकड़े को ही अहमियत दे रही है।