कुमार सर्वेश
बाबा जय गुरुदेव ने कभी कहा था कि हमारे काम से किसी आम आदमी को परेशानी नहीं होनी चाहिए। जयगुरुदेव के भक्तों को इसे गुरुमंत्र मानते हुए वाराणसी के राजघाट पर जाम नहीं लगने देना चाहिए था। जयगुरुदेव के स्वयंसेवक पहले भी ट्रैफिक मैनेजमेंट को बखूबी संभालते रहे हैं। इलाहाबाद में सोलह–सत्रह साल पहले संगम किनारे जयगुरुदेव के ‘मानव कुंभ‘ को मैंने खुद देखा है। कैसे बाबा के कुछ समर्पित कार्यकर्ताओं ने इस जिम्मेदारी को बेहद कामयाबी के साथ संभाला था और लाखों की भीड़ को बखूबी नियंत्रित रखा था, यह ‘क्राउड मैनेजमेंट’ की अपने आप में बड़ी मिसाल थी।
20 साल पहले वाराणसी के इसी आश्रम में जयगुरुदेव ने काफी बड़ा समागम सफलतापूर्वक किया था जिसमें 10 लाख से ज्यादा लोग जुटे थे। तब उनके भक्तों ने स्व–अनुशासन के मूलमंत्र का ध्यान रखा था। यानी पहले आम लोगों को रास्ता दो, फिर खुद निकलो। इस बार शायद ऐसा नहीं हुआ। जयगुरुदेव के भक्तों को स्व-अनुशासित माना जाता है। उन्हें ट्रैफिक नियमों का शिद्दत से पालन करने वाला माना जाता है। सड़क पर भीड़ के साथ चलते हैं तो भेड़ियाधसान झुंड बनाकर नहीं बल्कि एक के पीछे एक लाइन बनाकर चलते हैं। खाना खाने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ एक ही जगह जमा न हो, इसके लिए अलग–अलग स्थानों पर लंगर लगाए जाते हैं। लेकिन इस बार इनका सारा ‘मैनेजमेंट’ आखिर कैसे फेल हो गया?
बड़ी लापरवाही तो प्रशासन से हुई है। जब प्रशासन और जयगुरुदेव के स्वयंसेवक मिलजुलकर पहले से ही भीड़ को मैनेज करने का उपाय करते और दोनों के बीच सही तालमेल होता तो इतनी बढ़ी घटना नहीं होती। किसी भी सामाजिक–धार्मिक आयोजन के समय हमेशा प्रशासन की जिम्मेदारी सबसे बड़ी होती है। सबसे पहले जवाबदेही भी उसी की होती है। लेकिन हमारा प्रशासन कोई बड़ी घटना हो जाने के बाद ही जागता है। इतने बड़े आयोजन की खबर प्रशासन को थी तो वह यह मानकर चुप कैसे बैठा रह गया कि क्षमता से ज्यादा भीड़ नहीं जुटेगी? प्रशासन किसी अप्रिय घटना से निपटने के लिए पहले से तैयार क्यों नहीं था? इलाहाबाद के कुंभ से तो बड़ा आयोजन यह नहीं ही था। फिर भीड़ को संभालने में प्रशासन से चूक कहां और कैसे हुई? आखिर पुरानी ग़लतियों से सीखने में प्रशासन इतनी कोताही क्यों करता है? बार–बार सिस्टम अपनी पोल खुलवाने के लिए क्यों आमादा रहता है?
सवाल यह भी है कि धार्मिक समागमों में या किसी बड़े धार्मिक स्थल पर आए दिन मौत की भगदड़ क्यों मचती है? न तो हमारा प्रशासन कुछ सबक लेता है, न धार्मिक समूह ही किसी बदलाव के लिए मानसिक तौर पर तैयार होते हैं। यहां सिर्फ प्रशासन को पूरी तरह से जवाबदेह मानकर धार्मिक संगठन और संस्थाएं अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकतीं। आज जरूरी है कि धार्मिक संस्थाएं और उनसे जुड़े श्रद्धालु भी अपनी कुछ जवाबदेही और जिम्मेदारी तय करें। हादसों को पूरी तरह से तो कभी नहीं रोका जा सकता लेकिन हम कुछ चीजें तो ऐसी कर ही सकते हैं जिनका पालन कर उन्हें कम किया जा सकता है।
आस्था बड़ी चीज है। इंसान के जीने का बड़ा सबब है। लेकिन ऐसे मौकों पर भेड़चाल, धर्मभीरुता और अंधश्रद्धा हमेशा आस्था पर भारी क्यों पड़ जाती है? क्या हम भीड़ और भेड़चाल का हिस्सा बने बिना आस्था के पुजारी नहीं बन सकते? हम किसी धार्मिक स्थल, संत या महात्मा में आस्था रखते हैं तो इसका यह अर्थ तो बिल्कुल नहीं है कि उसके किसी कार्यक्रम या जलसे में शामिल होने के उन्माद में हम आम लोगों की भावनाओं–परेशानियों, सामाजिक कायदे–कानूनों और सामान्य ट्रैफिक नियमों को ही भूल जाएं। आस्था और भक्ति के समागम में मौत की भगदड़ क्यों होनी चाहिए? क्या हमें ऐसे मौकों पर रेलमपेल भीड़ का हिस्सा बनने से खुद को नहीं रोकना चाहिए? जब क्षमता से ज्यादा लोगों को जाने की इजाजत प्रशासन न दे सके तो बेकार में भीड़ बढ़ाकर खुद को मौत का निवाला बनाने की तैयारी क्यों करनी चाहिए? कबीर ने शायद इसी भेड़चाल पर कहा है– ‘’ऐसी गति संसार की, ज्यों गाडर की ठाट। एक पड़ी जेहि गड्ढ में, सबै जाहिं तेहि बाट।‘’ इस दुनिया का भी अजीब हाल है। भक्त लोग भेड़चाल में मगन हैं। बिना यह सोचे-विचारे कि जिस उन्मत्त भीड़ के पीछे वे जा रहे हैं, अगर वह गड्ढे में जाएगी तो सबकी गति भी वही होगी।
आज धर्म और आस्था भी एक बड़ा बाजार और कारोबार बन गए हैं। ज्यादातर मासूम लोग धार्मिक भावनावश, कुछ आस्था और आशीर्वाद के लोभवश, तो कुछ व्यावसायिक लाभ साधने के लिए इस धर्म–कारोबार से जुड़े रहते हैं। वे अपने गुरु या गुरुघंटाल को ही सबसे महान और प्रतापी बताने का दंभ भरते रहते हैं। हालांकि आज भी कुछ सच्चे संत–महात्मा बाबाओं की इस मायावी भीड़ में मिल जाएंगे। लेकिन नकली बाबाओं और गुरुघंटालों की कारगुजारियों के प्रति क्या हमारी आंखें कभी नहीं खुलेंगी? क्या आस्था के जमघट में निर्दोष जिंदगियां ऐसे ही उन्मादी भीड़ के पैरों तले कुचली जाती रहेंगी? आखिर ऐसे मौकों पर आस्था क्यों शांति और मुक्ति के राजमार्ग को छोड़कर मौत की संकरी पगडंडी को चुन लेती है? धर्म का आशीष पाने और किसी की ‘कृपा’ से झोली भर लेने के चक्कर में आस्था क्यों कभी–कभी आहों में बदलकर कलेजा चीर देने वाला चीत्कार कर उठती है? क्या हमें इस पर नए सिरे से नहीं सोचना चाहिए?
युवा टीवी पत्रकार कुमार सर्वेश का अपनी भूमि चकिया से कसक भरा नाता है। राजधानी में लंबे अरसे से पत्रकारिता कर रहे सर्वेश ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की है। साहित्य से गहरा लगाव उनकी पत्रकारिता को खुद-ब-खुद संवेदना का नया धरातल दे जाता है।
आभार….