दयाशंकर मिश्र
दूसरों के बातों को दोहराने से पहले उन पर विवेकपूर्ण दृष्टि ठीक वैसे ही है, जैसे सड़क पर अपनी कार को दौड़ाते हुए हम आंख पर पट्टी नहीं बांध नहीं लेते, भले ही रास्ता कितना ही सुरक्षित और सुहाना क्यों न हो!
जीवन संवाद 971
आज अमेरिकी लेखक वर्नर इरहार्ड की कहानी से संवाद की शुरुआत करते हैं. अमेरिका के पहाड़ों में बसे कबीले में एक गुरु का निवास था. उसके पास एक जादुई कंबल था. हर दिन शाम को, वह कंबल को उठाकर आकाश की ओर घुमाते, कुछ देर में आकाश में तारे निकलने शुरू हो जाते. यह अनेक वर्षों का क्रम था. गुरु के गुरु भी यही करते थे. कबीला, मानता था कि गुरु के कंबल में जादू है. इसलिए वह गुरु और कंबल दोनों से बहुत डरते. गुरु कभी-कभी यह कहकर डराते भी थे कि अगर वह नाराज़ हुए तो कंबल न घुमाएंगे, कंबल, कहीं फेंक देंगे. लोग डरते थे कि अगर ऐसा हुआ तो फिर तारे कैसे निकलेंगे!
तारों का करिश्मा चल ही रहा था कि सर्दी के दिनों में अचानक एक रोज़ कहीं से चोर आया, ठंड से बचने के फेर में कंबल उठाकर चला गया. बड़ी मुसीबत हो गई, चोरी सुबह को हुई थी. सबको सूचना मिल गई. लोगों को लगा अब सांझ को क्या होगा! बड़ी मुश्किल है कि अब तारे कैसे निकलेंगे. कबीला उदास. अब क्या होगा? लोगों से अधिक गुरु परेशान. अंततः शाम हुई, तारे निकल आए. गुरु फिर कभी कबीले की ओर नहीं लौटे.
रात होते-होते लोग हंसने, मुस्कुराने लगे. कहने लगे, हम भी बड़ी नासमझी में थे. वह तो उसी वक्त कंबल घुमाते, जब तारे निकलने का वक्त होता था. उन्होंने अनुमान लगा लिया था, जब तारे निकलते हैं, तभी कंबल घुमाना है! कंबल उनके पास भी वही था, जो सबके पास होता है. अब कंबल घूमता है कि नहीं, इससे तारों को क्या? तारों को तो निकलना ही था. निकलना उनका काम! लेकिन वर्षो से चला आ रहा गुरु का कारोबार उस दिन थम गया. कंबल का राज खुल गया. दिमाग की खिड़की खुल जाए तो अनेक लोगों को कंबल बेकार हो जाते हैं.
हम सबके जीवन में भी ऐसे गुरु और कंबल आते रहते हैं. जो अपना उजाला, स्वयं न तलाश कर लालटेन दूसरों के हाथ में दे देते हैं. वह उस काबिले की तरह लंबे समय तक चमत्कार की प्रतीक्षा में रहते हैं. हममें से अधिकांश लोग चमत्कार की प्रतीक्षा में हैं.इसलिए, कंबल के फेर में आना स्वाभाविक है. हम सब छोटी-छोटी घटनाओं को बड़े चमत्कारों का नाम देकर अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को हर दिन छोटा करते जा रहे हैं. कोरोना ने हमें बताया है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति हमारी समझ कितनी अपरिपक्व है. हम अपने बनाए गए नियम कायदे से रत्ती भर भी इधर-उधर नहीं होने को बड़ा महत्व देते हैं. जबकि यह सबसे अधिक हमारे जीवन को ही नुकसान पहुंचा रहे हैं. इस मुश्किल समय में भी माता-पिता बच्चों की सेहत से अधिक उनकी परीक्षा के प्रति उत्सुक हैं. चिंतित बच्चे नहीं, माता-पिता हैं. एक साल खराब हो जाने का मूल्य कुछ भी नहीं, जीवन पर संकट के मुकाबले. मनुष्य के जीवन में एक साल की कीमत बहुत कम है. लेकिन हम तरह-तरह के अपने ही बनाए कंबलों से डरते रहते हैं. जीवन के प्रति वैज्ञानिकता से दूर होते हुए उसकी आस्था और आनंद से भी वंचित होते जा रहे हैं.
जीवन से अधिक मूल्यवान कुछ भी नहीं. हम अपने पुरखों के इस सबसे मूल्यवान वचन से निरंतर दूर जा रहे हैं. जीवन में राजनीति को बहुत अधिक महत्व देकर, हमने इसे भी उतना ही अनिश्चित, छलपूर्ण और क्रूर बना दिया. दूसरों के वचनों को दोहराने से पहले उन पर विवेकपूर्ण दृष्टि ठीक वैसे ही है, जैसे सड़क पर अपनी कार को दौड़ाते हुए हम आंख पर पट्टी नहीं बांध नहीं लेते, भले ही रास्ता कितना ही सुरक्षित और सुहाना क्यों न हो! हमारी दृष्टि जैसे ही बंद होगी उसके ऊपर कंबल स्वयं आकर लिपटते जाएंगे!
दयाशंकर। वरिष्ठ पत्रकार। एनडीटीवी ऑनलाइन और जी ऑनलाइन में वरिष्ठ पदों पर संपादकीय भूमिका का निर्वहन। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। अवसाद के विरुद्ध डियर जिंदगी के नाम से एक अभियान छेड़ रखा है।