अरुण प्रकाश
बिहार वही है। संपूर्ण क्रांति की अलख जगाने वाला बिहार। धीरे-धीरे समाजवाद आई बबुआ। समाजवाद तो नहीं आया अलबत्ता सियासत संप्रदायवाद के सम पर ज़रुर आ गिरी। केंद्रीय मुद्दे गोहत्या और गोमांस हो चले। कौन बीफ़ खाता है, कौन नहीं खाता, किसे खाना चाहिए, किसे नहीं ऐसे सवाल बहस के केंद्र में आ गए. विकास के नारे और दावे दरकिनार कर दिए गए….
राजनीति इस हद तक गर्त में जा गिरेगी भला किसने सोचा था। आज़ादी के पहले की कहानियों में नई पीढ़ी ने ज़रुर पढ़ा होगा कि अमुक जगह पर गाय या सूअर के मांस को फेंक, अमुक पार्टी के लोगों ने दंगा फैला दिया। लेकिन स्वातंत्रोत्तर भारत में ऐसी बातें हमेशा से बेमानी साबित हुईं… सवाल बड़ा है कि क्या बिहार का चुनाव किसी भी पार्टी के लिए देश की एकता और अखंडता से भी ज्यादा मायने रखता है.. चुनाव जीतने के लिए क्या नेता किसी भी हद तक जा सकते हैं….दादरी में जो कुछ भी हुआ, या यूं कहें कि कराया गया वो भारत की छवि के लिए कत्तई मुनासिब नहीं। ये हर उस इंसान को विचलित कर रही है जिनकी संवेदनाएं अभी ज़िंदा हैं।
साहित्य जगत में मची खलबली को इसी चश्मे से देखा जा सकता है। आए दिन बुद्धिजीवी अपने अवार्ड लौटा रहे हैं। खामोशी से दर्ज कराई जा रही इस मुखालफत को नोटिस करने की फुर्सत किसे है… लेकिन जो हो रहा है उसे हल्के में लेने की गलती भारी पड़ सकती है। मुल्क का मुस्तकबिल ख़तरे में पड़ सकता है। दरअसल ये फासीवाद की आहट है जिसने प्रबुद्ध तबके को विचलित कर रखा है। इतिहास गवाह है कि फासिस्ट ताक़तों को किसी भी क़ीमत पर शिकस्त कबूल नहीं होती। वो हर हाल में जीत चाहते हैं। लाशों की सीढियों पर कामयाबी का आसमान छूना चाहते हैं…ऐसे में एक अखलाख की कौन कहे, अभी कितने अखलाखों की जान खतरे में पड़ सकती है उसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है। मजहब के नाम पर जिस तरह की कट्टरता दिखाई पड़ने लगी है उसे और हवा दी जाएगी।
जब ये कट्टरता उन्माद का रूप ले लेगी तो फिर इसी भीड़ के ज़रिए विरोध में उठने वाली आवाज़ों को दबा दिया जाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि बिहार की जागरुक जनता इन बातों को समझेगी। वो ऐसे हालात कभी पैदा नहीं होने देगी जिससे इमर्जेंसी वाला टाइम दोबारा लौट सके। ऐसी शक्तियों को पूरी सख्ती से रोक सके तो जेपी को ये सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी।
अरुण प्रकाश। उत्तरप्रदेश के जौनपुर के निवासी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र। इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सक्रिय। आप उनसे 9971645155 पर संपर्क कर सकते हैं।
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आपकी कई बातों से सहमत हूं…लेकिन कुछ सवाल ज़रुरी हैं…पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हाल देखा होगा आपने…बारुद के कगार पर बैठा है और फटने को तैयार… एक ही चौपाल में बैठने वाले दो समुदाया हिन्दू मुस्लिम के बीच इतना वैमनस्य क्यों है। इस पर बहस ज़रुरी है। देखिए बहस के नाम पर कभी अल्पसंख्यकों और कभी बहुसख्यकों को दोषी ठहरा कर, सरकार को फासीवादी करार देकर हम किसी का भला नहीं कर रहे हैं। नहीं तो फासीवादी और कम्यूनल तो लोग सालों से चिल्ला रहे हैं क्या भारत में दंगे बंद हो गये…नहीं ना…ईमानदार व्याख्या और सही पड़ताल ज़रुरी है। आप किस पार्टी को ज़िम्मेदार ठहराते हैं दंगे के लिए…एसपी, बीजेपी, बीएसपी को…देखिए सभी ने अपने अपने ज़रुरतों के हिसाब से दंगों को पोसा पाला है। इन दंगों के बाद पार्टियां वोट पाकर कुर्सी पाती हैं…और दंगा करने वाली रियाया को ये गुरुर होता है कि वो अपने कौम का रक्षक बन गया है। और जो लोग मर जाते हैं…वो…कुछ शहीद का दर्जा पा जाते हैं…कुछ रोजी रोटी के लिए रोजाना शहीद होते हैं। जहां तक मैं समझता हूं दंगा रोकने के लिए सबसे ज्यादा ज़रुरी है लोगों का जहालत से निकलना…और ख़ुद की स्वतंत्र सोच विकसित करना..हमारा धर्म इतना कमजोर नहीं कि किसी की महज एक टिप्पणी से नापाक हो जाए…ये विश्वास हज़ारों तूफानों और बवंडर का सामना करने के बाद भी अपने शुद्धतम रुप में रहेगा…लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि मेरे विश्वास को कोई बात बात में चोट पहुंचाए…उनका अपमान करे जिसे करोड़ों लोग श्रद्धेय समझते हैं। धर्म को बाज़ारु और भौंडा ना बनाइए…व्यक्तिगत रखिए…नुमाइश ना करिए…चाहे वो नमाज हो या फिर कांवड जुलुस…इस काम के लिए पब्लिक प्रॉपर्टी नहीं दी जा सकती है…ये फाइनल है। प्रशासन किसी भी क़ौम की गैरजरुरी दबाव के आगे कतई ना झुके…संविधान की किताब सबसे ऊपर…उसके नीचे हरा झंडा और भगवा झंडा…भारत का वजूद संविधान से है…हिन्दुओं और मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं से नहीं…हालांकि मेरे उपाय बेहद कड़वे हैं। लोग नहीं मानेंगे…सियासतदां तो कतई नहीं।