दयाशंकर मिश्र
जैसे घर में बेकार कपड़े, सामान पोटलियां बनाकर हम बंद कोनों में डाल देते हैं. उसी तरह मन भी अनसुलझे सवाल की पोटली भीतर फेंकता जाता है. घर की पोटलियां तो फिर भी देर-सवेर कबाड़ के रूप में बाहर निकल जाती है, लेकिन मन को यह सुविधा नहीं मिलती .#जीवनसंवाद : मन की पोटली!
जीवन संवाद 967
हम सबके जीवन में अपनी- अपनी उलझने हैं. अपने-अपने सवाल और संकट हैं. सामाजिक परिवेश इतने रूढ़ीवादी, कठिन और संकोचपरक हैं कि मन में अनेक ग्रंथियां बैठी रहती हैं. परत जमते- जमते काई बन जाती है. जैसे घर में बेकार कपड़े, सामान पोटलियां बनाकर हम बंद कोनों में डाल देते हैं. उसी तरह मन भी अनसुलझे सवाल की पोटली भीतर फेंकता जाता है. घर की पोटलियां तो फिर भी देर-सवेर कबाड़ के रूप में बाहर निकल जाती है, कभी-कभी हम उनको धूप दिखा देते हैं, लेकिन मन को यह सुविधा नहीं मिलती. मुल्ला नसरुद्दीन का किस्सा है. एक बार वह बीमार मित्र के घर मदद करने पहुंचे. रसोई में पहुंचकर खाना बनाने लगे. थोड़ी -थोड़ी देर में पलट कर पूछने आते, कौन सा सामान कहां रखा है. परेशान, नसरुद्दीन को होना चाहिए, लेकिन मित्र हो गए. एक बार फिर पूछने आए, नमक कहां है. मित्र ने परेशान होकर कहा, मुझे तो यही से दिख रहा है, तुमको क्यों नहीं दिख रहा. जिस डिब्बे में जीरा लिखा है,नमक उसी में है! एकदम आंख के सामने है, लेकिन तुम्हें दिखाई नहीं देता.भला कैसे दिखाई देगा. अपने बनाए रहस्य, दूसरे पर लागू कर रहे हैं!
जीरे में नमक है, यह केवल रखने वाले मन को मालूम है. दूसरे को कैसे मालूम कि किस पोटली में क्या है? अगर कोई दूसरा केवल लिखे को पढ़कर समझना चाहेगा तो कभी न समझ पाएगा.जीवन की अव्यवस्था यही है.संकट की जड़ यही है. पुत्र कहता कुछ, चाहता कुछ और है. पिता कुछ कहते ,चाहते कुछ और हैं. पत्नी, असल में जो कह रही हैं, बात उससे एकदम उलट है. पति किसी और चीज़ का गुस्सा दूसरी बात पर निकाल रहा है. पति- पत्नी में तो यह अक्सर होता है, जिस बात पर वह नाराज़ होते हैं, असल में वह पोटली ज्यादा ऊंचाई पर फेंकी होती है. वहां तक पहुंचने के लिए,किसी का सहारा चाहिए लेकिन सहारा मांग नहीं सकते. इसलिए, ठीक वैसे ही देखते हैं, हर परेशानी को जैसे नसरुद्दीन का दोस्त देख रहा है. बात कुछ और है, समझी कुछ और जा रही है. हम, डिब्बे का नाम जीरा रखकर, नमक को पुकार रहे हैं. रसोई में तो संभव है,इस तरह कोई चीज़ मिल भी जाए, लेकिन यह जीवन में संभव नही. जीवन में सामने वही आता है, जो पुकारा जाता है. इसलिए, मन की पोटली के भीतर वही होना चाहिए जो बाहर लिखा है.लिखते समय उसमें लापरवाही नहीं चलेगी. लेकिन हम सब यह लापरवाही कर रहे हैं. दूसरों के सपने में अपने सपने ढूंढ रहे हैं. जब हम बच्चे थे, हमारे साथ यही हुआ. अब हम यही कहानी बच्चों के साथ दोहरा रहे हैं.Email : [email protected]