दयाशंकर मिश्र
कभी राह चलते अपनी ही गलती से हम गिर पड़ते हैं. कभी खुद से गाड़ी को टक्कर लगा बैठते हैं. तब क्या करते हैं. खुद से हुआ, तो कुछ नहीं, अगर दूसरा है तो संकट शुरू, अशांति उत्पन्न. क्योंकि हम जवाब देने के लिए बेचैन हैं. यह बेचैनी अशांति का सबब है.
जीवन संवाद 958
यह बात बड़ी पुरानी मालूम होती है. कोरी आधुनिकता के आईने में देखेंगे, तो लगेगा कि यह कौन-सी बात है. जवाब देना, तो बहुत जरूरी है, लेकिन थोड़ा ठहरकर बात करेंगे, तो बात समझ में आएगी. बहुत सुंदर प्रसंग है- महात्मा बुद्ध के पास एक व्यक्ति आया. उसने अनेक प्रकार से बुद्ध को गालियां दीं. शिकवा, शिकायत और आरोप सबकुछ. बुद्ध कहते हैं, ‘देर कर दी तुमने, कोई चौदह बरस पहले आते, तो कुछ बात बनती. बड़ी देर कर दी, तुमने. अब कुछ नहीं हो सकता. तुम जो कहते हो हर उस चीज पर मैं राजी हूं, तुमसे किसी प्रकार की कोई शिकायत मुझे नहीं’. आज बुद्ध की बात पर बात-बात पर उनका नाम लेने वाले भी राजी न होंगे. यह जो जवाब न देना है, इसे ठीक ठीक समझना जरूरी है. इसे अधिकार और अत्याचार से अलग रखना जरूरी है. यह जो जवाब नहीं देना है, यह जीवन में कुछ भीतर उतरकर संवाद की ओर पहला कदम है.
कभी-कभी ऐसा होता है अपनी गलती से अपना ही नाखून हाथ में लग जाता है, कभी राह चलते अपनी ही गलती से हम गिर पड़ते हैं. कभी खुद से गाड़ी को टक्कर लगा बैठते हैं. तब क्या करते हैं. खुद से हुआ, तो कुछ नहीं, अगर दूसरा है तो संकट शुरू, अशांति उत्पन्न, क्योंकि हम जवाब देने के लिए बेचैन हैं. यह बेचैनी अशांति का सबब है.एक और सुंदर प्रसंग है. लाओत्से यात्रा पर हैं. गांव में किसी ने उन पर पत्थर फेंके. कचरा फेंका. उन्होंने तो लौटकर देखा भी नहीं. फेंकने वाला परेशान कि यह कौन आदमी है, जो लौटकर देखता ही नहीं. वह आदमी भागता हुआ लाओत्से के पास गया. उसने कहा, देख तो लो, मुझे मैंने ही कचरा फेंका था. नहीं तो मेरी मेहनत बेकार चली जाएगी. कुछ तो कहो. लाओत्से ने जो कहा उससे बुद्धि के द्वार पर उजाले की दस्तक मिलती है. वह कहते हैं, ‘एक बार ऐसा हुआ कि मैं नाव में बैठा था और एक खाली नाव आकर मेरी नाव से टकरा गई, तो मैंने क्या किया? अगर उस नाव में कोई मल्लाह बैठा होता, तो झगड़ा हो जाता. नाव खाली थी, तो कुछ नहीं हुआ. मल्लाह के बैठने भर से झगड़ा होना संभव था. उस दिन समझ में आ गया कि जब खाली नाव को कुछ नहीं किया, तो मल्लाह बैठा भी हो, तो क्या फर्क पड़ता है? तुमने अपना काम कर लिया, तुम जाओ, मुझे मेरा काम करने दो’.
आदमी दूसरे दिन फिर लौटकर आया. उसने कहा, ‘मैं रातभर सो न सका. तुम कैसे आदमी हो. तुम कुछ तो करो, कुछ तो कहो, जिससे मैं निश्चिंत हो जाऊं’. अगर हम किसी को अपशब्द कहते हैं तो मानकर चलते हैं, गालियां लौट आएंगी. वह लौटकर आती भी हैं. यह सब यंत्रवत नियमों के अनुसार हो रहा है, जब नहीं लौटतीं, तो मन बेचैन हो जाता है. ऐसा ही प्रेम में भी है अगर हम प्रेम करते हैं तो मानकर चलते हैं लौटकर आएगा नहीं. लौटता, तो बेचैनी हो जाती है. सबकुछ लेन-देन के धर्म कांटे जैसा है! इसलिए, जवाब देने से दूरी जरूरी हो जाती है, क्योंकि अगर नाव खाली है, तो हम नाव को कुछ नहीं कहते. हमारा सारा ध्यान मल्लाह पर है. जीवन को नई दिशा की ओर ले जाना, इतना मुश्किल नहीं, जितना व्यवस्था ने हमारे दिमाग में भर दिया है. मनुष्य के लिए मशीन सरीखा सोचने से दूसरा खतरनाक काम कुछ भी नहीं. मशीन होने से बचना होगा. यही मानवता और मनुष्यता के लिए सबसे उपयोगी कदम है.ई-मेल [email protected]
दयाशंकर। वरिष्ठ पत्रकार। एनडीटीवी ऑनलाइन और जी ऑनलाइन में वरिष्ठ पदों पर संपादकीय भूमिका का निर्वहन। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। अवसाद के विरुद्ध डियर जिंदगी के नाम से एक अभियान छेड़ रखा है।