हाईब्रिड की माया और किसानों की मुश्किल

हाईब्रिड की माया और किसानों की मुश्किल

फाइल फोटो

ब्रह्मानंद ठाकुर

उतरइत उत्तरा नक्षत्र में मेघ बरस जाने से घोंचू भाई के मुरझाएल चेहरा पर जब तनिका हरियरी छाया तब घोंचू भाई आज दुपहरिया बाद नहीं खा कर सरेह घूमने निकल गये। पहिले ऊ बारी- बारी से अपना अठ कठबा, मिठुआ वाला, बड़ तर, खिलवा गाछी,  खरौरी वाला, चौर कात, ( गांव में खेत का भी नाम होता है) वाले धान के खेत में घूम कर उसे बड़े गौर से देखे, सब खेत का धान निफुट होकर उसकी बाली थोड़ी-थोड़ी दुधभरू होकर नीचे झुकने लगी थी। बगल के दूसरे किसानों के खेत का धान भी धीरे-धीरे गभा रहा था। कहीं-कहीं इक्के-दुक्के बालियां बाहर निकलती दिखाई देने लगी थी।  यह दृश्य देख घोंचू भाई मन ही मन आनन्दित हो रहे थे। उनकी इस खुशी का कारण यह था कि उन्होंने पहली बार धान के हाईब्रिड किस्म से तौबा कर डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्व विद्यालय से विकसित धान का राजेन्द्र भगवती किस्म लगाया है । हाईब्रिड धान का बीज जहां 130 रुपये किलो मिलता था, वहां घोंचू भाई को राजेन्द्र भगवती प्रभेद का धान बीज मात्र 40 रूपये किलो मिला था।

घोंचू भाई फसल देख मन ही मन 55  कट्ठा धान की खेती का हिसाब जोडने लगे। सूखी जुताई 2 चास 2760 रुपया, 32 किलो बीज 1280 रूपया,  2 कट्ठा में बीज गिराने में वर्मी कम्पोस्ट 100 किलो-, जुताई, सिंचाई (5 बार ) 1400, कदबा हेतु सिंचाई 50 रूपये कट्ठा- 2750, खाद और खर पतवार नाशक दबा 3200, रोपाई मजदूरी- 8550, यूरिया छिड़काव 2 बार में 5 बैग यूरिया-1500, निकौनी- 3000, सिंचाई 5 बार 13750, अन्य मजदूरी-1600  रुपया। अबतक कुल खर्च 43640 रुपया हो चुका है। कटाई और दउनी का खर्च त अभी बाकिए हय। यही सब सोंचते हुए घोंचू भाई खेत से निकले और मेड़ पकड़ उत्तर दिशा की ओर बढ़ गये।

गांव से कुछ दूर  डीह पर अपना दूसरा खेत घूमने के लिए। वहां पहुंचते ही उन्होंने देखा कि बिल्टु, धनेसरा, सिरचन, परेमन, बालगोविन, परसादी और मुनेसर अपना-अपना असनी फूलगोभी के खेत में कीड़ा मारने वाला दबाई छीट रहा है। पूरा डीह  पर करीब 25 बीघा में इस बार फूलगोभी की अगैती फसल ही किसानों ने लगाई है। घोंचू भाई  यही सब देखते मेड़ पकड़े आगे बढ़ रहे थे कि बालगोविन ने उनको गोर लागते हुए कहा,  ‘बहुत दिन के बाद आप से भेंट हो रही है घोंचू भाई, धान रोपने के बाद आइए एन्ने आए हंय आप। आपका धान त खूब बढिया है, आडिए पर से बाल गमकता है। सब फूट गया है। कोन धान रोपे हैं इस बार ?’ राजेन्द्र भगवती हय ‘ कहते हुए घोंचू भाई ओजमने मेड़ पर जब बइठने लगे त बिल्टुआ एगो प्लास्टिक बला बोरा बिछा दिया। घोंचू भाई ओही बोरा पर पाल्थी मार के बइठ गये। तबतक बालगोबिन , परसादी, सिरचन, मुनेसर परेमन और धनेसरा भी दबाई छीटना छोड़ बाल्टी के पानी से हाथ धोकर घोंचू भाई के पास जूम गया। ”इस बार त डीह पर तुम लोग पूरा फूलगोभिए का खेती किया हुआ है। बड़ा मेहनत मांगता हय फूल गोभी आ, मुस्तैदी भी, आ ई प्लास्टिक के जाल से खेत को काहे घेरले हय ?’  कहते हुए घोंचू भाई ने सिरचन की ओर देखा।’  जी, लीलगाय और खरहा से फूल को बचाने के लिए, फूले न खा जाता हय’, घोंचू भाई पिछला साल त समय साथ दिया तो फायदा हुआ था लेकिन एमरी ई रौदी परान ले रहा है। चारे दिन पर दबाई छीटना पड़ता है।  अब तक तो पांच हजार रूपये प्रति कट्ठा की दर से खर्चा हो चुका है।  फूलगोभी के पत्ता के नीचे कीड़ा छिपल रहता है। अब त दबाइयो का असर नहीं हो रहा है। देखिए न सब पत्ते को कीड़ा खा रहा है। अक्कछ हो गये दबाई छीटते-छीटते। एमरी आमदनी की होगा, खरचो उप्पर हो जाए त बड़का बात होगा।’

सिरचन की बात सुन, घोंचू भाई कहने लगे,  तुम नवततुरिया लोग नहीं जानते हो, इ नयका जमाना का खेती खेतिहर का परान ले रहा है। खाद, बीज, कीटनाशक, कुच्छो किसान का अपना नहीं है। सब बाहरे से महंग दाम पर खरीदना पडता है। इस बात की भी कोई गारंटी नहीं कि पइसा खरच करके भी जो खाद आ दबाई खरीदते हैं वह असली है कि नकली। ई त उपयोगे कएला पर पता चलता है। अब तो जो उपजाओं, बेंच कर उसी में झोंक दो और अपने ठनठन गोपाल हो जाओ। एहे हाल हय नयका खेती का। अइसे त पुरनके जमाने की खेती ठीक थी। खाद, बीज दोनों किसान का अपना था। खेती के मामले मे हमलोग तब कितना आत्मनिर्भर थे ? आपस में मिल-जुल कर खेती करते थे। जो उपजता था, वह अपना  होता था किसी की देनदारी नही होती थी उसमे। न विश्वास हो तो बालगोविन भाई से पूछो । क्या हो बालगोविन भाई ? ‘अब बारी बालगोविन भाई की थी, कहने लगे,  देखो सिरचन, घोंचू भाई ठीके कह रहे हैं। हमारी उमिर सत्तर पार कर चुकी है। जब हम तुम्हारी उमिर के थे तो बात कुछ और थी। उस समय केवल धान, मकई, जौकेराई, मूंग, मसुरी, खेसारी, अलुआ, मिरचाई, तमाकू, ऊंख, रहरी, अंडी, तीसी, सरसो, तिल,मडुआ,कोदो की खेती ज्यादा होती थी। गेहूं तो लोग पवनी-तिहार के लिए उपजाते थे। न बीज का झंझट न खाद का। कदुआ, कोंहरा, घिउरा, झिगुनी, परवल त घर के छप्पर और टाटिए पर जरूरत के लायक उपजा लेते थे। मिरचाइए के खेत में बइगन आ काते-काते सौंफ । धान उपजाते और जरूरी के लायक उसका बीज धान के झर्रा का मोड़ बना कर और मकई के बाल को झोरांटी बनाकर बीज के लिए रखते थे।

हल फसल का बीज लोग घर में रखते थे। गाय, भैंस, बैल पालते, उसका गोबर खूब खेत में पटाते। माघ महीना में चौर के धनखेती मे कोदारी से बड़का/बड़का माटी का ढेला ( चक्कर) उखाड कर छोड़ देते और जेठ में बैलगाड़ी से उसे ढोकर लाते। भीठ खेत में एक धूर में एक गाडी के हिसाब से माटी पटा देते। रोहिन नक्षत्र में जब पहली बरसात होती तो ढेला खेत में पसार कर फोड देते। फिर खेत की जुताई करते। तुमको विश्वास नहीं होगा, एक-एक हाथ का मकई का बाल उस पटउनी से होता था। तब प्राय: सभी किसान अपने कुछ भीठ खेत को चउमास छोड़ देते थे। अषाढ़ से उस खेत में मवेशी का बथान तीन महीने के लिए रखा जाता था। तब किसान भेडिहर की खुशामद कर अपने- अपने खेत में भेंडों की झुंड बैठवाते, इसके लिए भेडिहर को भोजन और नगद दान- दक्षिणा भी दिया जाता था। गोबर की बात तो छोड़ो, केवल मवेशी के मूत्र से खेत में जितनी ताकत होती थी, उतनी तो आज बोरा का बोरा डाई पटाने से नहीं होता है। फिर उस चउमासी खेत में तमाकू और मिरचाई की जो फसल होती थी उसे देख लोग दांतो तले उंगली दबाते थे। और अलुआ ? मत पूछो  सिरचन, धूरे मन निकलता था। अलुआ-मठ्ठा तो हम किसानों का प्रिय भोजन था।  अब हरियर क्रांति के अएला से पहिलका खेती का सब तौर-तरीका बिल्कुले अलोपित हो गया। अब त अतेक रसायनिक खाद खेत में उझिलते हैं कि खेते बर्बाद होने लगा है और पूंजियो जादे लगता है।

सिरचन, परेमन और धनेसरा तीनों नवतुरिया लडिका बालगोविन भाई की बात सुनकर अवाक रह गये। घोंचू भाई इनके मनोभाव को ताड़ गये, कहने लगे, बालगोविन भाई बिल्कुल ठीक कहे हैं । मुझको ही देखो, पौने तीन बीघा धान की खेती में विश्वास नहीं करोगे, 43 हजार से ऊपर खर्च हो चुका है। अभी और खर्चा बांकी है। जो हालत है उसमें धान का झर्रा बच जाए वही बहुत होगा। यह हरित क्रांति किसान के गले की फांस बन गई है। बस इतना ही समझ लो कि भंटवा जौरे खेती किया ,गा-बजा के भंटवे लिया।

अब चलते हैं बालगोविन भाई! दूरा पर गाय को भी खिलाना होगा,  कहते हुए घोंचू भाई अपने घर के लिए वापस हुए। परेमन,सिरचन,बिल्टु, बालगोविन परसादी, मुनेसर और धनेसरा फेर अपना – अपना खेत में यह कहते हुए दबाई छिटिया में लग गये कि दोसर कोनो उपायो त नहीं है।


ब्रह्मानंद ठाकुर। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। मुजफ्फरपुर के पियर गांव में बदलाव पाठशाला का संचालन कर रहे हैं।