आज से करीब 30-35 साल पहले की बात है । मैं एक स्कूल में बतौर शिक्षक कार्यरत था । घर से 12 किलोमीटर की दूरी साइकिल से तय करने के बाद बस से स्कूल और छुट्टी होने पर स्कूल से घर आया – जाया करता था । चार बजे छुट्टी होती और मैं फिर वापसी के लिए तेज कदमों से चलते हुए बस पकड़ने सड़क पर पहुंच जाता । स्कूल से पक्की सड़क की दूरी करीब आधा किलोमीटर थी । बस का समय चार-सवा चार के बीच था । बस छूट जाने के बाद छ:, सवा छ: बजे ही दूसरी बस आती थी । वहां आस- पास कोई दुकान भी नहीं थी, जहां बैठ कर बस का इंतजार किया जा सके । हमलोग सड़क किनारे एक आम के पेड़ के नीचे खड़े होकर बस का इंतजार करते थे।
एक दिन ऐसा हुआ कि 5-7 मिनट की देर होने के कारण वह बस छूट गई। अब मैं उसी आम के पेड़ के नीचे दूसरी बस की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ देर बाद चुस्त पायजामा और शेरवानी पहने हुए मेरी ही उम्र का एक युवक आया। देखने में वह मुस्लिम लग रहा था। वह भी बस के इंतजार में था। चूंकि वहां हम दो व्यक्ति ही थे इसलिए हमने आपस में बातचीत शुरू कर दी। उस युवक ने मुझसे पूछा ‘ आप को किधर जाना है ? ‘ मैंने कहा’ शरफुद्दीनपुर, देखिए न 5 मिनट की देरी होने से मेरी बस छूट गई है, अब तो शाम हो जाएगी। दरअसल शरफुद्दीनपुर और शाम कहने में मैने आदतन’ ‘श ‘की जगह ‘स’ का उच्चारण किया था। मेरे इस उच्चारण दोष को उस युवक ने पकड़ लिया और कहा “आपलोग जैसी हिंदी बोलते हैं उसमें बहुत सारा उच्चारण दोष रहता है जो एक हिंदीभाषी के लिए उचित नहीं है। सभी वर्णों के उच्चारण स्थान व्याकरण ने निर्धारित किया हुआ है। निरंतर अभ्यास और थोड़ी सावधानी बरतने से ऐसे उच्चारण दोष से बचा जा सकता है।” यह सुनकर मैं लज्जित तो जरूर हुआ क्योंकि एक शिक्षक को ऐसे उच्चारण दोष से बचना चाहिए लेकिन उस युवक ने अपने वाक्य में जिस तरह से वर्णों का उच्चारण किया था, उसे सुन कर मैं उसका कायल हो गया था। मैंने दृढ निश्चय कर लिया कि कुछ भी बोलने के समय वर्णों के शुद्ध उच्चारण पर ध्यान रखूंगा।
आज हिंदी दिवस पर कलम के जादुगर, समाजवादी चिंतक, राजनेता और प्रखर पत्रकार रामवृक्ष बेनीपुरी का ‘नई धारा’ में प्रकाशित सम्पादकीय ‘हिंदी -शब्दों में एकरूपता लाइए ‘ पढते हुए अचानक वह घटना याद आ गई।
यहां प्रस्तुत है वह सम्पादकीय आलेख।
“अभी एक भाई ने लिखा है, बताइए शुद्ध क्या है ?
‘चिन्ह ‘ या ‘ चिह्न ‘ ? दोनों के प्रयोग मिलते हैंः बड़े – बड़े लेखकों में से किसी ने ‘ चिन्ह ‘ लिखा है तो किसी ने ‘ चिह्न ‘। छोटे लोग असमंजस में हैं। हिंदी में इस तरह एक- एक शब्द के दो-दो , तीन- तीन प्रयोगों की भरमार है। बेचारे नए लोग भ्रम में पड जाते हैं। इधर अहिंदी प्रांतों में हिंदी का प्रचार होने लगा है। काका कालेलकर ने, कई तर्कों के आधार पर अक्षरों के कुछ नए रूप चला दिए। हिंदी प्रांतों में नये, नए, नई, नयी , गये, गए, गयी, गई, हुए, हुवे, हुये आदि एक ही शब्द के कई रूप प्रचलित हैं। अनुस्वार और पंचम वर्ण के प्रयोगों की भी गड़बड़ियां हैं —– संपादक, सम्पादक, ठंढा , ठण्ढा आदि प्रयोग चल रहे हैं। हिंदी – व्याकरण में, खासकर लिंग के सम्बंध में , जो मतभिन्नता है वह तो हैं ही , शब्दों की यह रूप भिन्नता तो हिंदी- प्रचार में बहुत ही बाधक सिद्ध हो रही है। हमारा खयाल है, इस सम्बंध में कोई एक निश्चित मत बना ही लेना चाहिए और इसी आधार पर शब्दों के रूप लिखे और छापे जाएं। गुजराती में भी ऐसी ही भ्रांतियां थीं, किंतु महात्माजी के प्रयत्नों से वे दूर हो गईंं। हिंदी में न तो कोई सर्वमान्य संस्था है जिसके प्रभाव को सभी स्वीकार करें। सम्मेलन ने तो आत्महत्या ही कर ली है और कोई ऐसे महापुरुष भी नहीं हैं, जो सबको एक साथ लेकर चल सकें। पूज्य टंडन जी यह कर सकते थे लेकिन वह सम्मेलन की कुव्यवस्था से क्षुब्ध हैं। यह स्वाभाविक भी है; क्योंकि जिस संस्था को उन्होंने अपने खून- पसीने से पोसा – पाला , उसपर कुछ अवसरवादियों का आधिपत्य हो जाना, उनके लिए अत्यंत दुख और क्षोभ का कारण हो ही जाता ! लेकिन उन्हें इससे अपने को ऊपर उठाना चाहिए और कम से कम इस समस्या का हल उन्हें निकालना ही चाहिए। हिंदी की यह सबसे बडी सेवा होगी। यदि किसी कारणवश वह इस ओर ध्यान न दे सकें तो दूसरी संस्था दिल्ली की हिंदी- परिषद है। इसे सरकारी मान्यता भी प्राप्त है। यदि वह भाषा – विशारदों की एक परिषद बुला कर शब्दों के रूप स्थिर करा दे तो शिक्षा विभागों एवं विश्वविद्यालयों द्वारा वह अपने निर्णयों को आसानी से काम में ला सकेगी। अभी हम व्याकरण की जटिलताओं की ओर न जाएं, फिर तो हम अपने को ऐसे चक्रव्यूह में डाल लेंगे, जहां से कोई अर्जुन ही हमें निकाल सकेगा और जैसा कि हम कह चुके हैं, हमारे यहां एक अर्जुन है भी तो वह मोह जाल में फंसे हैं। अत: हमें एक – एक कर कदम आगे बढ़ाना है और उसमें पहला कदम तो शब्दों की एकरूपता ही होगा, इसमें संदेह नहीं। बाहार – राष्ट्रभाषा – परिषद का ध्यान इस ओर है किंतु यदि पूरे हिंदी क्षेत्र के लिए कोई एक व्यवस्था हो जाए तो यह सबसे अच्छा होगा। इस सम्बंध में जो विलम्ब हो रहा है, लह घातक है, यह हम जोर देकर कहेंगे। “
(यह सम्पादकीय ‘ नईधारा ‘ के1950 से 1959 के बीच लिखे सम्पादकीय आलेखों में एक है)
ब्रह्मानंद ठाकुर।बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। मुजफ्फरपुर के पियर गांव में बदलाव पाठशाला का संचालन कर रहे हैं।