दयाशंकर मिश्र
बदला किसी भी रूप में सुखकारी नहीं, बात केवल हिंसा की नहीं. प्रेम में बदले की कामना हिंसा के मुकाबले किसी भी रूप में कम हानिकारक नहीं. मन में अपेक्षा का जंगल बुन लिया. कोपल फूटी नहीं, डालियों पर झूले टांग दिए. कोई मांग नहीं! जितना अधिक हम अधिकार जताते हैं, उतना ही अपने को दुख की ओर धकेलते जाते हैं. हमारे रास्ते उतने अधिक उलझने वाले नहीं हैं, जितना हम उनको अपने दिमाग में उलझा लेते हैं. हम दिमाग में अपेक्षा के ऐसे पौधे लगा लेते हैं, जो कहीं नहीं होते. यहां पौधा लगना मुश्किल, हमने मन में पूरा जंगल बुन लिया. कोपल फूटी नहीं, शाखाओं पर झूले टांग दिए. यहीं से रिश्तों में दरार का इंतज़ाम होने लगता है.
जीवन संवाद 952
लाओत्से ने सुंदर बात कही, ‘सब अधिकार वापसी की मांग करते हैं. अधिकार का अर्थ होता है, कुछ मैंने किया. अब मैं अधिकारी हुआ, वापस कुछ पानेे का. प्रत्युत्तर पाने का अधिकारी हुआ. अगर नहीं मिलेगा तो दुख पाऊंगा. ‘इसमें मनोविज्ञान का सूत्र यह है कि अगर बदलेे में सुख मिले, तो हम सुखी नहींं होतेे. लेकिन अगर कहीं जरा भी दुख मिल जाए, तो उसे सीने से लगाने को तैयार रहते हैं! सुख को हम इसलिए भी स्वीकार नहीं करते, क्योंकि उसे हम सहज ही अपना हक मान लेते हैं. हक, सरलता से मिल जाए, तो हम कभी उसे धन्यवाद नहीं कहेंगे, लेकिन अगर मुश्किल से मिले तो दुखी होनेेे में एक मिनट भी नहीं लगेगा.
मेरे ख्याल में लौटकर मांग नहीं करना, जीवन में खुद को सुखी, स्वतंत्र रखने का सबसे अच्छा मार्ग महसूस होता है. इधर, हमने जीवन के वृक्ष पर अधिकार चाहा, उधर वृक्ष की डाली टूटी. यह जो बदले की कामना है, इससेे अधिक दुखकारी कुुछ नहीं. मैंने किया, अब तुम करो. अरे, तुम कर सकतेे थे, तुमने किया, बात यहीं खत्म! बदला किसी भी रूप में सुखकारी नहीं, बात केवल हिंसा की नहीं. प्रेम में बदले की कामना हिंसा के मुकाबले किसी भी रूप में कम हानिकारक नहीं. यह कैैसा जीवन, जीवन दर्शन हमने चुन लिया. हमारी सारी व्यवस्था, केवल दूसरे पर निर्भर करती है. सारा सुख-दुख सबकुछ दूसरेे पर डालकर हम सुख का आविष्कार करना चाहते हैंं, जबकि वह पहले सेे ही उपलब्ध है. उसे कहीं लेने नहीं जाना. केवल महसूस करना है.
हवा हमेशा ही चलती है, लेकिन जब उसे कहीं बैठकर थोड़ा भीतर उतरनेे का समय देते हैं. तब उसके मायने समझ में आते हैं. हमारे बीच से यह रुककर थोड़ा ठहरना, समझना गायब हो गया है. अपने हिस्से का दायित्व निभाना ऐसा ही सहज है, जैसे एक हाथ सेे कोई चीज़ दूरी पर हो, दूसरा हाथ उसे सहजता सेे उपलब्ध करा देे. हाथ एक-दूसरे को धन्यवाद की प्रतीक्षा नहीं करते, क्योंकि अंततः दोनों की जड़ एक है. हम सब भी अंततः एक ही जड़ से जुड़े हैं. कौन कितनी देर से समझता है, यह केवल उस पर निर्भर करता है. प्रकृति के नियम किसी के लिए नहीं बदलते. हम समझेे, न समझें, उसे इससे कोई अंतर नहीं पड़ेगा.
दयाशंकर। वरिष्ठ पत्रकार। एनडीटीवी ऑनलाइन, जी ऑनलाइन, नेटवर्क 18 ऑनलाइन में वरिष्ठ पदों पर संपादकीय भूमिका का निर्वहन। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। आप उनसे ईमेल : [email protected] पर संपर्क कर सकते हैं। आपने अवसाद के विरुद्ध डियर जिंदगी के नाम से एक अभियान छेड़ रखा है।